गायत्री उपासना के सत्परिणामों की चर्चा सदा सर्वदा सुनाई पड़ती रहती है। जिनने भी इस महामंत्र का आश्रय लिया है, उसी ने आशाजनक और उत्साह वर्धक फल पाया है।
‘गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार’ पुस्तक इन दिनों तो नहीं छपती पर जिन दिनों वह छपी थी, उसमें सहस्रों ऐसे व्यक्तियों के व्यक्तिगत अनुभव प्रकाशित हुए थे, जिनसे स्पष्ट है कि अनेक विपत्तियों में फँसे हुए- संकटों में पड़े हुए व्यक्ति किस प्रकार गायत्री माता की शरण में जाकर उन असाधारण कठिनाइयों से छुटकारा पा सकें। इसी प्रकार उन घटनाओं का भी पुस्तक में वर्णन था, जिनमें अनेक अभाव ग्रस्तों ने अभावों से और निराशाजनक स्थिति में पड़े हुओं ने निराशा से छुटकारा पाया। ऐसी घटनायें सामान्य जीवन में अनादि काल से होती रही हैं और होती रहेगी।
प्राचीनकाल में भी ऐसी अनेक महत्वपूर्ण घटनायें घटित होती रही है, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि गायत्री उपासना साधारण से साधारण और असाधारण से असाधारण समस्याओं को सुलझाने में एक चमत्कारी उपाय को तरह सत्परिणाम उत्पन्न करती रही है।
देवी भागवत् में ऐसे कतिपय प्रसंगों की कथायें मिलती है, जिनमें इस तथ्य का प्रतिपादन है कि देव, दानव, ऋषि-मुनि पुरुष और स्त्रियाँ समय समय पर माता का आश्रय ग्रहण करके दुःखों सके सुखों की ओर, अशाँति से शाँति की ओर अग्रसर होने में समर्थ होते रहे है।
अनेक देवताओं ने तथा महापुरुषों ने भी अपने अनुभवों की चर्चा इसी प्रकार की है, जिससे महामहिमामयी माता की महत्ता का प्रतिपादन होता है और इस तथ्य का समर्थन होता है कि इस कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वाले की कामनायें पूर्ण ही होती रही है। इस कामधेनु का पायपान करने वाला सदैव अतृप्तियों की क्षुधाओं से छुटकारा पाकर पूर्ण रूप ही बना है। यह उद्धरण हमारी श्रद्धा को जागृत करते है और प्रेरणा करते है कि उपासना में तथा जीवन साधना में उन तत्वों का समावेश करे, जिनका प्रतिपादन गायत्री तत्व ज्ञान के अंतर्गत किया गया है।
ध्रुव कुमार अपना अनुभव सुनाते हुए राजाओं से महामहिमामयी सावित्री (गायत्री) का प्रभाव बताते हुए निर्देश करते है कि यही उपासना सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोपरि है-
कि ब्रवीमि महीपालास्तस्यश्ररितमुत्तथा। ब्रह्मादयो न जानन्ति सेशाः सुरगणास्तथा॥
ध्रुव कुमार से सब गायत्री का महात्म्य पूछा गया तो उसने राजाओं से कहा-हे नृपगण! मैं उस सावित्री देवी के अत्युत्तम चरित के विषय में क्या वर्णन करूं। उसका चरित ऐसा अप्रमेय है कि ब्रह्मादिक बड़े बड़े देवगण भी उसे नहीं जानते हैं।
सर्वस्याद्य महालक्ष्मी वेरण्या शक्ति उत्तमा। सात्त्वकीयं महीपाला। जगत्पालन तत्परा॥
हे नृपगण! यह देवी परम सात्त्विकी, सबसे आद्य, महालक्ष्मी, वरेण्या और उत्तम शक्ति स्वरूपा है तथा इस जगत के पालन, रक्षण करने में सर्वदा तत्पर रहा करती है।
सृजते या रजोरुपा सत्वरुपा च पालंन। संहारे च तमों रुपा त्रिगुणा सा सदा मता॥
निर्गुणा परमा शक्तिः सर्वकाम फल प्रहा। सर्वेषां कारणं साहि ब्रह्मादीनं नृपोत्तमाः।
निर्गुण सर्वथा ज्ञातुमराक्या योगिमिनृप्तः।
वह सावित्री देवी रजो गुण के स्वरूप वाली इस जगत का सृजन किया करती है। और सत्व गुण का स्वरूप धारण करके इसका पालन करती है। जब इस प्रपंचात्मक विश्व का वह संहार करके लय करना चाहती है तो तमोगुण के रूप को धारण कर लेती है। इसके सर्वदा त्रिगुण सम्पन्न स्वरूप है उसमें परमशक्ति है ओर वह समस्त कामनाओं के फलों का प्रदान करने वाली है। हे नृपोत्तमगण! ब्रह्मा आदि सबका यह कारण स्वरूप है। हे नृपगण! इसका निर्गुण स्वरूप तो बड़े-बड़े योगियों के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है।
यस्येच्छया सृजति विवमिदं प्रजोी नानावतार कलनं कुरुते हरिश्च। नुनं करोति जगतः किल भस्म श्म्भु स्ताँ शर्मदां न भजतेनु कथं मनुष्यः॥
जिसकी इच्छा से प्रजा का स्वामी ब्रह्मा इस सम्पूर्ण विश्व का सृजन किया करते हैं तथा भगवान् हरि अनेक अवतार धारण करते हैं एवं भगवान् शम्भु इस जगत् को संहार करके भस्म कर देते हैं, यह मनुष्य कैसा हैं जो ऐसी कल्याणकारिणी सावित्री देवी का भजन नहीं किया करता है।
नारद जी की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए भगवान् विष्णु ने देवर्षि को कहा था कि सर्वोपरि उपास्यतत्व भगवती ही है। उसका आश्रय लेने वाला समस्त अशान्तियों से छुटकारा पा सकता है और अपनी आत्मिक तथा भौतिक प्राप्ति का पथ प्रशस्त कर सकता है। प्राचीन काल के महामानवों की भाँति इस समय भी सर्व साधारण के लिये इसी महान् आश्रय का अवलम्बन करना उचित है।
देव देव! महादेव! प्राण पुरुषोत्तम! जगदाधार! सर्वज्ञ! श्लाघनीयोसु संगुण।
जगतस्तत्व माद्यंयत्तन्से वद यथेप्सितम्। जायंते कुल एवेदं कुतश्चेदं प्रतिष्ठितम्॥
कुतोऽन्तं प्राप्नुमात्काले कुत्र सर्व्वं फलोदयः। केन ज्ञातेन मायैषा मोहभुनशि माप्नुयात्॥
कयार्चया कि जपेन किध्यानेमात्य हृदब्ज के। प्रकाशो जायते देव तमस्येर्कोदयो यथा॥
एतत्प्रश्नोत्तरं देव ब्रुहि सर्व्व मशेष तः। यथा लोक स्तरेदन्धतमसं त्वन्जसैव हि॥
अर्थ-एक समय देवर्षि नारद जी ने भगवान् नारायण के समीप में उपस्थित होकर उनसे पूछा था-हे परम देवों के भी देव!आप तो श्रेष्ठतम एवं परम पुराण पुरुष हैं तथा इस समस्त जगत् के आधार और सभी कुछ के ज्ञान है। आप इस जगत् का जो आद्य तत्व हो वह मुझे बताइये। इसकी उत्पत्ति कहाँ से होती है, किसमें यह प्रतिष्ठित है तथा कैसे इसका अन्त होता है। समस्त फलों का उदय कहाँ से होता है? किसका ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मोह की भूमि इस माया का नाश होता है। किस जप, ध्यान, अर्चना से अन्धकार में सूर्योदय की भाँति हृदय में प्रकाश होता है? हे भगवान्! टाप कृपाकर इन मेरे प्रश्नों का उत्तर प्रदान कीजिये जिससे यह लोक इस अन्धकार से आसानी से तर जावे।
एवं देवर्षिणा पृष्टः प्राचीनो मुनि सत्तमः। नरायणो महायोगी प्रतिनन्द्य वचोऽब्रवीत्॥
श्रृणु देवर्षि वयत्रि जगतस्तस्वसुत्तमम्। येन ज्ञातेन मन्त्योहि जापते न जगह भ्रमे॥
जगत स्तस्वमित्येव देवी तयाच प्रति पाल्यते। तथा च नाश्यते सर्वमिति प्रोक्तं गुणबयात्॥
तस्याः स्वरुपं यक्ष्मामि देव्याः सिद्धर्वि पूतिजतम्। स्मरताँ सर्व यापध्नं कामदं मोर्क्षव तथा॥
अर्थ- महर्षि व्यास जी ने कहा-इस प्रकार से देवर्षि नारद जी ने जब पुराण पुरुष महायोगी भगवान् नारायण से पूछा तो नारायण ने नारद की इस जिज्ञासा का अभिनन्दन करते हुए कहा-हे देवर्षि! इस जगत् का जो उत्तम तत्व हैं, उसे मैं बतलाता हूँ। तुम श्रवण करो। इस तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मनुष्य को जगत् का भ्रम नहीं रहता है। मैंने बतलाया है कि इस जगत् का तत्व देवी है ओर यही अन्य देव, ऋषि, गन्धर्व और मनीषियों ने भी बतलाया है। वह देवी ही इस जगत् का सृजन करती है और उसी के द्वारा इसका पालन होता है तथा अन्त में नाश भी वही किया करती है। उसका वह स्वरूप मैं बतलाता हूँ, जो सिद्ध ऋषियों के द्वारा समर्पित होता है। इस स्वरूप का स्मरण करने वालों के समस्त पापों का क्षय हो जाता है, सारे मनोरथ सफल होकर इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
स्वयंभू मनु ने जब यह कामना की कि उन्हें अपनी गोदी में भगवान कर्त्ता एवं नियम व्यवस्था बनाने का श्रेय प्राप्त हो तो उनकी यह कामना भी माता के सहारे ही पूरा हुई। कामना पूर्ति का उपाय जब मनु ने ब्रह्मा जी के समक्ष प्रस्तुत दिया और उसका पालन करने पर उन्होंने अभीष्ट फल भी प्राप्त किया -
मनुः स्वायम्भुव स्खाद्यः पअ पुत्रः प्रतापवान। शतरुपा पतिः श्रीमान सर्व मन्वन्तापियः॥
स मनुः पितारं देख प्रजापति मकल्मषय। तक्ता पर्मचरत्पूर्व तमुवाचात्मम सुलम॥
पुत्र,पुत्र त्वया कार्य देम्वाराधन मुत्तमम॥ तत्प्रसारेन ते तात। प्रजा सर्म प्रसिद्धयति॥
अर्थ- समस्त मनुजों का स्वामी, शतरूपा के पति स्वायम्भुव मनु ने अपने पिता की परिचर्या की थी। उस समय ब्रह्मा जी ने उससे कहा -हे पुत्र!तुमको देवी की आराधना करनी चाहिये। उसी के प्रसाद से प्रजा का सर्ग करने का तुम्हारा कार्य सफल होगा।
एव्मुक्तः प्रजाखण्डा मनुःस्वाश्यम्भुयो बिरड़। जगद्योनि तहा देवी तपसातर्वगड़ विमः॥
सुष्टाव देवी सर्ध्वप्रतितं सर्ध्व कारण कारणम।। नमो नमस्तें देवेशि! अनस्कारण कारणे!
शंख चक्र गदा हस्ते! भागवतों देवी नारायणी परा। प्रसन्ना प्राह,देवर्षे! ब्रहापुत्र मिदं नखः॥
अर्थ- प्रजा के सृजन करने वाले पितामह के द्वारा इस प्रकार से आदेश दिये जाने पर विराट स्वायम्भुव मनु ने इस जगत की समुत्पत्ति करने वाली देवी को उस समय अपनी उत्कृष्ट तपश्चर्या के द्वारा संतृप्त कर दिया था। समाहित बुद्धि वाले मनु ने समस्त देवों की स्वामिनी देवी कर स्तवन किया- हे देवेशि! आप सम्पूर्ण शक्ति से सम्पन्न हैं और सबके कारणों के भी कारण स्वरूप वाली हैं, अर्थात् जो इस जगत के कारण है। उनको भी आपने समुत्पन्न किया है। हे जगत्कारण कारणे! आद्य माये! आपके चरणों में मेरा प्रणाम है। शंख, चक्र और गदा हो हाथों में धारण करने वाली और भगवान नारायण के हृदय में आश्रय ग्रहण करने वाली हैं। इस प्रकार से मनु के द्वारा संस्तुत नारायणी देवी बहुत प्रसन्न हुई और ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु से यह वचन बोली-
वरं वरय राजेन्द्र!ब्रह्म!यदिच्छसि। प्रसन्नहं स्तवेनात्र भक्त्या कासुणिकोत्तमे।
तवा निर्विध्नता सृष्टिः प्रजायाः स्वात्तबाज या॥ प्रजा सर्गः प्रभवतु ममानुग्रहतः किल।
निर्विघ्नेन च राजेन्द्र! वृद्धिष्चप्युत्तरोत्तरम्॥ यः काष्चित्पठते स्तोत्र मद्भक्ता त्वकृतं सवा।
तेषाँ विद्या प्रजा सिद्धिः कीर्तिः कान्त्पुदयः खलु॥
अर्थ- देवी ने कहा-हे राजेन्द्र! हे ब्रह्मा के पुत्र! जो भी तुम चाहते हो वरदान माँग लो। तुम्हारे इस स्तवन और आराधन से मैं प्रसन्न हूँ। मनु ने कहा-यदि आप मुझ पर करुणा कर प्रसन्न है तो मैं यहीं चाहता हूँ प्रजा की सृष्टि की उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। मेरा यह स्तवन जो भी कोई पड़ेगा उसको भी विद्या और प्रजा की तथा कीर्ति की सिद्धि होगी।
वेद ज्ञान और विज्ञान के उद्गम है। उनमें विश्व के सुख-शाँति और प्रगति के महान् रहस्य छिपे हैं। ब्रह्मा जी ने वेदों का निर्माण किया और उनसे कहा-तुम पग-पग पर भगवती महाशक्ति का प्रतिपादन करना। गायत्री के शीर्ष भाग तथा तीन चरण को मिलाकर इस महामंत्र के चार खण्ड किये गये हैं और प्रत्येक खण्ड से एक-एक वेद बनाया गया है। वेद गायत्री की व्याख्या है और वे अपनी आदि जननी वेद माता के गुणानुवाद निरन्तर गाते रहते है। वेदों को समस्त ऋचाओं को गायत्री की व्याख्या मात्र कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति नहीं। गायत्री सम्पूर्ण विद्याओं, सुख और समृद्धि का बीज है, उसे जानकर और कुछ जानना, उसे पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।