भूगोल बदल रहा है तो इतिहास भी बदलेगा

November 1968

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सिडनी विश्व-विद्यालय के प्रोफेसर श्री एस. टी. बटलर ने जुलाई 67 में घोषणा की थी कि इकारस नाम का क्षुद्र ग्रह पृथ्वी की ओर बढ़ रहा है। जून 1968 में उसके पृथ्वी से टकरा जान की सम्भावना थी। अनुमान था कि यदि इकारस किसी ध्रुव प्रदेश से टकरा गया तो सारी पृथ्वी में बर्फीले तूफान आ जायेंगे। समुद्र उफन उठेगा। विनाश लीला खड़ी हो जायेगी। लाखों लोग अकाल मृत्यु के गाल में चले जायेंगे।

समुद्र तल से टकराने में जल प्रलय और किसी विषुवत रेखीय प्रान्त से टकराने पर पृथ्वी फट तक सकती थी। सौभाग्य से इकारस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया। पृथ्वी-वासी एक भयंकर प्रलय से बच गये। इसे परमात्मा का अनुग्रह ही समझना चाहिये।

इस घटना के तुरन्त बाद ही घोषणा की गई कि इकारस पृथ्वी के समीप से गुजर गया है, अभी उसका अंत नहीं हो गया। अभी सौर मंडल में ऐसे कई क्षुद्र ग्रह चक्कर काट रहे हैं, इनमें से कोई भी ग्रह किसी भी समय धरती से टकरा कर यहाँ विचित्र हलचल उत्पन्न कर सकता है।

ऐसे प्राकृतिक परिवर्तन सृष्टि के आरम्भ काल से होते आये हैं। जब जब ऐसे विस्फोट हुये हैं और पृथ्वी के धरातल में हलचल हुई है, तब-तब मानव जाति का इतिहास करवट बदलता रहा है। जब तक प्राकृतिक प्रकोपों से लोग बचते रहते हैं, तब तक लौकिक बुद्धि स्वार्थ, अहंकार, तृष्णा, वासना की वृद्धि होती रहती है पर जब प्रकृति के झटके लगते हैं, मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, दैविक दण्ड भुगतना पड़ता है, तब-तब उसकी बुद्धि सही दिशा में न्याय, ईमानदारी, नैतिकता से काम करने को विवश होती रही है। अब जब मनुष्य की स्वेच्छाचारिता, अनैतिकता, अपराध वृत्ति, पाप आदि बहुत अधिक बढ़ गये हैं तो कोई आश्चर्य नहीं यदि प्रकृति उसे अपनी मार-काट, प्रलय-तूफान द्वारा मनुष्य को पीट-पीटकर ठीक करें। यदि मनुष्य पहले ही अपनी गतिविधियाँ दुरुस्त करले तो संभव है प्रकृति अपना कोप कुछ कम कर दे और हल्के झटके से छुटकारा मिल जाये।

धरती का भाग्य उत्तर लोक और ग्रहों से कितना सम्बद्ध है, इस सम्बन्ध में अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी भारतीय दावों की पुष्टि करने लगे हैं। आस्ट्रिया के वैज्ञानिकों ने डा. हैरल्ड स्वाइत्जर के नेतृत्व में यह पता लगाया है कि सूर्य-ग्रहण का मनुष्य मस्तिष्क पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, उनका कहना है कि पूर्ण सूर्य-ग्रहण के अवसर पर कीट पतंगे तक अपना विवेक खो बैठते हैं और वैसा ही आचरण करने लगते हैं, जैसे आदिम जाति के अन्ध विश्वासी लोग। सूर्य-ग्रहण के समय देखा गया कि चींटियों ने आधा घंटे पहले ही भोजन की तलाश बन्द कर दी और इधर-उधर निरुद्देश्य धूमती रहीं।

दिन में बाहर न निकलने वाले सैकड़ों वुड लाइस, मिली पीडस और बीटल्स नामक कीट पतंगे बाहर निकल आये। चिड़ियों को दिशा ज्ञान नहीं रहा। गौरैया, नीलकण्ठ और ऐसी ही कुछ चिड़ियाओं को छोड़कर शेष ने चहकना भी बन्द कर दिया। इससे साबित होता है कि प्रकृति के हर परिवर्तन की धरती निवासी प्राणधारियों पर प्रतिक्रिया होती है और उस प्रभाव से मनुष्य भी बच नहीं सकता।

ग्रह स्थिति को उपासना और सात्विक जीवन-क्रम अपनाकर अनुकूल और लाभदायक भी बनाया जा सकता है, इसका प्रमाण अमेरिकी वैज्ञानिक दे रहे हैं। सूर्य मंडल में हो रहे परिवर्तनों की वहाँ तेजी से जाँच हो रही है, देखा गया है कि सूर्य में कुछ किरणें विखण्डित हो रही हैं, उनसे तेज चमक उठती है। उसका प्रभाव अगले वर्षों में पृथ्वी पर उड़ने वाले जहाजों पर पड़ेगा। सन् 1969-70 में सर्वाधिक हवाई दुर्घटनायें होने की संभावना है। आश्चर्यजनक खोज यह है कि सूर्य से एक प्रकार की प्रकाश पूर्ण आँधी पृथ्वी की ओर वेग स चल पड़ी है। अमरीकी वैज्ञानिकों का कहना है कि इस आंधी की दिशा एशिया के किसी देश- सम्भवतः ठीक भारतवर्ष की ओर चल रही है। जब वह पूरी तरह भारतवर्ष से सम्बन्ध स्थापित कर लेगी तो यहाँ तीव्र परिवर्तन होंगे।

इस समाचार पर भारतीय भूगोल विज्ञान वेत्ताओं की टिप्पणी सुनने और समझने योग्य है। उनका विश्वास है कि- ‘‘भारतवर्ष में गायत्री उपासना की वृद्धि हो रही है। गायत्री मन्त्र और उपासना का सीधा सम्बन्ध सूर्य से है। सविता को गायत्री का देवता (फल देने वाला) कहा गया है। आगे लाखों, करोड़ों की संख्या में उपासक बढ़ेंगे तब सूर्य मंडल का और भी तीव्र मंथन होगा और उसकी भारतवर्ष में तीव्र प्रतिक्रिया परिलक्षित होगी। आसुरी स्वभाव वालों के लिये यह प्रतिक्रिया प्रतिकूल बैठेगी, अर्थात् उन्हें रोग-शोक, सामाजिक अपमान और राजदण्ड का भागी बनना पड़ेगा पर शुद्ध और पवित्र आचरण वाले व्यक्ति उससे लाभान्वित होंगे। उन्हें सुख सम्पत्ति धनधान्य की कोई कमी नहीं रहेगी। जलवायु, समुद्र, आकाश पृथ्वी सब यहाँ के लिए शुभ, लाभदायक होंगे।’’

हमारी मान्यतायें इससे भी अधिक हैं, अर्थात् तब यहाँ अनेक तेजस्वी आत्मायें जन्म लेंगी, वह कृषि-विज्ञान, साइन्स, राजनीति, अर्थनीति, वाणिज्य, कला-संस्कृति के क्षेत्र में सम्पूर्ण विश्व का मार्ग-दर्शन और नेतृत्व करेंगी।

यह परिवर्तन अपने अनादि क्रम में चल रहे हैं अर्थात् यदि कोई इन परिवर्तनों को स्वीकार करने की इच्छा न भी करे तो भी यह परिवर्तन बलात् होंगे, क्योंकि वह किसी आद्य शक्ति के सनातन नियम हैं। फिर अतीतकाल में आज की अपेक्षा पृथ्वी कहीं अधिक वेग से घूमती थी। अनुमान है कि तब दिन और रात का चक्र 10 घंटे में ही पूरा हो जाता। पृथ्वी की आयु लगभग 4 अरब वर्ष हो चुकी है, इतनी अवधि में 14 घंटे का अन्तर पड़ गया है। इसका कारण सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षण के कारण समुद्र-तल में उठने वाला ज्वार-भाटा है। जब यह समुद्रीय ज्वार-भाटे महाद्वीपों के तट से टकराते हैं, तब घर्षक अवरोध उत्पन्न होता है। इस घर्षण से पृथ्वी के घूमने से उत्पन्न हो रही शक्ति का कुछ अंश गरमी में बदल जाता है। गर्मी कम होती है तो हर वस्तु में आलस्य और शिथिलता आती है। पृथ्वी के वेग में इसी कारण निरंतर ह्रास होता चल रहा है।

अब इस परिवर्तन का आसुरी और शुद्ध आचरण वाले व्यक्तियों पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा, यह भी समझा जा सकता है। पृथ्वी के इस आलस्य का प्रभाव उन पर पड़ेगा, जो उसकी ‘तन्मात्रा’ के समीप अर्थात् पार्थिव सुखों का अधिक ध्यान करने वाले होंगे। जिन्हें केवल अपने सुख, स्वाद, इन्द्रिय लिप्सा का ही ध्यान रहता है, वह इस कोटि में आते हैं पर जिन पर आकाश तत्व अर्थात् सबके कल्याण में चिन्तन का भाव, त्याग और उदारता, संयम और आस्तिकता का भाव होगा, वह ऊर्ध्व लोकों की हलचलों से प्रकाश और गर्मी पाते रहेंगे, इसलिये इनकी उन्नति सम्भव होगी और पहली प्रकार के व्यक्तियों की अवनति। इस सिद्धान्त के अन्वेषक श्री ई. आर. आर. होल्मवर्ग का भी ऐसा विश्वास है कि भविष्य में दिन रात के घन्टों की संख्या 24 से बढ़ जायेगी हमारी घड़ियों का मान छोटा हो जायेगा, तब मनुष्य समाज पर कई तरह के परिवर्तन परिलक्षित होंगे।

यह परिवर्तन ऐसे हैं जिनका सम्बन्ध पृथ्वी और सौर मंडल के अन्य शक्तिशाली ग्रहों के परिवर्तनों से है। हमारी धरती में ही अनेक तीव्र परिवर्तन हो रहे हैं। इन भौगोलिक परिवर्तनों का मानवीय सभ्यता के इतिहास में जबर्दस्त परिवर्तन होने वाला है, उसका अनुमान हम लोग नहीं लगा पा रहे।

सन् 1966 में मास्को में द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय सागर वैज्ञानिकों का सम्मेलन बुलाया गया, उसमें प्रायः सभी देशों के वैज्ञानिकों ने समुद्र से सम्बन्ध रखने वाली भविष्यवाणियाँ और अनुसन्धान प्रस्तुत किये। इसी सम्मेलन में लेमंट भूगर्भ अनुसन्धान-शाला के प्रोफेसर डा. ब्रूस सी. हीजेन व डा. नील उपडाइक ने एक रोमांचकारी घोषणा प्रसारित की। उन्होंने कहा- आज से लगभग 2032 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बलक्षेत्र अपना स्थान बदल देंगे। इस अवधि में उसकी चुम्बकीय शक्ति नष्ट हो जायेगी और तब मनुष्य की आकृति अब के मनुष्यों की आकृति से बिलकुल भिन्न हो जायेगी। लोगों की लम्बाई अब की अपेक्षा ड्योढ़ी कम या ज्यादा भी हो सकती है। आज से 4000 वर्ष पूर्व मनुष्य की स्थिति के बारे में उन्होंने भारतीय मान्यताओं की पुष्टि की और बताया कि उस समय का पृथ्वी में रहने वाला मनुष्य आज के मानव से बिलकुल भिन्न रहा होगा।

मनुष्य ही नहीं डा. हीजेन और डा. नील उपडाइक ने यह भी बताया कि पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति के ह्रास का वृक्ष-वनस्पति, कीट-पतंगों पर भी प्रभाव पड़ेगा। इनमें भी असाधारण परिवर्तन होंगे। कई जीव-जन्तु मनुष्य की भाषा बोल सकेंगे। कुछ वृक्षों का चौड़ाव बढ़ जायेगा और किन्हीं किन्हीं में कई कई महीनों तक न चुकने वाली फलों की खाद्य सामग्री मिला करेगी। अपने प्रमाण की पुष्टि में उन्होंने प्रशाँत महासागर की तलहटी छेदकर निकाली मिट्टी के कई प्रयोग और रेडियो लारिया नामक एक कोश वाले जन्तु पर हो रहे परिवर्तन दिखाये।

वैज्ञानिकों ने यह भी बताया कि सन् 4000 तक चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन के कारण पृथ्वी के ध्रुव अपना स्थान बदल देंगे। लगभग 200 वर्ष का समय ऐसा आयेगा जब पृथ्वी का कोई चुम्बकीय क्षेत्र न रह जायेगा। यह काल खण्ड प्रलय जैसा ही होगा। अर्थात् उस समय बहुत गर्म स्थान बिलकुल ठंडे पड़ जायेंगे। ठंडे स्थानों में बर्फीले तूफान आयेंगे, वहाँ की बर्फ गलकर समाप्त हो जायेगी और वे स्थान बिलकुल खुश्क पड़ जायेंगे। इस अवधि में सौर ग्रहों से पृथ्वी पर होने वाला विकिरण बहुत अधिक ऊर्जावान (गर्मी लिये हुये) होगा। कहीं-कहीं तो अंगारों की वृष्टि के से दृश्य उपस्थित होंगे।

इन परिवर्तनों से बचने के लिये वैज्ञानिकों ने अपनी-अपनी तरह के सुझाव दिये हैं। कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि आगे लोगों को गुफायें खोदकर उनके अन्दर रहना प्रारम्भ कर देना चाहिये।

चुम्बकीय क्षेत्र के अभाव की तरह मानवीय जीवन में संकट पैदा करने वाला दूसरा अभाव पानी का है। अभी ही मीठे पानी का बड़ा अभाव है। संसार में जितना जल है, उसका 97 प्रतिशत भाग समुद्र में है, वह तो पीने योग्य है और न कृषि या उद्योगों के योग्य। 2 प्रतिशत जल बर्फ के रूप में जमा रहता है। 1 प्रतिशत से खेती, जंगल, उद्योगों और पीने का काम चलता है। उसमें काफी पानी बेकार चला जाता है। पृथ्वी में पीने का जितना पानी बचता है, उसका सातवाँ भाग केवल आमेजन नदी ही समुद्र में फेंक आती है। औद्योगिक नगरों में 40 प्रतिशत नागरिकों को ही स्वच्छ जल पर्याप्त मात्रा में मिलता है, शेष को बहुत ही अपर्याप्त मात्रा में मिलता है क्योंकि अच्छे पानी की भारी मात्रा औद्योगिक प्रतिष्ठानों में झोंक दी जाती है।

अनुमान करें कि एक लीटर पैट्रोल बनाने के लिये 10 लीटर मीठा पानी फूंकना पड़ता है। 1 किलो सब्जी पर 40 लीटर पानी, 1 किलो कागज के लिये 100 लीटर पानी, 1 टन सीमेंट के लिए 3500 लीटर पानी और 1 टन इस्पात तब बनता है, जब 2000 लीटर पानी जला किया जाता है। मनुष्यों का अप्राकृतिक जीवन के प्रति बढ़ता हुआ अनुराग उद्योगों को और भी बढ़ावा देगा, जिससे जल संकट भीषण रूप से सामने आयेगा। रेगिस्तान बढ़ेंगे तो मनुष्यों में उत्पात होंगे, परस्पर लड़ाई-झगड़े, दंगे-फसाद होंगे। उद्योग और किनारे बसे नगर नदियों, नालों व झीलों को सड़ी हुई नाली बनाये डाल रहे हैं, इनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर और भी दूषित प्रभाव पड़ेगा और तब मनुष्य के संकटों का अन्त न रह जायेगा, जब यह संख्या बढ़ती और आंकड़े चौड़े होते चले जायेंगे। इस संकट से बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य अभी से प्राकृतिक और ईश्वर परायण जीवन जीने का अभ्यास करे।

बढ़ती हुई रेलें, यातायात से लोग पैदल चलना भूल रहे हैं, उधर इस्पात बनना बढ़ेगा, इस तरह दूषित वायु, पानी का अभाव और परिश्रम की कमी सब मिलकर स्वास्थ्य कमजोर करेंगे। नये-नये कपड़े विलासिता के साधन भी एक ओर शरीर खोखला करेंगे, दूसरी ओर उद्योग बढ़ायेंगे। तात्पर्य यह है कि आफतों का जाल उलझता ही चला जायेगा, यदि मनुष्य जाति ने अपनी परिस्थितियों पर विचार न किया और अपना जीवन बदलती हुई परिस्थितियों में ढालने का यत्न न किया।

“1975 का दुर्भिक्ष” नामक पुस्तक में दुनिया में खाद्यान्न की स्थिति का अध्ययन करने वाले अनुसन्धान कर्त्ता डा. डब्ल्यू पैडक और पी. पैडक ने दुनिया को चेतावनी दी है कि अब से 15 वर्ष बाद लोगों को एक भयंकर दुर्भिक्ष का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये। इसका अधिकाँश दुष्प्रभाव एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका पर पड़ने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

एक बात तो यही स्पष्ट है कि अकाल का अधिकाँश कोप घनी आबादी वाले देशों में होगा। इसलिये भारत वर्ष इस दृष्टि से प्रथम पंक्ति में आयेगा। जनसंख्या बढ़ने की दर वैज्ञानिक पद्धति से भी रुक नहीं सकती। उसे तो संयमित जीवन ही नियन्त्रित कर सकता है, पर लोग उसके लिए तैयार नहीं तो प्रकृति को ही विवश होकर दुर्भिक्ष का वज्र प्रहार करना पड़ेगा। इस सदी के अन्त तक दुनिया की संख्या दुगुनी हो जायेगी और उत्पादन की दर 3। 4 ही रह जायेगी। अर्थात् अकाल पड़ना अवश्यम्भावी है। जब-जब अकाल पड़ा दुनिया में भीषण महामारी फैली और अकाल से अधिक उसने लोगों को पीड़ित प्रताड़ित और उदरस्थ किया। सामाजिक अस्त-व्यस्तता भी इन कारणों से बढ़ेगी और पृथ्वी में रहने वाला मनुष्य बुरी तरह ऊब जायेगा।

कुछ भू-भौतिक शास्त्रियों का तो यह भी अनुमान है कि पृथ्वी अपनी कक्ष बदल रही है, जिससे सूर्य से आने वाली ऊर्जा के कोण बदल जायेंगे और उसका क्षणिक परिवर्तन भी धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठंडक पैदा करेगा। लोगों का गिरता स्वास्थ्य उसे बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं होगा। अतएव लोग बेमौत मरेंगे और कष्ट व पीड़ाओं से पीड़ित होंगे। उधर पृथ्वी की बर्फ भी तेजी से गलती जा रही है। समुद्र तल ऊपर उठ रहा है। विगत 20 वर्षों ने न्यूयार्क शहर की समुद्र-तल से 4 इंच ऊँचाई कम हो गई। इन प्राकृतिक परिवर्तनों को मनुष्य जीवन पर क्षिप्र प्रभाव पड़ेगा ही। उनसे कोई बच नहीं सकेगा।

बचाव का एक ही उपाय है और वह यह है कि मनुष्य और बढ़ती हुई लौकिक तृष्णाओं और महत्वाकांक्षाओं को कम करे। अपने मस्तिष्क की दिशा को विशाल ज्ञान, पारलौकिक जिज्ञासाओं की ओर मोड़े। मनुष्य आस्तिक बने और तृष्णा-वासना के क्रिया-कलाप कम करे तब ही यह सम्भव है कि बदलती हुई परिस्थितियों को सहन किया जा सके। अन्यथा मानव-जाति को इस सामूहिक विनाश और उसके बाद एक सर्वथा नये जीवन के लिए तैयार रहना चाहिये।


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