लोकान्तर आवागमन- एक तथ्य, एक सत्य

November 1968

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अप्रैल सन् 1966 के एक दिन रूसी रेडियो खगोल शास्त्री एन. कर्दाशेव और जी. शोलोमित्स्की ने एक समाचार प्रस्तुत कर सर्वत्र सनसनी पैदा करदी। उन्होंने दावा किया सी. टी. ए. 102 नामक एक सुदूर रेडियो स्रोत एक विशेष गति से अपनी फ्रीक्वेंसी बदल रहा है, जो इस बात का प्रमाण है कि वहाँ कोई सभ्य, समुन्नत और सुशिक्षित जाति का अस्तित्व है। यद्यपि इस समाचार का बाद में खंडन कर दिया गया किन्तु तो भी वैज्ञानिक इस बात को मानने के लिये तैयार नहीं कि अन्य ग्रहों में समुन्नत जीवन नहीं है।

दिसम्बर 1900 की एक दोपहर को इसी तरह का एक सनसनीखेज समाचार कई प्रमुख पत्रों में छपा था- ‘‘पिछली रात को मंगलवासियों ने पृथ्वीवासियों को एक महत्वपूर्ण सन्देश भेजा था।” कुछ खगोल शास्त्रियों ने इसकी पुष्टि भी की और बताया कि मंगल ग्रह से एक विलक्षण ज्योति-पुँज पृथ्वी की और फेंका गया, जो सम्भवतः पृथ्वीवासियों के लिये कोई सन्देश रहा होगा।

तब से अमेरिका इस सम्बन्ध में सतर्क रहने लगा। आखिर 1924 में एक बार फिर से मंगल-ग्रह से इस तरह का एक सन्देश आया। न्यूयार्क के कुछ रेडियो इंजीनियरों ने इस सन्देश का उत्तर भेजने का प्रयत्न भी किया, किन्तु अन्य ग्रहों के संकेत और भाषा न समझ सकने के कारण कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त न हो सकी। हाँ एक बात जो अत्यन्त महत्वपूर्ण हुई वह यह थी कि वैज्ञानिक यह अनुभव करने लगे कि शरीरों की आकृति में भले ही भिन्नता हो पर लोक लोकांतरों में निवसित जीवों में कोई सूक्ष्म एवं अदृश्य एकता अवश्य है। यदि उस सम्बन्ध में विधिवत् जानकारी प्राप्त की जा सके तो अन्य ग्रह वासियों से संपर्क स्थापित करना सरल हो सकता है। यही नहीं उनसे परस्पर बातचीत, भेंट, मुलाकात भी हो सकती हैं। इस तरह पहली बार पाश्चात्य देशों में आवागमन की सत्यता की बात लोगों के मस्तिष्क में पैदा हुई।

अब थोड़ा भारतीय दर्शन की ओर आना चाहिये। हमारे शास्त्रों में मनुष्यों के तीन शरीर माने गये हैं। (1) स्थूल (2) सूक्ष्म और (3) कारण शरीर। स्थूल शरीर वह है, जो हमें दिखाई देता है। जो पार्थिव अणु संकलन से बना है, जिसे स्पर्श कर अनुभव करते हैं।

दूसरा सूक्ष्म शरीर- हल्का एवं सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। यह परमाणु-विज्ञान में माने गये परमाणुओं से भिन्न होते हैं, सजीव एवं चेतन होते हैं। इसे प्राण शरीर भी कहा जाता है। इस शरीर में भी वर्षा, शीत, उष्णता, सुख-दुःख का अनुभव उसी तरह होता है, जिस तरह स्थूल शरीर में। किन्तु सूक्ष्म शरीर के पोषण के लिये अन्न की आवश्यकता नहीं होती। विचार और भाव उसका पोषण करते हैं, इसलिये सूक्ष्म शरीर के आने-जाने में समय नहीं लगता। वह क्षण मात्र में न्यूयार्क, जर्मनी, इटली या स्विट्जरलैंड पहुँच सकता है। सधी हुई विचार-शक्ति (मनोयोग) से बन्द अलमारियों की पुस्तकें तक पढ़ी जा सकती हैं।

अन्याय चमत्कारपूर्ण जानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं, सूक्ष्म शरीर की सत्ता और महत्ता पर कहीं अन्यत्र विस्तृत प्रकाश डाला जायेगा। अभी इतना ही जानना चाहिये कि सूक्ष्म शरीर सभी जड़-वस्तुओं के लिये भी पारदर्शक होता है। प्रेत आत्माओं का शरीर सूक्ष्म शरीर का बना होता है। इस शरीर के आस पास हल्के रंग का प्रकाश भी चारों और फैला रहता है। जो आत्मा जितनी अधिक पवित्र होती है, उसका प्रकाश भी अधिक फैला और चमकदार होता है। महापुरुषों के मुख-मण्डल पर प्रदर्शित तेजोवलय इसी पवित्रता और तेजस्विता का प्रतीक होता है।

हिंदू-दर्शन की मान्यता यह है कि जब जीवात्मा स्थूल शरीर छोड़ देता है, तभी मृत्यु हो जाती है। अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित और अहंकार) तथा कारण शरीर सहित जीवात्मा सूक्ष्म शरीर में ही होता है। इसलिये उसका वह व्यक्तित्व वहीं बना रहता है। यथासमय यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म ग्रहण करता है। यह भी कहा जाता है कि स्वाधीनावस्था में सूक्ष्म शरीर ही अलग होकर लोक-लोकान्तरों की अनुभूतियाँ ग्रहण करता है।

कुछ जीवात्मायें महान तेजस्वी, विकार-रहित, निष्काम तथा इतनी संकल्पवान होती हैं कि वे मृत्यु के उपरान्त किन्हीं लोकों में जा सकतीं हैं। स्थूल शरीर भी धारण कर सकते हैं, अपने सगे सम्बन्धियों को अथवा करुणावश किन्हीं भी मनुष्यों को सन्देश और प्रेरणायें भी दे सकते हैं। भगवान कृष्ण ने शोक-ग्रस्त अर्जुन से कहा था- ‘‘इस संसार में कौन किसका? किसका पिता कौन पुत्र? सब जीव-कर्मवश शरीर धारण करते और फिर अपने लोक को लौट जाते हैं।”

‘‘गौकर्ण की मुक्ति’’ की पौराणिक कथा ऐसी ही है। जगद्गुरु शंकराचार्य ने उनने सूक्ष्म-शरीर से ही माहिष्मती के मृत राजा के शरीर में प्रवेश किया था और काम कला का ज्ञान प्राप्त किया था। सन्त एकनाथ के यहाँ श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों ने भोजन करने से इनकार कर दिया। तब उन्होंने अपने पितरों का आह्वान कर उन्हें साक्षात् भोजन कराया। इस घटना ने सन्त एकनाथ को चमत्कारी व्यक्ति सिद्ध कर दिया था। सूक्ष्म शरीर के चमत्कार और भी आश्चर्यजनक हैं। वह लोकान्तरों में भी प्रसन्नतापूर्वक गमन कर सकता है।

वैज्ञानिकों को भी विश्वास हो गया है कि हमारे तारक पुंजों के अतिरिक्त ब्रह्मांड में जो अन्यान्य अदृश्य तारागण हैं, उनमें से अनेकों में जीवंतता अवश्य होनी चाहिये। और इस जीवन में स्थान-परिवर्तन का भाव और ज्ञान भी होना चाहिये। आजकल उड़न-तश्तरियों के अनेकों प्रमाण सामने आ रहे हैं, वह काल्पनिक नहीं हैं। भले ही समाचारों में कुछ अफवाहें हों पर अधिकाँश तथ्यपूर्ण भी हैं, उनसे यह प्रकट होता है कि अन्य ग्रहों में जीवन है और वे बौद्धिक क्षमता वाले भी हैं, उन्हें पृथ्वी का ज्ञान हैं, वे पृथ्वी से संपर्क भी स्थापित करते रहते हैं। कठिनाई यह है कि स्थूल शरीर से उन संदेशों को पकड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि भाषा और ज्ञान की स्थिति एक जैसी नहीं है।

दूरी और समय का मेल भी एक कठिनाई है। उदाहरणार्थ ‘एप्सीलान एरीडानी’ पृथ्वी के निकटस्थ तारों में से एक हैं और हमसे केवल 10 प्रकाश वर्ष की दूरी पर है। यदि वहाँ से कोई सन्देश सन् 1958 में भेजा गया हो तो वह पृथ्वी पर इस वर्ष आयेगा और यदि उसका उत्तर तत्काल प्रेषित कर दिया जाये तो वह वहाँ सन् 1978 तक पहुंचेगा।

1908 में साइबेरिया में एक उल्का गिरी थी। उसकी जाँच करने से पता चला था कि यह सिग्नी 61 नामक नक्षत्र से सम्बद्ध किसी ग्रह से आने वाली सूचना-पिण्ड थी, अनुमान था कि ‘क्रामातोआ’ ज्वालामुखी फटने से पृथ्वी में जो प्रकाश पुँज जला था, वह उसका ही प्रत्युत्तर होगा।

जीव-विज्ञान के डा. अल्पातोव की कल्पना भारतीय कल्पना से स्पष्ट मेल खा जाती है। उन्होंने जीवन को दो रूपों में बाँटा है- (1) सक्रिय स्वरूप (2) निष्क्रिय स्वरूप। सक्रिय स्वरूप के अंतर्गत ऐसे जीवित प्राणी आते हैं, जो वातावरण में रहकर उसके संपर्क से अपने आपकी वृद्धि करते रहते हैं। जीवन के निष्क्रिय स्वरूप क्षेत्र उससे अधिक व्यापक विस्तृत एवं अनन्त है। निष्क्रिय स्वरूप बीजों या बीजाणुओं के रूप में जीवित होने की शक्तियुक्त अवस्था में पाये जाते हैं।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि शरीर की बीज अवस्था बिल्कुल सूक्ष्म और अदृश्य है, उसे प्रकाशस्वरूप कह सकते हैं, उसकी ऊर्ध्वगति या अधोगति अच्छे और बुरे भावों, विचारों, संकल्पों एवं क्रिया-कलापों से होती है। इसलिये जीव के अन्यान्य ग्रहों में आवागमन का कारण भी सूक्ष्म रूप में विचार और भावनायें तथा स्थूल रूप में क्रिया-कलाप, रहन-सहन और खान-पान होता है। अर्थात् स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति या उनसे छूटना एक ओर स्थूल शरीर की शुद्धि पर भी आश्रित है और सूक्ष्म शरीर की शुद्धता पर भी।

यहाँ तक दो बातें निर्विवाद सत्य सिद्ध होती है- (1)पारलौकिक जीवन (2) आवागमन की स्थिति में सुख और दुःख की अनुभूति। तब फिर हमें उपनिषदों की इस मान्यता की ओर लौटना ही पड़ता।

“न ह्यन्तातरतो रूपं किंचन सिध्येत्। नो एतन्नाना। तद्यथा रथस्यारेषु नेमिरर्पिता नाभावरा अर्पिता एवमेवैता भूत मात्राः प्रज्ञामात्रास्वर्पिताः प्रज्ञामात्रा प्राणे अर्पिताः। एष लोकपाल एष लोकधिर्पा रेष सर्वेश्वरः स म आत्मेति विद्यात् स म आत्मेति विद्यात्।” -कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् 9,

अर्थात्- प्रज्ञामात्रा और भूतमात्रा के स्वरूप में कोई विभिन्नता नहीं है। जैसे रथ की नेमि अरों में और अरे रथ नाभि के आश्रित रहते हैं, वैसे ही भूत-मात्रायें प्राण में स्थित हैं। यह प्राण ही अजर-अमर सुखमय और प्रज्ञामात्रा है। यद्यपि वह श्रेष्ठ कर्मों से न तो बढ़ता और न बुरे कर्मों से घटता है, किन्तु जो शुभ कर्म करते हैं, प्रज्ञा और प्राण रूप परमेश्वर उन्हें ऊपर के लोकों (स्वर्ग) में पहुँचाता है तथा जो बुरे कर्म करते हैं, उन्हें नीचे के लोकों (नर्क) में धकेल देता है। यह आत्मा सब लोकों का अधीश्वर लोकपाल एवं सब का स्वामी, गुणों वाला प्राण ही आत्मा है।


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