अपनों से अपनी बात- - विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा-वेदना

February 1969

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विदाई के दिन जितने समीप आते जा रहें हैं, उतनी ही गति से हमारी भावनाओं में उफान आता जा रहा है। लोगों को मौत का डर लगता हैं, सो अपने को न कभी था और न अब है। व्यक्तिगत स्वामित्व और अहंकार के कारण उत्पन्न होने वाला मोह भी कब विदा हो गया। अवधूत की तरह मरघट में रहना पड़े तो भी अपने को कष्ट होने वाला नहीं है। सन् 60 का अज्ञात-वास ‘सुनसान के सहचरों’ के साथ हँसते-खेलते काट लिया था। जिन्दगी के शेष दिनों को शरीर किन्हीं भी परिस्थितियों में पूरा कर लेता। विदाई के बाद उत्पन्न होने वाली अन्य सभी विषम परिस्थितियों को सहन करने योग्य विवेक, धैर्य, साहस ओर अभ्यास अपने को है। बार-बार जो हूक और इठन कलेजे में उठती है उसका कारण यदि कोई दुर्बलता हो सकती है तो एक ही हो सकती है कि जिनको प्यार किया, उनको समीप पाने की भी अभिलाषा सदा बनी रही। एक कुटुम्ब बनाया, घरौंदा खड़ा किया, उसे बड़े प्यार से सजाया, बड़ी-बड़ी आशायें बाँधी, बड़े अरमान सँजोये। अब जबकि वे सपने कुछ-कुछ सजीव होने लगे थे, तभी नींद खुलने का समय आ गया। ऐसा मीठा सपना अधूरा ही छोड़ना पड़ेगा यह कभी सोचा भी न था। प्यार के धागों को इस तरह तोड़ना पड़ेगा, इसकी कभी कल्पना भी न की थी। जाने-जाने की बात बहुत दिन से कही, सुनी जा रही थी। उसकी जानकारी भी थी पर यह पता न था कि प्रियजनों के बिछुड़ने की व्यथा कितना अधिक कचोटने वाली-ऐंठने मरोड़ने वाली होती है। अब विदाई के क्षण जितने समीप आते-जाते हैं, वह व्यथा घटती नहीं बढ़ती ही जाती है।

यों यह एक विडम्बना ही है कि जो माया मोह का खण्डन करता रहा हो, ज्ञान-वैराग्य का उपदेश करता रहा हो, वह अवसर आने पर-अपने ऊपर बीतने पर इतनी व्यथा-वेदना अनुभव करे।

अपनों से छिपाया जाय? अब हम अपने अन्तर की हर घुटन, व्यथा और अनुभूति को अपनों के आगे उगलेंगे ताकि हमारे अन्तर का भार हल्का हो जाय। और परिजनों को भी वास्तविकता का पता चल जाय। आत्म-कथा तो कैसे लिखी जा सकेगी पर जो अंतर्द्वन्द्व घुमड़ते हैं, उन्हें तो बाहर लाया ही जा सकता है। इसे सुनने से सुनने वालों को मानव तत्व के एक पहलू को समझने का अवसर ही मिलेगा।

लोग अपनी आंख से हमें कुछ भी देखते रहे हों, अपनी समझ से कुछ भी समझते रहे हों। किसी ने विद्वान, किसी ने तपस्वी, किसी ने तत्व-दर्शी किसी ने मात्रिक, किसी ने लोक-सेवी किसी ने प्रतिभा-पुंज आदि कुछ भी समझा हो। हम अपनी आँखों और अपनी समझ में केवल मात्र एक अति सहृदय, अति भावुक और अतिशय स्नेही प्रकृति के एक नगण्य से मनुष्य मात्र रहें है। प्यार करना सीखने और सिखाने में सारी जिन्दगी चली गई। यदि कोई धन्धा किया है तो एक कि महँगी कीमत देकर प्यार खरीदना और सस्ते दाम पर उसे बेच देना। इस व्यापार में लाभ हुआ या घाटा इसका हिसाब कौन लगाये? खाली हाथ नग-धड़ंग आठ पौण्ड वजन लेकर आये थे, अब कपड़ों में लिपटा एक सौ सोलह पौण्ड वजन लेकर जा रहें हैं- खोया क्या, पाया ही तो हैं। तब एक माँ और एक कुटुम्ब हमें अपना समझता था, अब कितनों ही अहैतु की अनुकम्पा अपने ऊपर बरसती हैं कितनों के ही अनुग्रह से अपने शरीर, मन आर अन्तःकरण विकसित हुए, खोया क्या-पाया ही। प्रेम के व्यापार में घाटा किसी को भी नहीं रहता फिर हमें ही नुकसान क्यों उठाना पड़ता?

नुकसान एक ही रहा कि यह सोचने में न आया कि स्नेह का तन्तु जितना मधुर है, वियोग की घड़ियों में वह उतना ही तीखा बन जाता है। यदि यह मालूम होता कि आत्मीयता जितनी घनिष्ठ होती है, उतना उसका वियोग असह्य होता है तो कुछ दिन पहले से ही मन को समेटना, स्नेह तंतुओं को शिथिल करना और उदासीन बनने का अभ्यास करते पर प्रकृति को क्या किया जाय। मन तो ऐसा भौंड़ा मिला है, आदतें तो ऐसी विचित्र हैं, जो ज्ञान विज्ञान के सारे बन्धन तोड़कर आगे निकल जाता हैं।

“आत्मा एक है, हम सभी एक सूत्र में माला के दानों का तरह जुड़े हुए है। शरीर से दूर रहने पर आत्मा की एकता बनी रहती है। स्नेह में दूरी बाधक नहीं होती। आत्मीयता शरीर से नहीं आत्मा से होती है-आदि आदि तत्व दर्शन हमने पढ़े तो बहुत हैं, दूसरों को सुनाये भी हैं पर उनका प्रयोग सफलतापूर्वक कर सकना कितनी ऊँची स्थिति पर पहुँचे व्यक्ति के लिए सम्भव है, यह कभी सोचा न था। लगता है अभी अपनी आत्मिक प्रगति नगण्य ही है। यदि ऐसा न होता तो अपने स्वजन स्नेह और उनकी असंख्य उप-कृतियाँ मस्तिष्क में सिनेमा के चित्रपट की तरह उभर उभर कर क्यों आतीं? असीम प्यार पाया पर उसका प्रतिदान क्या दिया? अनेकों के अनेकों अहसान-पदार्थों के न सही भावनाओं के सही-अपने ऊपर लदे पड़े है। उनको कुछ प्रतिदान दिये बिना ही चलना पड़ रहा है

स्नेहीजनों के स्नेह और अनुग्रहियों के अनुग्रहों का कितना ऋण भार लेकर विदा होना पड़ रहा है, यह सोच कर कभी कभी बहुत कष्ट होता है। अच्छा होता जन्म से ही कहीं एकान्त में चले गये होते। लोमड़ी खरगोशों की तरह किसी का अहसान, उपकार, स्नेह और सहकार लिये बिना जिन्दगी के दिन पूरे कर लेते पर यदि लोगों के बीच रहना ही पड़ा और उनका सौजन्य लेना ही पड़ा तो संतोष तब रहता, जब उस प्रेम का प्रतिदान भी कुछ बन पड़ा होता। सोचते तो बहुत रहे, स्वप्न बड़े बड़े देखते रहे, अमुक के लिए यह करेंगे, अमुक को यह देंगे। पर किया जा सका और दिया जा सका, वह इतना कम हैं कि आत्म ग्लानि होती है और लज्जा शिर नीचा हो जाता है।

कदाचित कुछ दिन और ठहरने का अवसर बन जाता तो और कुछ आशा शेष न थी एक इच्छा अवश्य थी कि असीम स्नेह बरसाने वाले स्वजनों के लिये प्रतिदान में जो कुछ अपने भीतर बाहर और कुछ शेष बच रहा है, उसे राई रत्ती देकर जाते और सबके चरणों की धूलि शिर पर रखकर कहते-इस नगण्य से प्राणी से अभी इतना ही बन पड़ा। 84 लाख योनियों में यदि विचरण करना पड़ा तो हर शरीर को लेकर आप लोगों की सेवा में उपलब्ध प्रेम और सहकार का कुछ न कुछ ऋण भार चुकाने के लिए अति श्रद्धा के साथ उपस्थित होते रहेंगे और जिस शरीर से जितनी सेवा, सहायता बन पड़ेगी, जितनी कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त कर सकने की क्षमता रहेगी उसका पूरा पूरा उपयोग आपके समक्ष करते रहेंगे।”

पर अब यह सब कहने से लाभ क्या? समय आ पहुँचा। यों मरना अभी देर में है पर जब परस्पर मिलने जुलने और हँसने खेलने, सुनने और समझने की सुविधा न रही, एक दूसरे से दूर-समीप के आनन्द से वंचित रह कर जीवित भी रहें तो यह आनन्द उल्लास जिसे पाने का आदि यह मन बन चुका है, कहाँ मिल सकेगा? जिस शक्ति के साथ हम बँधे और जुड़े हैं, उसकी अवज्ञा नहीं की जा सकती। इन्कार, उपेक्षा और बहाना करने की बात भी नहीं सोचते। हम अज्ञान ग्रस्त मोह बन्धन में बँधे प्राणी अपना दूरवर्ती हित नहीं, समझते-वह शक्ति समझती है और जिसमें हमारा, हमारे परिवार और हमारे समाज धर्म, एवं विश्व का कल्याण है, उसी को करने जा रहे हैं।

जिनके प्रति हमारी असीम श्रद्धा और अगाध भक्ति है-जिसके संकेतों पर पूरा जीवन निकल गया, अब इस जराजीर्ण शरीर को उससे अलग करने की, अपना रास्ता अलग बनाने की बात कैसे सोची जाय? करना तो वही होगा जो नियति की आज्ञा है और इच्छा है पर अपनी दुर्बलता को क्या करे? जिनके असीम स्नेह जलाशय में स्वच्छन्द मछली की तरह क्रीड़ा कल्लोल करते हुए लम्बा जीवन बिता चुके, अब इस जलाशय से विलग होने की घड़ी भारी तड़पन उत्पन्न करती है। लगता है हम भी शायद ही इस स्थिति से कुछ ऊपर उठ पायें है।

अपना मन कितना ही इधर उधर क्यों न होता हो, यह निश्चित हैं कि हमें ढाई वर्ष बाद निर्धारित तपश्चर्या के लिए जाना होगा और शेष जीवन इस प्रकार बिताना होगा, जिसमें जन संपर्क के लिए स्थान न रहें। यों यह एक प्रकार से मृत्यु जैसी स्थिति है। पर सन्तोष इतना ही हैं कि वस्तुतः ऐसी बात होगी नहीं। हमें अभी कितने ही दिन और जीना है। जन संपर्क के स्थूल आवरण में शक्तियाँ बहुत व्यय होती रहती है। उन्हें बचा लेने पर हमारी सामर्थ्य अधिक बढ़ जायगी। सूक्ष्म शरीर तपसाधना से परिपुष्ट होने पर और भी अधिक समर्थ बन सकेगा। तब आज की अपेक्षा अपने लिये और दूसरों के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकेंगे। यदि ऐसा न होता तो हमारी मार्ग दर्शक शक्ति हमें वर्तमान् उपयोगी कार्य क्रम और सरल जीवन प्रवाह से विरत न करती।

वियोग की घड़ियों में भी संतोष केवल इस बात का है कि दूसरे लोग भले ही शरीर समेत हमसे मिल न सकें पर जिन्हें अभीष्ट है, उनके साथ भावनात्मक सम्बन्ध यथावत बना रहेगा वरन् सच पूछा जाय तो और भी अधिक बढ़ जाएगा अति व्यस्तता और अल्प सामर्थ्य के कारण परिजनों के लिए जो सोच और कर सकना अभी सम्भव नहीं हो पा रहा हैं, वह तब बहुत सरल हो जाएगा शरीर की समीपता ही सान्निध्य का आधार नहीं होती। परदेश में रहने वाले भी अपने स्त्री पुत्रों के लिए बहुत कुछ सोचते करते हैं। वियोग कई बार तो प्रेम को और भी अधिक प्रखर एवं प्रगाढ़ बनाता देखा गया है। ईश्वर भक्ति का आनन्द उसके अदृश्य रहने से सम्भव होता है, यदि वह अपने साथ भाई भतीजे की तरह रहने लगें तो शायद उसकी भी उपेक्षा अवज्ञा होने लगे।

जो हो, हमारा अपना आन्तरिक ढाँचा एक विचित्र स्तर का बन चुका है और उसे आग्रहपूर्वक वैसा ही बनायें रहेंगे। सहृदय, ममता, स्नेह, आत्मीयता की प्रवृत्ति हमारे रोम रोम में कूट कूट कर भरी है। यह इतनी सरल व सुखद है कि किसी भी मूल्य पर इसे छोड़ने की बात तो दूर, घटाना भी सम्भव न हो सकेगा। तृष्णा और वासना से छुटकारा पाने के नाम हम मुक्ति मानते रहे है। सो उसे प्राप्त कर चुके। उच्च आदर्शों के अनुरूप जीवन पद्धति बनाये रहने, दूसरों में केवल अच्छाई देखने और सबमें अपनी ही आत्मा देखकर असीम प्रेम करने की तीन धाराओं का संयुक्त स्वरूप हम स्वर्ग मानते रहे है। सो उसका रसास्वादन चिरकाल से हो रहा है। अब न स्वर्ग जाने की इच्छा है, न मुक्ति पाने की।

ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, बुद्धि सिद्धि के लिए उनके अभाव में जो आकर्षण रहता है, वह भी लगभग समाप्त हो चुका। अपनी कुछ कामना नहीं। भावी तपश्चर्या क प्रयोजन उपरोक्त कारणों में से एक भी नहीं हैं। ऐसा वैराग्य जिसमें स्नेह सौजन्य से-अनन्त आत्मीयता से-वंचित होना पड़े, हमें तनिक भी अभीष्ट नहीं। हमारी ईश्वर भक्ति, पूजा उपासना से आरम्भ होती है और प्राणी मात्र को अपनी ही आत्मा के समान अनुभव करने और अपने ही शरीर के अंग अवयवों की तरह अपने पन की भावना रखते हुए अनन्य श्रद्धा चरितार्थ करने तक व्यापक होती चली जाती है। ऐसी दशा में कहीं दूर चले जाने पर भी हमारे लिये यह संभव न हो सकेगा कि जिनके साथ इसी जीवन में घनिष्ठता रहीं है, जिनका स्नेह, सद्भाव, सहयोग अनुग्रह अपने ऊपर रहा है, उनकी ओर से तनिक भी मुख मोड़ा जाय, उनके प्रति उदासीनता और उपेक्षा अपनाई जाय। कोई कृतघ्न ही ऐसा सोच सकता है।

यों शरीर साधन और श्रम के द्वारा हमारी विभिन्न कार्यों में सहायता करने और वाले भी कम नहीं रहे है पर उनकी संख्या और भी अधिक है, जो भाव भरी आत्मीयता के साथ अपनी श्रद्धा, ममता और सद्भावना हमारे ऊपर उड़ेलते रहे है। सच पूछा जाय जो यही वह शक्ति स्त्रोत रहा है, जिसे पीकर हम इतना कठिन जीवन जी सके है। रोटी ने नहीं-भाव भरी आत्मीयता के अनुदान जहाँ तहाँ से हमें मिल सके है, उन्हीं ने हमारी नस-नाड़ियों में जीवन भरा है और उसी के सहारे हम इस विशाल संघर्ष से भरे जीवन में जीवित रह सकने और कुछ कर सकने लायक कार्य कर सकने में समर्थ रह हैं। इन उपकारों को कोई पाषाण हृदय, अति निष्ठुर और नर पशु ही भुला सकता है। हमें ऐसी कृतघ्नता का अभिशाप मिला नहीं हैं। कृतज्ञता से अपनी नस नस भरी पड़ी है। जिसका एक रत्ती भी उपकार रहा है, वह हमें एक मन लगा है। और सोचा यही गया है कि उसके लिये अनेक गुनी सेवा, सहायता करके अपनी कृतज्ञता का परिचय दिया जाय। बन तो कुछ नहीं पड़ा पर अरमान अभी भी बड़े बड़े हैं। स्वप्न अभी यही है कि ढाई वर्ष बाद कहीं अन्यत्र चले जाने पर यदि कुछ उपलब्धियाँ मिलीं और उन पर अपना अधिकार रहा तो उन्हें अपने ऋण दाताओं से उऋण होने में लगावेंगे।

लोगों की आँखों से हम दूर हो सकते हैं पर हमारी आँखों से कोई दूर न होगा। जिनकी आँखों में हमारे प्रति स्नेह और हृदय में भावनायें है, उन सब की तस्वीरें हम अपने कलेजे में छिपाकर ले जायेंगे और उन देव प्रतिमाओं पर निरन्तर आँसुओं का अर्घ्य चढ़ाया करेंगे। कह नहीं सकते उऋण होने के लिए प्रत्युपकार का कुछ अवसर मिलेगा यही नहीं। पर यदि मिला तो अपनी इस देव प्रतिमाओं को अलंकृत और सुसज्जित करने में कुछ उठा न रखेंगे। लोग हमें भूल सकते है पर हम अपने किसी स्नेही को नहीं भूलेंगे।

पत्थर से बनी निष्ठुर देव प्रतिमाओं के साथ आजीवन एकाँगी प्रेम करने की कला भारतीय अध्यात्म सिखाता रहा है। सो हमने भली भाँति सीख लिया है। पीठ फेरने पर लोग हमें भूल जायेंगे, सो ठीक है, इससे अपना क्या बनता बिगड़ता है। जिसने कोई प्रत्यक्ष अनुदान नहीं दिया उन पाषाण प्रतिमाओं के चरणों में आजीवन मस्तक झुकाते रहे हैं तो क्या उन देवियों और देवताओं की प्रतिमायें हमारी आराध्य नहीं रह सकती, जिनकी ममता हमारे ऊपर समय समय पर बरसी और प्राणों में सजीवता उत्पन्न करती रही।

दिन कम बचे हैं, पूरे एक हजार भी तो नहीं बचे। रोज एक घट जाता है। इन दिनों में क्या करें, क्या न करें सोचते रहते हैं। इस सोचे विचार में एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि अपने छोटे परिवार को इस बीच भरपूर प्यार कर लें। कोई माता विवशता में कहीं अकेली जाती है तो चलते समय अपने बच्चों को बार बार दुलार करती, बार बार चूमती, लौट लौट कर देखती और ममता से भरी गीली आँखें आँचल से पोछती आगे बढ़ती है। ऐसा ही कुछ उपक्रम अपना भी बन रहा है। सोचते हैं जिन्हें अधूरा प्यार किया अब उन्हें भरपूर प्यार कर लें। जिन्हें छाती से नहीं लगाया, जिन्हें गोदी में नहीं खिलाया, जिन्हें पुचकारा दुलारा नहीं, उस कमी को अब पूरी कर लें। किसी को कुछ अनुदान, आशीर्वाद देना अपने हाथ में न हो तो दुलार देना तो अपने हाथ में है। प्रत्युपकार के लिए आतुर और कातर अपनी आत्मा इस तरह कुछ तो हल्कापन अनुभव करेगी और शायद उससे स्नेह पात्र स्वजनों को भी कुछ तो उत्साह उल्लास मिल ही सके।

एक सुखान्त कहानी का दुखान्त अन्त हमें अभीष्ट नहीं। हमारा समस्त जीवन क्रम आरम्भ से ही सुखान्त बना है। आदर्शों की कल्पना उनके प्रति अनन्य निष्ठा और तदनुकूल कार्य पद्धति में निर्धारण और निर्धारित पथ पर कदम कदम बढ़ते चलने का अविचल धैर्य एवं साहस, यही तो हमारी जीवन पद्धति है। इस पथ पर चलते हुए दूसरों की दृष्टि में हमें बहुत कष्ट कहने और बहुत त्याग करने पड़े है और अब अन्त भी ऐसे ही रोते रुलाते हो रहा है। इसलिये देखने वालों की समझ से यह गाथा दुःखान्त मानी जाने लगी है पर अपनी दृष्टि अलग है। आदर्शों की कल्पनायें मन में एक सिहरन और पुलकन उत्पन्न करती है। आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर दूसरों के विरोध उपहास की चिन्ता न करते हुए, अभाव कष्टों से भरी जिन्दगी काटने में एक शूरवीर योद्धा जैसी अनुभूति होती है। निरन्तर उत्कृष्टता की गतिविधियों से भरा पूरा जीवन बाह्य दृष्टि से दयनीय ही क्यों न लगे पर अन्तर में अपार सन्तोष रहता है।

अब तक इन्हीं अनुभूतियों के साथ सुखपूर्वक हँसते खेलते दिन काटते आयें है आये है और मानते रहे है कि हम संसार के गिने चुने लोगों की तरह सुखी है। अब अंत की विषम घड़ियाँ यों एक बारगी कलेजे को कपड़ा निचोड़ने की तरह ऐंठती है और अनायास ही रुलाई से कण्ठ भर देती है, फिर भी इसके पीछे कोई विवशता नहीं है। महान् उद्देश्य के लिये-लोक मंगल के लिए-नव निर्माण के लिए तिल तिल करके अपने को गला देने में हमें असीम सन्तोष, अपार आनन्द और उच्चकोटि का गर्व है। इस प्रकार यह एक उल्लास भरी आकर्षक कथा गाथा का सुखान्त अन्त ही है। इसे दुःखान्त न माना जाय।

पुरुष की तरह हमारी आकृति ही बनाई है, कोई चमड़ी उघाड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय लगा मिलेगा, जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरन्तर गलते रहकर गंगा यमुना बहाता रहता है। इस दुर्बलता को मोह, ममता कहा तो जा सकता हैं पर निश्चय ही यह भीरुता या विवशता नहीं हैं। सहेलियों से बिछुड़ते हुए और पति के घर जाते हुए, जिस तरह किसी नव वधू की द्विधा मनः स्थिति होती है, लगभग वैसी ही अपनी ही और रुंधा कण्ठ एवं भावनाओं के उफान से उफनता अन्तः करण लगभग उसी स्तर का है। रात को बिना कहे चुपचाप पत्थर की तरह चल खड़े होने का साहस अपने में नहीं, इस स्तर का वैराग्य अपने को मिला नहीं। इसे सौभाग्य, दुर्भाग्य जो भी कहा जाय कहना चाहिये।

अपनी सभी सहेलियों से एक बार छाती से छाती जुड़ाकर मिल लेने और अपने अब तक के साथ साथ हँस खेल कर बड़े होने की स्मृतियों की ताजा कर फफक फफक कर रो लेने में लोक उपहास भले ही होता है पर अपना चित्त हल्का हो जाएगा, सो ही हम से बन पड़ रहा है। मनुष्य आखिर दुर्बलताओं से ही तो भरा है। अपने को हम एक नगण्य सा अति दुर्बल मानव प्राणी मात्र मानते रहे है। सो इन परिस्थितियाँ में हमारी दुर्बलतायें और भी अधिक स्पष्टतापूर्वक प्रकट हो रही है तो अच्छा ही ड़ड़ड़ड़। सन्त, ज्ञानी, वैरागी, ब्रह्मवेत्ता के लिए इस प्रकार ड़ड़ड़ड़ विरह वेदना अशोभनीय हो सकती है, पर हम उस ड़ड़़ड़ड़ के हैं कहाँ? हमारी तुच्छता को समझा जाय और दुर्बल की विवशता को सहानुभूति भरी उदारता से देखा जाय तो हमारे लिये इतना ही बहुत है।

हमारा इतना जीवन परिवार की वृद्धि और विकास में लग गया। छोटे छोटे बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाने से लेकर उनकी शिक्षा दीक्षा और सुव्यवस्थित जीवन श्रृंखला में पहुँचाने तक का जितना परिश्रम एक सद् गृहस्थ को करना पड़ता है, उसी परिश्रम और भावना के साथ बड़े यत्नपूर्वक हम इस परिवार के विकास में लगे रहे है। पाल पोस कर बड़े किया हुये प्रिय परिजनों को यों छोड़कर चलना पड़ेगा। इसकी कभी कल्पना भी न की थी। यदि ऐसा पहले मालूम होता तो अपने बच्चों की समझाने बुझाने में जो सख्ती बरतनी पड़ी उसे पहले से ही कम करते और बदले में उन्हीं अधिक स्नेह और प्यार देते चले आये होते, अब तो विदा के क्षण समीप देखकर केवल रुलाई ही आती है कि अपने इस प्रिय परिवार को छोड़कर कैसे जायें?

मन है कि अपने छोटे परिवार को अब जितना अधिक स्नेह, सद्भाव दे सकना सम्भव हो सके दे लें। हँसने खेलने-अपनी कहने, दूसरे की सुनने, सहानुभूति और सेवा के अधिकाधिक अवसर खोज निकालने में शेष दो वर्षों को निकाल दें। इसी तरह यह थोड़ी सी अनमोल घड़ियाँ बीत सकें तो अच्छा है। महान् मानवता की सेवा करने के लिए तो दो वर्ष बाद का सारा बचा खुचा ही जीवन पड़ा है। यह दिन तो अपने छोटे परिवार के लिए व्यय करने का मन है।

प्यार, प्यार, प्यार यही हमारा मन्त्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह और श्रद्धा यही हमारी उपासना है। सो बाकी दिनों अब अपनों में अपनी बातें ही नहीं कहेंगे-अपनी सारी ममता भी उन पर उड़ेलते रहेंगे। शायद इससे परिजन को भी यत्किंचित् सुखद अनुभूति मिलें प्रतिफल और प्रतिदान की आशा किये बिना हमारा भावना प्रवाह तो अविरल जारी ही रहेगा। परिजनों से परिपूर्ण स्नेह-यही इन पिछले दिनों का हमारा उपहार है, जिसे कोई भुला सके तो भुला दे। हम तो जब तक मस्तिष्क में स्मृति और हृदय में भावना का स्पंदन विद्यमान् है आजीवन उसे याद ही रखेंगे।


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