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November 1968

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भव्य और दिव्य समाज :-

“कामना करती हूँ ऐसे स्वस्थ समाज की, जिसकी संपत्ति हँसी और किलकारी भरते बच्चे प्रसन्न और उल्लसित नर-नारियाँ हों। जिसके हर युवक में अदम्य साहस, स्वाभिमान, तारुण्य और पुरुषार्थ हो लोक-मंगल के लिये। उस समाज में श्री, सौंदर्य और शाँति हो।

ऐसा सुन्दर समाज किसी के आदेश और आज्ञा से नहीं बनाया जा सकता, वह सृजनात्मक कार्यों से निर्मित हों। वह स्वयं अपने हाथों से गढ़े गये हों।

यह कार्य थोड़ा कठिन है, यह जानती हूँ। ध्वंस के लिये दो मिनट बहुत हैं, पर निर्माण में समय लम्बा लगता है, किन्तु यदि प्रति प्रतीक्षा के लिये अवधि न होती, उल्लंघा के लिये रेखायें, जीतने के लिये बाधायें और पार करने की सीमायें न होतीं, तो ऐसा लगता है कि परमात्मा ने मनुष्य को जो आनन्द का पुरस्कार प्रदान किया है, उसमें कुछ कमी आ जाती। इसलिये प्रयत्न और पुरुषार्थ के मार्ग कभी बन्द नहीं किये जाते। सृजन की शक्तियों को निरन्तर क्रियाशील रहना चाहिये।

मानती हूँ कई बार निराशा आयेगी और अपने आवास बनायेगी, किन्तु आशा का द्वार बन्द मत होने देना। भगवान दिन का सृजन कर रहे थे, तो संध्या आ गई और वे महापुरुष निराश नहीं हुये अनेक उज्ज्वल नक्षत्र गढ़कर उन्होंने रात के सौंदर्य को दिन से द्विगुणित कर दिया। परिश्रम करते-करते जब थकावट ने आ घेरा तो उन्होंने शीतल पवन का आह्वान किया, जिससे जीवन में पुनश्च एक नूतन प्रेरणा खेलने लगी। आशा का द्वार ऐसा ही है, जब तक वह खुला रहता है, तब तक सृजन और निर्माण के सुन्दर जखीरों की कमी नहीं होने पाती। न होना निराश, न बन्द करना द्वार गति के, तो एक दिन अपनी कल्याण का दिव्य और भव्य समाज मूर्तिमान होगा निश्चय ही।

आओ हम सब उस दिव्य संतति और संस्कृति के निर्माण में लग जायें, जिसमें बस तेजस्विता ही तेजस्विता हो। जहाँ मूर्धन्य और आत्म-शक्ति सम्पन्नता की कोई कमी न हो।” -कुमारी हेलन केलर,


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