चेतन स्वरूप आत्मा ही सर्वभूत प्राणियों में विद्यमान है। अपने-अपने कर्मानुसार जीव विभिन्न शरीरों में प्रगट होता है, किन्तु जीव-मात्र की आत्मिक स्थिति एक जैसी है इसके लिये कभी किसी जीव को न मारना चाहिये, न सताना चाहिये। उनसे आत्म-विकास की शिक्षा लेनी चाहिये।
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ पाये जाते हैं-जड़ और चेतन। वृक्ष, वनस्पति, पौधों, गुल्म-लताओं तक में चैतन्य के चिह्न प्रकट हो रहे हैं। किन्तु तमोगुण की अधिकता के कारण वे सब अविकसित प्राणी हैं, कीट-पतंग वृक्षों की अपेक्षा थोड़ा अधिक विकसित हैं, पशु-पक्षियों का स्वाभाविक ज्ञान कीट-पतंगों से भी अधिक विकसित पाया जाता है। कई बार तो पशु-पक्षियों की विशेषतायें मनुष्य की बुद्धि ओर उसके चातुर्य को शर्मिन्दा करने लगाते हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथून तक में ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान धर्म,, बुद्धि-विवेक में भी वे मनुष्य से बड़े-बड़े जाये जाते हैं। यद्यपि उनमें आत्म कल्याण के लिये साधनायें करने वाला नैमित्तिक ज्ञान नहीं होता। वह लाभ केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। पर यदि सामान्य जीवों की गतिविधियों का देखकर हम यह मान लें, कि आत्म-चेतनता कर्मानुसार अन्य योनियों में भी जाती हैं ओर यदि मनुष्य में धार्मिकता, सच्चाई, ईमानदारी उत्कृष्टता आदि नहीं है तो उसकी स्थिति पशुओं से भी निम्नतर हैं, तो अवश्य ही आत्मा को पहचानने और जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने का भाव जागृत हो सकता है।
यहाँ कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिन से जीव-मात्र में आत्मा के गुणों की अवस्थिति देखी जा सकती है। 12 जून 1955 के नव-भारत टाइम्स में छपी एक मछली का विचित्र वर्णन दे रहे हैं-
“न्यूजीलैण्ड द्वीप के पास कुक जलडमरूमध्य में कोई 5 मील ऐसा समुद्र हैं, जिसमें बड़ी बड़ी मूँगों और पत्थरों वाली टेढ़ी-मेढ़ी चट्टानें हैं। यहीं डालफिन जाति की एक दस फुट लम्बी और तीन फूट चौड़ी मछली रहती। वह मछली इस खतरनाक स्थान में नाविकों को सही रास्ता बताती थीं, जिससे वे दुर्घटनाओं से बच जाते थे। जहाजी इसी कारण प्यार से उसे ‘पेलोरस जैक’ कहा करते थे।”
“जब तक खतरा रहता मछली आगे-आगे चलती और जहाज पीछे-पीछे जैसे ही साफ समुद्र आ जाता वह एक बार ऊपर उछलती और गोता लगाकर भाग जाती। नाविक समझ जाते थे, अब कोई खतरा नहीं है। एक बार एक जहाज के किसी अजनबी व्यक्ति ने उस विलक्षण मछली पर गोली दाग दी। गोली लगते ही मछली डुबकी लगाकर भाग गई और कई वर्ष तक नहीं दिखाई दी। इस बीच कई जहाज वहाँ दुर्घटना ग्रस्त हो गये।”
“कुछ दिन तक विश्राम करने के पश्चात् मछली का घाव ठीक हो गया। इसी बीच न्यूजीलैण्ड सरकार ने निषेधता अधिकारी होगा। इसके कुछ दिन बाद ही वह मछली फिर दिखाई देने लगी। उसने मनुष्य की कृतघ्नता का बिलकुल ध्यान न दिया और फिर से परोपकार के व्रत का पालन करने लगी। आश्चर्य यह है कि जैसे ही वह रोटूरा नामक उक्त जहाज को देखती वैसे ही डुबकी लगा कर भाग जाती। जब इस मछली की मृत्यु हुई तो उसकी असाधारण सेवा के लिये न्यूजीलैण्ड वासियों ने उसका एक भव्य स्मारक बनाया। उसकी एक प्रतिमूर्ति प्रतिष्ठित की गई जो अब भी विद्यमान है।”
कैप्टन पी. जे. प्रसाद का लद्दाख सीमान्त का एक वर्णन भी नव-भारत टाइम्स में छपा है, उसमें बताया गया है कि दो-तीन दिन तक सीमा रक्षकों की बर्फीले तूफान से कुछ जवानों की रक्षा ‘याकों’ ने की। जैसे ही तेज अंधड़ आता-बताते हैं, याक पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो जाते और गश्ती-दल उनकी ओट में छुप जाता इस तरह भयंकर बर्फीले तूफान से बचकर गश्ती-दल अपने खेमे तक पहुँच जाता।
आक्रमण और मृत्यु के भय से जिस तरह मनुष्य कई बार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है, वैसी ही घबराहट कई जीवों और पक्षियों को भी होती हैं, उससे पता चलता है कि वे भी जीवन और मृत्यु की श्रृंखला में जुड़े होते हैं और मोह, आसक्ति अज्ञान के कारण उन्हें भी मृत्यु से ठीक उसी तरह डर लगता है, जिस तरह मनुष्य को।
अरब, सीरिया, मेसोपोटामिया और अफ्रीका आदि में शुतुरमुर्ग नाम का एक सात आठ फुट लम्बा पक्षी पाया जाता है। शुतुरमुर्ग की मूर्खता प्रसिद्ध है। कोई खतरा दिखाई देने पर वह अपना सिर बालू में छिपा लेता है और समझ लेता है कि खतरा दूर हो गया। उसका गुस्सा भी उतना ही प्रबल होता है, गुस्से में वह भयंकर आक्रमण करता है। कहते है उसकी चोंच का प्रहार इतना तीक्ष्ण होता है कि लोहे की चादर में भी छेद हो सकता है।
शुतुरमुर्ग में सहकारिता का भी विलक्षण भाव पाया जाता है। पक्षी होने पर भी वह जेबरा और हिरनों के साथ रहता है।
कुछ समय पूर्व सारस पक्षियों के सम्बन्ध में कहा जाता कि सर्दियों में वह उड़कर देशान्तर को चला जाता है। यात्रा के समय वह कई छोटे छोटे पक्षियों को भी अपनी पीठ पर बैठा कर उड़ जाता है। प्रवासी पक्षियों के सम्बन्ध में बड़ौदा के गायकवाड़ विश्वविद्यालय के प्राणि शास्त्र विभाग में खोजबीन करने वाले प्राणिविद् प्रो. जे.सी. जार्ज ने इस विश्वास का उल्लेख किया है। यह न भी हो तो भी सारस का दाम्पत्य प्रेम विलक्षण माना गया है। नर या मादा को मारकर कोई उसे तब तक नहीं ले जा सकता, जब तक उसी तरह साथी को भी न मार दिया जाये।
अनेक भक्त और परोपकारी जीवों की घटनायें “मनुष्य क्या पशु पक्षियों से भी गिरा रहेगा” नामक ट्रैक्ट में छपी है, वह इस विश्वास को पुष्ट करती है कि आत्मा चेतनता के अनेक लक्षण मानवीय चेतना के समान ही अन्य जीव जन्तुओं में भी पाये जाते है।
पंजाब में करनाल जिले के थानेश्वर नामक स्थान के पास कुछ तालाब है। वहाँ सारसों के अनेक जोड़े निवास करते है। एक बार एक सारसी पर एक गीदड़ ने आक्रमण कर दिया। सारसी के पैर में जख्म हो गया, जिससे वह पीछे हट गई पर अब गीदड़ ने उसके छोटे बच्चे पर हमला कर दिया। इस बार सारसी की ममता ने प्रचण्ड रूप धारण किया। घायल होते हुए भी उसने साहस और बुद्धि से काम लिया। उसने चोंच से गीदड़ की आँखों में तीखे प्रहार किये जिससे भयभीत होकर गीदड़ भाग गया। उधर मादा की आवाज सुनकर नर सारस भी आ पहुँचा उसने भी गीदड़ पर हमला कर दिया, जिससे गीदड़ को भागते ही बना।
साहसी ही नहीं मनुष्येत्तर जीवों में दया और करुणा भी कम नहीं होती। बुन्देलखण्ड की एक घटना है, एक गाँव का कोई 5 वर्ष का बालक खेलते खेलते गाँव के किनारे पर पहुँच गया। वहाँ से खेत प्रारम्भ होते थे। उधर से एक विषधर सर्प दौड़ा आ रहा था, सर्प उत्तेजित था इसलिये उसने उस बच्चे को ही घेर लिया। यह दृश्य वृक्ष की शाखा पर बैठा एक बन्दर देख रहा था। उसे बच्चे पर दया हो आई, वह चटपट नीचे उतरा और पीछे से जाकर सर्प को एक तमाचा जड़ा। साँप ने बच्चे को छोड़ दिया और बन्दर पर झपट पड़ा। बन्दर ने साहस और बुद्धि से काम लिया। वह वार भी करता था और प्रतिघात से भी बचता था। यह द्वंद्व युद्ध एक घण्टे चला और अन्त में विजय बन्दर की ही रही, उसने साँप को कूँच कूँच कर जानसे मार डाला।
गाय बहुत सीधा जानवर है, गायें बहुत कम लड़ती भिड़ती है पर अपने बच्चे, कुनबे और साथियों के प्रति उसमें सामूहिकता और सहकारिता का कितना अच्छा भाव होता है, उसकी एक विचित्र घटना ओरछा में घटित हुई। उसे सुनकर मनुष्य की शक्ति और ज्ञान का दंभ मिथ्या प्रतीत होने लगता है। मनुष्य जो करता है, उसमें अपना स्वार्थ प्रधान रहता है पर गायों ने सबके स्वार्थ में अपना स्वार्थ प्रधान रहता है पर गायों ने सबके स्वार्थ में अपना स्वार्थ सन्निहित सिद्ध कर दिखाया।
बातें यो हुई कि एक दिन गायों का एक झुण्ड जंगल में चर रहा था। चरवाहे उन्हें जंगल में छोड़कर घर लौट जाते है। अब गायें आई ही थी कि अचानक एक बाघ ने आक्रमण कर दिया। पहले तो गाय भागी पर जैसे ही उन्होंने देखा कि भागने पर भी किसी न किसी की मृत्यु अवश्यम्भावी है तो सब गायें रुक गई। उन्होंने मिलकर एक घेरा बनाया। छोटे-छोटे बछड़ों की बीच में खड़ा कर आक्रमण की राह देखने लगी। बाघ पहले तो सकपकाया पर उसने गायों को भोला समझ कर फिर आक्रमण कर दिया पर इस बार का आक्रमण महँगा पड़ा। 15-20 गायें सींगों से बाघ पर टूट पड़ी। बाघ का शरीर क्षत विक्षत हो गया और उसे भागते ही बन पड़ा।
मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिए जिस प्रकार अनेक ऐसे यंत्रों का निर्माण किया है, जिससे वह वर्षा, भूकम्प, युद्ध आदि की पूर्व जानकारी प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार प्रकृति ने प्राणियों की रक्षा के लिए भी उन्हें अद्भुत ज्ञान और चेतना दी है। चमगादड़ में इस तरह के ज्ञान की विचित्र क्षमता पाई जाती है। एक बार स्पेलन जानी नामक एक इटालियन ने चमगादड़ की उड़ान का परीक्षण किया। उसने एक कमरे की छत से बहुत से धागे लटकाये और उनमें घंटियाँ बांध दी कि जिससे धागों से टकराने पर वे घंटियाँ बजे। उसके बाद उसमें बाद उसमें एक चमगादड़ को दौड़ाया। चमगादड़ बड़ी देर तक बन्द कमरे में दौड़ता रहा पर एक भी घंटी न बजी। चमगादड़ की दृष्टि बहुत कमजोर होती है, उसने किस तरह अपने आपको उन धागों से बचाया यह बड़ा आश्चर्य है। कहते है, चमगादड़ प्रति सेकेंड 30 बार ध्वनि तरंगें भेजता है और जितने समय में उसे उनकी प्रतिध्वनि आती है, वह सामने वाली बाधाओं का पता लगा लेता है और उनसे बचकर निकल जाता है।
यह चमत्कार वस्तुतः जीवों के नहीं आत्म-चेतना के चमत्कार है। जीवात्मा की गतिविधियाँ विस्तीर्ण न होकर किसी एक दिशा में संकीर्ण होती रहती है और वह उस प्रकार की योनि में चला जाता है। हमारे धर्म शास्त्रों में चौरासी लाख योनियाँ है और प्राणी उन चौरासी लाख योनियों में भटक चुकने के बाद मनुष्य शरीर में आता है। इस तरह उसमें उन जीवों की विशेषतायें भी हो सकती है, संस्कार भी। कुछ विशेषतायें मन्द होती है, कुछ विशेषतायें मन्द होती है, कुछ तीव्र कुछ संस्कार भी दबे रहते है, कुछ प्रखर होती है जो मनुष्य अपनी बुद्धि विवेक से बुरे संस्कारों को काट डालता है, उसमें मनुष्येत्तर प्राणियों की तरह अनेक प्राकृतिक चमत्कारों, शक्तियों, योग्यताओं और सामर्थ्यों का विकास होने लगता है।
जीवन अखण्ड है। इसी को आत्मा की अमरता कहते है। मृत्यु से जीवन खंडित नहीं होता पर यह तर्क और बुद्धि का विषय नहीं श्रद्धा और आत्म चिन्तन का विषय है। हमें उस अखंडित जीवन की कल्पना करते समय मनुष्येत्तर प्राणियों की गतिविधियों को भी देखना पड़ेगा। हमें यह अनुभव करना पड़ेगा कि जीवन जन्तु पशु पक्षी भी आत्म विकास और अखण्ड जीवन के खण्ड है। मनुष्य की विशेषता उसका ज्ञान और जीवन के प्रति श्रद्धा है। यह श्रद्धा और ज्ञान प्राणिमात्र के हित में रहना चाहिये। इसी से जीवन लक्ष्य की सिद्धि हो सकती है। पशुओं जैसे अधार्मिक कृत्य करने से तो वह पशु योनि में ह जा सकता है। उसे ज्ञान के, धार्मिकता के सहारे ऊपर उठना चाहिये और परम लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिये।