पुरुषार्थी ही पुरस्कारों के अधिकारी

February 1969

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“लक्ष्मी उद्योगी पुरुष सिंहों को प्राप्त होती है”- वह केवल सूक्ति नहीं, बल्कि एक सिद्धान्त है। ऐसा सिद्धान्त जो युग-युग के अनुभव के बाद स्थिर किया गया है। उन्नति, प्रगति, सफलता और सम्पन्नता का एक मात्र आधार उद्योग अथवा पुरुषार्थ नहीं करेगा, परिश्रम में अपना पसीना नहीं बहाएगा तब तक किसी प्रकार के श्रेय का अधिकारी नहीं बन सका। लक्ष्मी श्रम और उद्योग की ही अनुगामिनी होती है।

कहा जाता है कि लक्ष्मी, श्रेय, सफलता और सम्पन्नता आदि उपलब्धियाँ भगवान् की कृपा से ही मिलती है। ऐसी मान्यता आस्तिकता की द्योतक है, अच्छी है। इस धारणा को बनाकर चलने में कोई हानि नहीं। किन्तु इसका रहस्य समझ लेना भी आवश्यक है।

संसार में चारों ओर जो सुख-सम्पन्नता के साधन और कारण बिखरे पड़े हैं, वह सब एकमात्र उस परमात्मा की ही कृपा है। सुख-दुःख और साधन सुविधा भी उसकी रचना के उसी प्रकार अंग है, जिस प्रकार मनुष्य स्वयं। किसी को मिलने वाली सम्पत्ति उसे तभी ही मिल सकती है, जब उसमें मूल स्वामी की सहमति तथा स्वीकृति सम्मिलित हो इस प्रकार निश्चय ही संसार के सुख-साधन और सम्पत्ति सम्पन्नता परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होती है।

किन्तु, इस विश्वास के साथ वह न भूल जाना चाहिये कि उसकी कृपा यों ही अनायास मिल जाती है। अथवा वह मनमौजी परमात्मा योंही बैठा-बैठा जिसे चाहता है सम्पन्नता अथवा सफलता वितरित करता रहता है और किसी को असफलता एवं विपन्नता, ऐसा नहीं है। उसके विधान में एक नियम और न्यायशीलता रहती है। वह किसी पर न तो अनायास नर अकारण कृपा करता है। और न कोप। सफलता और सम्पन्नता के लिये उस न्यायपरायणता की कृपा अर्जित करनी पड़ती है। जो व्यक्ति नियमपूर्वक उसकी पूजा नियमपूर्वक उसकी कृपा अर्जित कर लेते हैं, संसार में सब कुछ पा जाते हैं और जो इस विषय में प्रभारी अथवा अन्ध-विश्वासी बने रहते हैं, उन्हें खाली हाथ ही रहना पड़ता है।

सम्पन्नता के सम्बन्ध में परमात्मा की कृपा पाने का केवल एक ही आधार है और वह है पुरुषार्थ अथवा परिश्रम। जो व्यक्ति प्रमाद त्याग कर उद्योग परिश्रम अथवा पुरुषार्थ करते हैं, उन पर परमात्मा कृपा करता ही नहीं उसे करनी पड़ती है। वह अपने इस नियम को इस विषय में भंग करने के लिये सक्षम नहीं है। यह अक्षमता उसकी असमानता नहीं, महिमा है। जो व्यक्ति अपने बनाये नियमों के प्रति जितना भीरु और भावुक रहता है, वह उतना ही दृढ़ और महान माना जाता है। उसी व्यक्ति के बनाये विधान का मान तथा पालन होता है।

“पुरुषार्थ का पुरस्कार सम्पन्नता है-यह ए ईश्वरीय नियम ह। परमात्मा का बनाया हुआ, उसी का प्रेरित किया हुआ नियम है। यदि वह स्वयं ही इस विषय में स्वेच्छाचारिता बरतें और उसका अपवाद करने लगे तो उसके विश्व-विधान का क्या महत्व रह जाये। एक नियम का भावुकता विधान के सारे नियमों को महत्व और भावहीन बना देता है। सृष्टि-चक्र नियम की धुरी पर ही घूम रही है। यदि ईश्वर स्वयं ही उसको भंग कर दे तो उसकी यह सृष्टि, उसकी यह लीला और उसका यह निर्माण ही न नष्ट हो जाय। जो पुरुषार्थी है-परिश्रमी है, उद्योग है, उस पर अपने नियमानुसार परमात्मा कृपा करता ही है, वह ऐसा करने को विवश है। सम्पन्नता और सफलता जो पुरुषार्थ का पुरस्कार है, मनुष्य का अपरिहार्य अधिकार है, कोई शक्ति अथवा कोई भी सत्ता उसे इससे वंचित नहीं कर सकेगी।

कोई जेठ परिश्रम का सहज फल है-यह एक निर्विवाद सत्य है। तथापि उसको परमात्मा की कृपा मानना पुरुषार्थी का एक विनम्र आस्तिक भाव है, जो बढ़ा शुभ है। इसलिये कि अपने पुरुषार्थ का श्रेय परमात्मा को दे देने से मनुष्य अहंकार के दोष से सुरक्षित रहता है। यह सब मैंने किया, यह सब मेरे बल-बूते का चमत्कार है-ऐसा अहंभाव लाने अथवा रखने से एक तो उपलब्धियों की सात्विकता नष्ट होती है, दूसरे विवेक भ्रष्ट होता है। इस विषय में आत्म-विश्वास तो ठीक है, किन्तु आत्म-अहंकार ठीक नहीं है। क्योंकि जहाँ आत्म-विश्वास का सृजनात्मक भाव है, वहाँ आत्म-अहंकार ध्वंसक वृति है।

अपने पुरुषार्थ का श्रेय परमात्मा को सौंप देने से और भी अनेक लाभ होते हैं। जैसे उदारता, त्याग और निस्पृहता का भाव विकसित होता है। स्वार्थ, लोभ और लिप्सा से रक्षा होती है। निष्काम कर्मभाव का विकास होता है और सफलता, असफलता में समभाव रहने से कर्मों में अखण्डता बनी रहती है। इसीलिये लाखों में अपने सब कर्म उनके फलों सहित परमात्मा को समर्पित कर देने का निर्देश किया गया है। निश्चय ही यह आस्तिक भाव बड़ा शुभ तथा सात्विक है। तथापि यह कभी न भूलना चाहिये कि श्रेय और सफलता मनुष्य को अपने पुरुषार्थ के बल पर ही प्राप्त होती है। इससे परमात्मा की अनायास कृपा का कोई सम्बन्ध नहीं है।

बहुत बार लोगों को उत्तराधिकार में बहुत बड़ी सम्पत्ति मिल जाती है। इसे परमात्मा की अनायास कृपा कहा जा सकता है। बहुत बार लोग लाटरी आदि के आधार पर भी बिना किसी पुरुषार्थ के धनवान् बन जाते हैं और बहुत बार गुप्त धन मिल जाने से भी धनात्मक प्राप्त हो जाती है। स्थूलता यह परमात्मा की अनायास कृपा ही मालूम होती है। किन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो पता चलेगा कि उस धन के पीछे किसी न किसी का पुरुषार्थ छिपा रहता है। जो धन अनायास मिला होता है, वह उसके वर्तमान अधिकारी के पुरुषार्थ का न सही किसी न किसी विगत अधिकारी के पुरुषार्थ का फल तो होता ही है। बिना किसी के पुरुषार्थ अथवा परिश्रम के उस धन का आपसे आप अस्तित्व में आ जाना सम्भव हो ही नहीं सकता है। कोई भी धन, कोई भी सम्पत्ति और कोई भी साधन आत्मोत्कर्ष नहीं होते। उनके लिये किसी न किसी को उद्योग करना ही होता है।

सत्य बात तो यह है कि वह सम्पत्ति हो तो उसी की है, जिसने उसके लिये उद्योग किया होता है। अब यह उसको चाहे दे जाये, दे दे अथवा किसी को पाने के लिये धरती में रख जाये। किन्तु पाने वाला उसका अधिकारी होने पर भी यथार्थ अधिकारी नहीं होता। ऐसी आकस्मिक सम्पत्ति बहुधा लोगों के पास ठहरी नहीं। वह किसी न किसी बहाने से वह ही जाती है। इस प्रकार बहुत-सा धन पाकर यदि कोई आदमी उसका ढेर सामने रखकर बैठ जाये और बिना कुछ किये उसे व्यय करता रहे तो वह कितने दिन चल सकेगी? शीघ्र ही जल-तपकर समाप्त हो जायेगी।

इस प्रकार अकस्मात् मिली सम्पत्ति भी तभी उपयोगी होती है और तभी ठहरती है, जब मनुष्य अपना भी कुछ पुरुषार्थ करता चलता है और उस उपार्जन के अनुपात से व्यय करता है। इस प्रकार उसकी बनावटता की स्थिरता का आधार उसका अपना पुरुषार्थ ही होगा न कि वह आकस्मिक सम्पत्ति जो उसे उत्तराधिकार, लाटरी अथवा धरती आदि से अनायास मिल गई होती है। सफलता, श्रेय और सम्पन्नता का आधार मनुष्य का अपना पुरुषार्थ ही होता है। इस सत्य को कभी न भूलना चाहिये।

ईश्वर की अनायास कृपा की प्रतीक्षा करने वाले अकर्मण्य लोग संसार में कोई श्रेय प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि उसकी ऐसी कृपा का कोई अस्तित्व नहीं है। वह न लोक में है और न परलोक में तो कर्मठ लोग अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुसार उत्पन्न करते हैं। अपनी इस विशाल सृष्टि में जब परमात्मा ने अनन्त वैभव, अनन्त ऐश्वर्य और अनन्त साधन भर देने की पहले से ही अनन्त कृपा कर दी है, तो उनको पाने, उठाने और चूमने के लिये उसकी कृपा आशा करने का क्या अर्थ है। इसका अर्थ तो यह है कि जो राह बतलाये वह साथ चले, जो भोजन दे वह हाथ से खिलाये भी। कैसी विचित्र विलक्षण और आलोकित बात है। विभूतियों का भण्डार भरा पड़ा है। सफलताओं के सागर लहरा रहे हैं और श्रेय संसार में सब और दीख रहे है। कोई भी पुरुषार्थ तथा परिश्रम द्वारा पात्रता प्रमाणित करके उनको प्राप्त कर सकता है। इस सुविधा, सरलता और अवसर के होते हुए भी यदि कोई हाथ पर हाथ रखे हुए उन्हें योंही या सेना चाहता है तो सिवाय इसके कि बहते बैठा-बैठा मुँह ताकें और हर आकांक्षा के लिये तरसे, उसके भाग्य में कुछ न होगा।

“लक्ष्मी उद्योगी पुरुष सिंहों को प्राप्त होती हैं।” “सफलता और श्रेय पुरुषार्थी का भाग होता है।” सम्पन्नता तथा सम्पत्तिशाली परिश्रमी क अधिकार होना है-इन सत्यों में किसी प्रकार भी अपवाद घटित नहीं किया जा सकता। संसार में एक नहीं असंख्यों प्रकार की विभूतियाँ भरी पड़ी हैं। ये सब मनुष्य के सिवाय और किसी के लिये नहीं है। नित्य ही लोग पात्रता प्रमाणित करके उन्हें पाते और प्रसन्न होते रहते हैं कोई दूसरे लोग उन्हें क्यों नहीं प्राप्त कर सकते। उन्हें प्राप्त करने का सभी को समान अधिकार है। किन्तु इस अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़ा हुआ है। यह कर्तव्य यह है कि उसके पाने के लिये परिश्रम किया जाय, पसीना बहाया जया, पुरुषार्थ और उद्योग किया जाये। कर्तव्य का पालन किए बिना कोई भी अधिकार साकार नहीं होता।

संसार परमात्मा की लीला-भूमि और मनुष्य की कर्म भूमि है। यहाँ पर पग-पग पर प्रतियोगिता में, परीक्षा में अपने को डालकर पात्रता प्रमाणित करनी होती है। उसमें विजय प्राप्त करने पर ही पुरस्कार मिलता है। परीक्षा प्रतियोगिता उत्तीर्ण किए बिना न तो आज तक किसी को सफलता तथा श्रेय मिला है और न आगे ही मिलेगा। जिसे श्रेय एवं सफलता की आकांक्षा है, वह अपने को प्रतियोगी मानकर इस कर्मभूमि में अपनी कर्म तथा कर्तव्यशील का प्रमाण दे और तब देखे कि उसे मनोवाँछित फल मिलता है या नहीं।

परिश्रम, परिश्रम और केवल उचित परिश्रम ही सफलता का आभार। इसके लिये परमात्मा की अनायास कृपा पर निर्भर करना अनाधिकार चेष्टा है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। उस परमपिता ने मनुष्य को पहले से ही बल, बुद्धि और विशेषताओं से भरा शरीर देकर महती कृपा कर दी है, साथ ही उसने सारी विभूतियाँ और समस्त ऐश्वर्य इस विराट विश्व में बिखेर दी हैं। अपनी योग्यता और पात्रता बढ़ाइये अपना हो जाइये। आपको सफलता अवश्य मिलेगी तदापि यदि एक-दो चार -छः दस-बीस बार भी असफलता मिले तो भी निरास अथवा हतोत्साह न होइए और न पुरुषार्थ की महिमा में विश्वास खोकर परमार्थवादी बनिये प्रयत्न करते जाइये, अधिकाधिक पसीना बहाते चलिये आप जीतेंगे। क्योंकि संसार में सभी को सफलता के शिखर पर पहुँचने के लिये न जाने कितनी असफलताओं का सामना करना पड़ता है। परिश्रम, पुरुषार्थ तथा श्रेय एक सफलता के अमोल बीज है, जो न कभी व्यर्थ हुए है और न आगे होंगे। वह दूसरी बात है कि भूमि के अनुसार उन्हें फलीभूत होने में थोड़ा विलम्ब लग जाये। सो इसके लिये मनुष्य को धैर्य तथा स्थिरता की सँभाल रखनी चाहिये।


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