जीवन-शक्ति का अजस्र स्रोत- संगीत

November 1968

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संगीत को अब तक उस कला के रूप में देखा जाता रहा है, जिससे मनोरंजन होता है और मन को स्फूर्ति मिलती है पर अब विज्ञान धीरे-धीरे इस विश्वास पर उतर रहा है कि संगीत एक बड़ा महत्वपूर्ण शक्ति-केन्द्र है। यदि उस शक्ति का यथेष्ट अनुसंधान एवं उपयोग किया जा सका तो अनेक आश्चर्यजनक रहस्य सामने आयेंगे और उनका मानव-जाति के कल्याण में भारी उपयोग किया जा सकेगा।

आज का संगीत एक प्रकार का सम्मोहन है जिससे मनुष्य असंयम की ओर दिग्भ्रान्त हो रहा है, परन्तु प्राचीनकाल में हमारे पुरखों ने तत्त्वान्वेषण के आधार पर उसकी प्रबल शक्ति और सामर्थ्य को परखने के साथ यह भी जाना था कि संगीत शक्ति के दुरुपयोग से मानव-जाति का अहित भी हो सकता है, इसलिये उसे भी धर्म का एक अंग माना। और ऐसे प्रतिबन्ध लगाये जिससे स्वर साधना का निष्कलंक रूप बना रहे और उससे मानव-जाति की भलाई होती रहे।

बीच में एक समय ऐसा आया जब शास्त्रीय संगीत में विदेशी जातियों का भी हस्तक्षेप हुआ और उन्होंने धीरे-धीरे उसे आज की स्थिति में घसीटना प्रारम्भ कर दिया। आज चारित्रिक दुर्बलता का एक कारण संगीत की सम्मोहक-शक्ति भी है। मीठे स्वर से किसी भी भावुक व्यक्ति को प्रभावित कर उसे अधोगामी बनाने का कुचक्र इन दिनों बहुतायत से फैलता जा रहा है।

अन्यथा संगीत एक महान साधना है और ब्रह्म प्राप्ति उसकी सिद्धि। नाद्-बिन्दूपनिषद के 42 से 45 मंत्रों में बताया गया है कि भ्रमर जिस प्रकार फूलों का रस ग्रहण करता हुआ, फूलों की गन्ध की अपेक्षा नहीं करता, उसी तरह नाद में रुचि लेने वाला चित्त विषय-वासना में दुर्गन्ध की इच्छा नहीं करता। सर्प नाद को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी प्रकार नाद में आसक्त हुआ चित्त सभी तरह की चपलतायें भूल जाता है। संसार की चपलताओं से वियुक्त मन की एकाग्रता बढ़ती है और विषय-वासनाओं से अरुचि होने लगती है। यदि मन को हिरन और तरंग की संज्ञा दें तो यह नाद उस हिरन को बाँधने और पकड़ने वाला जाला और तरंग को साधने वाला तट ही माना जायेगा।

इसी उपनिषद् में ब्रह्म की अनुभूति-शक्तियों में नाद को भी शक्ति माना है और यह बताया है कि उसका अभ्यास करते हुये साधक एक ऐसे मधुर स्वर-संगीत में निबद्ध हो जाता है, जिससे सारा संसार ही उसे एक प्राण और परमात्मा का प्रतीक अनुभव होने लगता है।

वैज्ञानिक खोजों से यह पता चला है कि शून्य सृष्टि की निराकार स्थिति जहाँ है, वहाँ से एक प्रकार का शब्द उत्पन्न होता है, जैसे कि काँसे की थाली में चोट करें तो एक प्रकार का कंपन पैदा होता है, वह देर तक झन-झनाती रहती है। ऐसी झंकृतियाँ प्रकृति के अदृश्य अन्तराल से पानी में लहरों की भाँति निरन्तर उठती रहती हैं, इन झंकृतियों के आघात से इलेक्ट्रान परमाणु (विद्युत-घटकों) में गति उत्पन्न होती हैं और वे अपनी धुरी पर उसी प्रकार घूमने लगते हैं, जिस तरह सृष्टि के अन्यान्य बड़े-बड़े ग्रह, उपग्रह, पृथ्वी, नक्षत्र आदि अपनी धुरी पर घूमते हैं।

इलेक्ट्रान परमाणुओं में एक विशेष गति उत्पन्न होने से सृष्टि का काम उसी तरह चलने लगता है, जिस तरह चाभी भर देने से घड़ी चलने लगती है। सृष्टि का संचालन इन अदृश्य कम्पनों से ही चल रहा है, उनमें इतनी मधुरता दिव्यता शांति है, जिसे अमृत कहा जा सकता है। स्वर जितना सूक्ष्म और अन्तराल से प्रस्फुटित हुआ होगा, वह विश्व-नाद को उतना ही स्पर्श कर रहा होगा, अर्थात् उससे उसी अंश में मधुरता, आत्म-सुख, दिव्यता, पुलक और शांति की अनुभूति हो रही होगी।

भौतिक सृष्टि का सारा खेल संगीत की शक्तिशाली झंकृतियों के आधार पर चल रहा है। चैतन्य सृष्टि की साकारता भी संगीत के आधार पर है। मस्तिष्क के विद्युत कोषों से प्रति सेकेंड लगभग 31 विचार-तरंगें निकलती हैं। सिनेमा के पर्दे पर एक सेकेंड में सोलह चित्र सामने से गुजर जाते हैं। इतनी तेजी से चित्र घूमने के कारण दृष्टि भ्रम होता है और ऐसा लगता है कि चित्र न होकर वह कोई जीवित प्राणी काम कर रहा है। उसी प्रकार विद्युत कोषों में 31 कम्पन एक सेकेंड में निकलते हैं, तो उस मूल प्रेरक प्रक्रिया (नाद-ब्रह्म) का आभास नहीं हो पाता वरन् वह क्रियाशीलता एक निरन्तर चलने वाले ‘विचार’ के रूप में प्रकट हो जाती है। मनुष्य कुछ न कुछ सोचता ही रहता है, यह विचार तरंगें ईश्वरीय कम्पन की मनोजन्य झंकृति ही होती है, वह जितनी स्थूल होगी, विचार भी उतने ही स्थूल होंगे किन्तु यदि मन को एकाग्र कर लिया जाय और अधिक सूक्ष्म कंपनों तक पहुँचने का प्रयास किया जाये तो बड़े निर्मल, दिव्य आनन्द और शांति एवं संतोषदायक विचारों का सान्निध्य मिलने लगता है। संगीत साधना का यह एक बड़ा भारी आध्यात्मिक लाभ है।

विचार की सूक्ष्मतम स्थिति में पहुंचने पर शब्द-विद्या के पण्डितों का कहना है कि- प्राण वायु जब सहस्रार कमल (मस्तिष्क स्थिति) से टकराती है तो ‘ॐ’ की झंकृति से मिलता-जुलता शब्द उत्पन्न होता है। यही अजपा जप है, उसे शास्त्रीय भाषा में ‘सोऽहं’ ध्वनि कहा गया है। ब्रह्मांड स्थित सहस्रार से जाकर प्राण वायु न टकराये और यह ‘सोऽहम्’ की ध्वनि न हो तो मस्तिष्क की चेतना का- स्नायविक विद्युत-शक्ति का अन्त हो जायेगा और क्षण भर के अन्दर मृत्यु हो जायेगी।

योगी लोग बताते हैं कि शरीर का सूक्ष्म ढाँचा बिलकुल सितार जैसे है। मेरुदण्ड में इड़ा और पिंगला और सुषुम्ना के तार लगे हैं, यह तार मूलाधार स्थित कुण्डलिनी से बँध गये हैं। आज्ञा चक्र से लेकर मूलाधार तक के 6 चक्र इसके वाद्य स्थान हैं। इनमें लँ, बँ, रँ, षँ, हँ और ॐ की ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होती रहती हैं। अब स्थूल-जगत में सा, रे, ग, म, प, ध, नी यह स्वर जब वाद्य यन्त्र से ध्वनियाँ निकालते हैं, और शरीरस्थ ध्वनियों से, टकराते हैं तो इस संघर्षण और सम्मिलन से मनुष्य का अंतर्जगत संगीतमय हो जाता है। इन तरंगों में असाधारण शक्ति भरी पड़ी है।

इन तरंगों के प्रवाह से शारीरिक और मानसिक जगत के सूक्ष्म प्राण गतिशील होते हैं, तदनुसार विभिन्न प्रकार की योग्यता, रुचि, इच्छा, चेष्टा, निष्ठा, भावना, कल्पना, उत्कण्ठा, श्रद्धा आदि का आविर्भाव होता है। इनके आधार पर गुण-कर्म और स्वभाव का सृजन होता है और उसी प्रकार जीवन की गतिविधियों से सुख-संतोष भी मिलता रहता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रीय संगीत की रचना एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित है कि उसका लाभ मिले बिना रहता नहीं। इसी कारण संगीत को पिछले युग में धार्मिक और सार्वजनिक समारोहों का अविच्छिन्न अंग माना जाता था। आज भी विवाह-शादियों और मंगल पर्वों पर उसकी व्यवस्था करते और उसके लाभ प्राप्त करते हैं। हम देखते नहीं पर अदृश्य रूप से ऐसे अवसरों पर प्रस्फुटित स्वर-संगीत से लोगों को आह्लाद, शांति और प्रसन्नता मिलती है, लोग अनुशासन में बने रहते हैं।

मिलिटरी की कुछ विशेष परेडों में भी वाद्य यन्त्र प्रयुक्त होते हैं। उससे नौजवानों को कदम तोलने और मिलाकर चलने में बड़ी सहायता मिलती है। कारण उस समय सबके अंतर्जगत एक-सी विचार-तरंगों में आविर्भूत हो उठते हैं। ऐसे लाभों को देखकर विवाह-शादियों, व्रत, त्यौहारों, मंदिरों में पूजन आदि के समय कथा-कीर्तन की व्यवस्था की गई थी। अब भी उनका लाभ उठाया जाना चाहिये। जहाँ यह व्यवस्था प्रतिदिन हो सके, वहाँ दैनिक व्यवस्था रहे तो उससे स्थानीय लोगों की अदृश्य रूप से आत्मिक और आध्यात्मिक सेवा की जा सकती है। संयोजन कर्ताओं को तो दुहरा लाभ मिलता ही है।

शास्त्रीय-संगीत की इस विज्ञानभूत प्रक्रिया को अब पाश्चात्य देश भी अच्छी तरह समझने लगे हैं। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस आदि सुविकसित देशों में वर्तमान पीढ़ी के युवक तेजी से भारतीय संगीत सीख रहे और उसके अन्य कारणों में इसी संगीत से उत्पन्न होने वाली शारीरिक एवं मानसिक प्रतिक्रियाओं का प्रभाव मुख्य है। उससे लोगों को बड़ी शाँति मिली है, फलस्वरूप भारतीय संगीत का अधिक लाभ प्राप्त कने के लिये, वे लोग भारतीय भाषायें सीखना चाहते हैं।

अमेरिका के प्रसिद्ध मानस चिकित्सक डा. जार्ज स्टीवेन्सन और डा विन्सेन्ट पील ने स्नायविक तनाव दूर करने के लिये जो उपाय बतायें हैं, उनमें चौथा इस प्रकार है- ‘‘इन तीन उपायों (1. क्रोध आये तो शारीरिक श्रम में लग जाना, 2. विपरीत परिणाम या असफलता के समय स्वाध्याय, 3 व्यायाम) की सार्थकता संगीत से सम्पन्न होती हैं, इसलिये संगीत साधना को हम सभी मानसिक तनावों के निराकरण की अचूक औषधि भी कहते हैं। संगीत के अभ्यास और श्रवणकाल दोनों में मन को विश्रान्ति ही नहीं, आत्म-प्रसाद भी प्राप्त होता है।

प्राचीनकाल के कुछ कथानक ऐसे मिलते हैं, जिनमें संगीत की अद्भुत शक्ति का पता चलता है राग, मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है। दीपक राग से बुझे हुये दीपक जल उठते हैं। संगीत सम्राट तानसेन के सधे स्वरों से आकर्षित होकर वनमृग प्राणों का भय त्याग कर भागे चले आते थे। वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगता है वीर रस शंकरा युद्धस्थ जवानों की वीर भावनायें उत्तेजित करने के लिये प्रयुक्त होता था। योद्धा-गण मारू संगीत सुनकर मृत्यु का भय भूल जाते थे। आनन्द के अवसर पर श्रृंगार और प्रातःकाल भगवान के चरणों में भक्ति की प्रगाढ़ता के लिये भैरवी गाया जाता है। क्षयरोग के निवारण के लिये श्रीराम का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रयोग किया जाता रहा है।

यद्यपि यह विद्यायें अब लुप्त प्रायः हैं, तो भी अभी इस दिशा में सब कुछ नहीं खो गया। उत्तर-प्रदेश के पूर्वी इलाकों में एक विशेष प्रकार के वाद्य से सर्प का विष दूर किया जाता है। कुछ प्रान्तों में थाली बजाकर विशेष रोगों का उपचार करने की प्रथा अभी भी है। पाँच तत्वों से बने शरीर में वात, पित्त, कफ को स्वरों और रसों के घटाने-बढ़ाने से आशाजनक स्वास्थ्य लाभ मिलता है। बसन्त-ऋतु में बसन्त राग खून में एक नई जागृति, उमंग तथा प्रसन्नता उत्पन्न करता है। वर्षा ऋतु में राग मल्हार से आनन्द के भाव उत्पन्न होते हैं। यह प्रभाव कई बार बड़ी तीव्रता से भी होते हैं।

प्रातःकाल राग भारती और राग भैरवी आदि से भक्ति-रस का प्रादुर्भाव होता है, जिससे स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है। संगीत सुनकर कई व्यक्तियों को वैराग्य हो जाता है। दीपक-राग गाते समय भावावेश आ जाने के कारण अथवा गतिभंग के कारण तानसेन का सारा शरीर काला पड़ गया था। बाद में कुछ महिलाओं के संगीत से ही वह रोग ठीक हुआ और उसे पहले जैसी त्वचा मिल सकी थी।

युवकों के चरित्र निर्माण में संगीत को एक अत्यन्त प्रभावशाली साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अरस्तू कहा करते थे- ‘‘स्वर और लय के योग से कैसी भी भावनायें उत्पन्न की जा सकती हैं।” महाराष्ट्र राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल श्री प्रकाश जी ने एक बार कहा- ‘‘संगीत की शिक्षा स्कूलों में अनिवार्य कर दी जानी चाहिये। इससे युवक विद्यार्थी में मानसिक एकाग्रता और जागरूकता का विकास स्वभावतः होगा। यह दो गुण स्वयं उसके व्यक्तित्व में अन्य गुणों की वृद्धि करने में सहायक बन सकते हैं।

हमारे प्रत्येक देवता के साथ संगीत का अविच्छिन्न सम्बन्ध होना यह बताता है कि विश्व की सृजन प्रक्रिया में संगीत का चमत्कारिक प्रभाव है। हृषीकेश का पांचजन्य, शंकर का डमरू, भगवान कृष्ण की मुरली, भगवती वीणापाणि सरस्वती की वीणा का रहस्य एक दृष्टि से यह भी है कि सृष्टि का प्रत्येक अणु संगीत शक्ति से गतिशील हो सकता है।

विश्व संगीतमय है, संगीत ही इसकी प्रेरणा और प्राण शक्ति है। यह तत्व इतना महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है कि इसके उपयोग से हम मृत्युमुख जीवन को अमरत्व की ओर, निराश जीवन को आशा और संतोष तथा व्यथित और परिक्लान्त जीवन को शाश्वत शाँति और आनन्द की ओर अग्रसर कर सकते हैं।


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