आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण-भूत

February 1969

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यदि उसे अन्य विश्वास न बनाया जाये तो भूत और प्रेतों का अस्तित्व यह साबित करेगा कि आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व भी है, एक अवस्था विशेष होती है, जब आत्मा अपनी नितान्त शुद्ध अवस्था प्राप्त कर परमात्मा स्वरूप हो जाती है, किन्तु जब तक पाप, इच्छाएँ, ममता, वासनायें आदि विकारों की परत उस पर चढ़ी रहती है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व बराबर कायम रहता है।

विज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शी इन उक्तियों को मानने के लिये तैयार नहीं उनका कहना है कि मृत्यु के बाद जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। शरीर के सभी रासायनिक पदार्थ रूपांतरित होकर शारीरिक सत्ता को बिगाड़ देते है, फिर कुछ नहीं रहता।

किन्तु उनके लिये भूत एक चुनौती है, भूत को लेकर माना अन्ध विश्वास भी खूब फैला है तो भी वह सब इसी चिर सत्य की नकल भर है। ऐसे प्रामाणिक उदाहरण भी है, जिन्होंने भूत पर कभी विश्वास नहीं किया तो भी उन्हें उस सम्पर्क में आना पड़ा। कुछ घटनायें ऐसी भी घटित हुई, जिनमें न कोई अन्य मान्यता थी न भ्रम, उन घटनाओं ने पाश्चात्य जीवन में भी भूत की मान्यता को जीवित कर दिया।

इंग्लैंड के डा. मौर्टन प्रिन्स ने मिस बोचैन्य नामक लड़की की परीक्षा करने के बाद अपना यह मत व्यक्त किया कि भूत जैसी कोई वस्तु सम्भव है, जो गतिशील हो सकती है। इस लड़की की दशा कभी कभी बड़ी विचित्र हो जाती थी। कई बार उसे दर्द होता था और कुछ देर उसकी विचित्र स्थिति रहती, फिर वह भली सी हो जाती थी, किन्तु उसके सब क्रिया कलाप बदल जाते थे। उस समय वह अपना नाम बोचैम्प न कहकर सैली बताती थी। और परिवार वालों को बहुत तंग करती थी। कई ऐसे पत्र लिख देती थी जिसके विषय बोचैम्प से सम्बन्धित होते ही नहीं थे, बाद में उस लड़की की परेशानी बढ़ जाती थी। इसके बाद जब सैली चली जाती थी तो बौचैम्प का व्यवहार फिर पूर्व चल ही जाता था।

इसी प्रकार रेवरेन्ड एन्सिल बोर्न नामक एक ईसाई प्रचारक ने एक हलवाई के यहाँ नौकरी करके एकाएक लोगों को हैरत में डाल दिया कई सम्बन्धी उसके पास गये और कहा आप पादरी होकर यह काम करते है-चलिये अपने निवास स्थान में अपना काम करिये तो वह बिगड़ बोला-मेरा नाम एन्सिल बोर्न नहीं, ए. जे. ब्रोन है, मैं तो हमेशा से नौकरी करता है। कुछ दिन बाद ब्रोन फिर ईसाई प्रचारक का काम करने के लिए आ गया पर उसने बताया कि इस बीच उसने क्या किया, इसका बिलकुल स्मरण नहीं है, क्योंकि मेरा अस्तित्व ही न जाने कहाँ खो गया था। यह तो बाद में पता चला कि ए. वे. ब्रोन नामक एक व्यक्ति पहले किसी हलवाई की दुकान पर काम करता था पर उसकी कुछ दिन पूर्व मृत्यु हो गई थी।

पादरी महोदय उस अवधि में जो कुछ बोलते, खाते पीते रहे वह पूर्व ब्रोन के स्वभाव से बिलकुल मिलते जुलते थे, जिसका कि उन्हें बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। समझा जाता है कि इस अवधि में उनके शरीर पर उसकी प्रेतात्मा ने अधिकार कर लिया था। दोनों अवस्थाओं में वे पूर्ण स्वस्थ थे, मस्तिष्क भी ठीक था, वे एक विश्वसनीय व्यक्ति थे तो भी इस तरह के असामान्य परिवर्तन का कारण क्या था, इसका कोई उत्तर विज्ञान देने में असमर्थ है। वह स्थूल वस्तुओं को जान सकता है सूक्ष्म तत्त्वों को नहीं

कविवर गजानन मुक्ति बोध के सम्बन्ध में उनके अनेक मित्रो का और धर्म पत्नी का ही यह ख्याल नहीं था कि वे प्रेत बाधा के शिकार हो गये है वरन् दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक डा. विग ने भी यह स्वीकार किया कि उन पर तीव्र से तीव्र औषधियों का कोई प्रभाव ही नहीं परिलक्षित होता, यह सर्वथा समझ से परे बात है। काशी निवासी शव साधक तान्त्रिक श्री अरुणकुमार शर्मा, जिन्होंने कठिन प्रेत साधनायें सिद्ध की, तिब्बत में रहकर लामाओं से गुह्यतत्त्व सीखे, श्रीलंका से बौद्धदर्शन में एम॰ ए॰ तथा जब सिद्धि उपलब्ध किया-श्री गजानन माधव मुक्ति-बोध के सम्बन्ध में पहले ही बता दिया था कि-उन पर भूत व्याधि है और सन् 1964 उनके जीवन का अन्तिम वर्ष है।

वही हुआ भी, हमीदिया अस्पताल भोपाल में उनकी अच्छी से अच्छी चिकित्सा की गई, किन्तु वे अच्छे न हुए मरणासन्न स्थिति में वे राम राम और आई, गई (ओ माँ) ऐसे शब्द बोलते थे, जबकि उन्होंने जीवन में कभी उपासना न की थी। उनकी स्थिति देखने वाले सभी समीपवर्ती लोगों ने जो अधिकाँश सभी शिक्षित और प्रतिष्ठित व्यक्ति रहे है, यह माना कि उनकी मृत्यु प्रेत बाधा से ही हुई। उनके निधन और दाह कर्म की सूचना रेडियो से बड़े दुःख के साथ दी गई थी।

अमेरिका के कैलीफोर्निया शहर की एक घटना इस प्रकार है-

इण्डावरी नामक मुहल्ले में एक भुतहा मकान था। कोई भी उसमें रहने के लिए तैयार नहीं होता था। एक बार चार विद्यार्थी आये और उन्होंने भूत की मान्यता को मिथ्या भ्रम कहकर मकान किराये पर ले लिया। एक दिन जब चारों आँगन में कुर्सियों पर बैठे थे तो अचानक चारों कुर्सियाँ ऊपर उठने लगी। सात आठ फुट ऊपर जाकर चारों हवा में स्थिर हो गई। वे चारों बहुत घबड़ा गये और यह न समझ पाये कि ऐसा क्यों हुआ फिर भी उन्होंने मकान छोड़ा नहीं एक रात जब वे सो रहे थे तो उन पर अचानक पत्थरों की वर्षा होने लगी। पत्थरों से भरा एक टूटा सन्दूक बिस्तर पर आ गिरा। इससे घबरा कर चारों मकान छोड़ कर भाग गये। खोज करने पर पता लगा कि उस मकान में चार पाँच वर्ष पहले एक डाक्टर ने आत्म हत्या कर ली थी। उसी की आत्मा वहाँ मँडराया करती थीं।

भारतीय दर्शन की यही मान्यता है कि अकाल मृत्यु या आत्म हत्या द्वारा जब किसी की मृत्यु होती है तो आत्मा के अणु हलचल में बने रहते है, उनकी वासनायें और अहंकार मनोमय कोश में चले जाते है, अणुओं की सक्रियता जब तक स्थिर रहती है, तब तक आत्मा भूत या प्रेत अवस्था में बनी रहती है। इस तरह की आत्मायें जीवित प्राणियों पर अपना प्रभाव डाल सकती है पर केवल उन्हीं पर जिनकी इच्छा शक्ति और मनोबल उससे कमजोर हो। वस्तुओं का स्थानान्तरण भी वे कर सकती है, क्योंकि प्राणमय शरीर के अणु भी रहते है, जो स्थूल परमाणुओं को आसानी से हिलाडुला सकते हैं।

1 दिसम्बर 7963 के धर्मयुग में श्री दामोदर अग्रवाल ने स्वबीती घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है- उस दिन घर की खूब सफाई की गई थी पर दिन भर दुर्गन्ध आती रही। रात की बची पूरियाँ अलमारी में रख दी गई। सुबह ताला ज्यों का त्यों बन्द मिला लेकिन पूरियाँ गायब थी। रात को बर्तन धोकर रखे जाते थे, सबेरे जूठे मिलते थे बड़े भाई का विवाह हुआ, आँगन में तिलक के लड्डू रख दिये गये। सुबह लड्डुओं की जगह गन्दी गोली मिट्टी मिली। अच्छी से अच्छी मिठाइयाँ रात भर में सड़ जाती थी। रसोईघर में अजनबी पंजों के चिह्न मिलते और दीवारों शीशों पर उँगलियों के धब्बे। बिस्तर ऐसे दिखते जैसे उन पर अभी अभी कोई सोकर उठा हो। जरा-सा हटे नहीं कि गिलास का दूध गायब। मुश्किल यह थी कि हमारे लाख प्रयत्न करने पर भी अपराधी का पता न चलता। रात भर बन्दूकें लिये पहरा देते पर जैसे ही झपकी लगती पूरा घर नरक हो जाता।

‘फेट’ नामक पत्रिका के अगस्त 1962 अंक में पेज नं. 43 में श्रीमती सेना सरंजेस्की का संस्मरण सिसकते भूत का सन्देश छपा है। वे लिखती है कि वे जिस मकान में रहती थी, उसमें कभी कभी सीढ़ियों पर और कमरों में किसी के टहलने की आवाज आया करती थी। एक दिन उन्हें लगा कि पास ही छाया खड़ी है। उन्हें स्मरण हो आया कि इस मकान में टेड अलिशन नामक व्यक्ति ने आत्म हत्या की थी। यही सबको मालूम भी था। वे लिखती है-मैंने साहस करके पूछा-आप टेड तो नहीं है तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने यह स्पष्ट सुना-यह मैंने पूछा आप कुछ बताना चाहते है? पर इससे पूर्व कि कोई उत्तर सुनें, वह छाया गायब हो गई और फिर कई दिन बाद आई। मुझे लगा कि वह कुर्सी पर बैठ गया है। मैंने फिर साहस करके पूछा- “आप सिसकते क्यों हैं, क्या आप कुछ कहना चाहते।”

इस बार उसने बताया- “मैंने आत्म-हत्या नहीं की थी, किसी जहरीली औषधि के भूल से सेवन से यह दुर्घटना हुई। आप मेरी धर्म-पत्नी को कहना, में अपनी, बच्चियों को बहुत प्यार करता हूँ। इसके साथ ही वह आत्मा वहाँ से चली गई। बाद में मैंने श्रीमती टेड से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि निःसन्देह वे अपने साथ इन्सुलिन की शीशी रखते थे और उसी के द्वारा उनकी मृत्यु हुई थी। उस दिन के बाद वहाँ कोई आत्मा नहीं आई।

अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, जापान और भारत में ऐसे अनेक प्रयोगकर्ता हैं, जो इस तरह मृतात्माओं से संपर्क साधते हैं और उन अज्ञात बातों का पता सही- सही लगा लेते हैं। सर ओलिवर लाज, डा. पील, सर आर्थर कानन डायल, डा. अल्काट और भारत में प्रो. वी.डी. ऋषि जो इन्दौर के भूतपूर्व रिटायर्ड सेशन बज थे, ऐसे प्रयोग करते रहें हैं। इन सारी घटनाओं को अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। उनसे आत्मा के अस्तित्व की ही पुष्टि होती है।

खराब आत्मायें जिस प्रकार भूत और प्रेत-योनियों में जाती हैं, भारतीय दर्शन की यह मान्यता है, उसी प्रकार उत्कृष्ट कोटि की आत्मायें अपना अधूरा काम पूरा करने के लिये पुनर्जन्म ग्रहण करती हैं। एक से कार्यों का संचालन और एक सी परिस्थितियों में जीवन का प्रादुर्भाव उक्त मान्यता की पुष्टि करता है, इस सम्बन्ध में अमेरिका के जिम विशप द्वारा प्रस्तुत अमेरिका के प्रेसीडेन्ट अब्राहम लिंकन और जान एफ॰ कैनेडी के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन बड़े मार्के का है। उनकी मान्यता है कि अब्राहम लिंकन ही जान एफ. कैनेडी थे।

चालीस वर्ष की अवस्था में ही लिंकन को भी राष्ट्रपति बनने की इच्छा हुई और कैनेडी को भी। दानों की इच्छा थी कि अमेरिका और विश्व में शाँति स्थापना के लिये प्रयत्न करें।लिंकन दक्षिण को बहुत चाहतें थे और कैनेडी भी। नीग्रो स्वतन्त्रता के लिये लिंकन ने भी प्रयत्न किये पर दक्षिणा उसके लिये तैयार नहीं हुआ, यही स्थिति कैनेडी की भी रही। लिंकन के चार बच्चे थे, दो मर गये थे, दो उनके साथ रहने थे। लिंकन उनसे हमेशा हँसी मजाक करते लिंकन की पहली धर्मपत्नी फैशनेबुल स्त्री थी, कविता और पेंटिंग उन्हें पसन्द थीं, उन्हें राजनीति की अपेक्षा अपना घर अच्छा लगता था। कैनेडी की पहली धर्मपत्नी भी ठीक वैसे ही स्वागत की थीं,। लिंकन की धार्मिक मान्यतायें बहुत गहरी थीं, वे हमेशा बाइबिल पढ़ते रहते। कैनेडी भी धर्म पर अडिग विश्वास रखते थे और बाइबिल पढ़ते थे। दोनों ही लिबरल पार्टी से सम्बन्धित थे। लिंकन भी स्टार्च खाते थे और थे और कैनेडी भी। लिंकन 1861 में राष्ट्रपति हुए, कैनेडी 1961 में। लिंकन की सुरक्षा के लिये जो सर्वाधिक चिन्तित रहता था, उसका नाम कैनेडी था और कैनेडी की सबसे अधिक चिन्ता करने वाले उनके प्राइवेट बेक़रारी का नाम लिंकन था। दोनों की मृत्यु भी शुक्रवार के दिन हुई, दोनों गोली के शिकार हुये। लिंकन का पद उनकी मृत्यु के उपरान्त दक्षिणी पद सम्भाला। (मिरर, मार्च 1964 में प्रकाशित )

यह संयोग नितान्त आकस्मिक नहीं कहें जा सकते। निस्सन्देह उनमें आत्मा का कोई सूक्ष्म विधान सन्निहित हैं, उससे इनकार नहीं किया जा सकता।


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