गायत्री का देवता सविता पर एक वैज्ञानिक दृष्टि

November 1968

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विश्व रचना के दो प्रधान तत्व हैं- एक प्राण (इसे आध्यात्मिक भाषा में ‘देव’ भी कहते हैं) दूसरा ‘भूत’। इन दोनों तत्वों का जहाँ भी मिलन हो जाता है, वहीं दृश्य प्रकृति, गतिमान या क्रियाशील जीवन के दर्शन होने लगते हैं। केवल ‘भूत’ पदार्थ प्राण के बिना स्पन्दन नहीं कर सकता। इसलिये भौतिक जगत में जहाँ भी जीवन-तत्व है, वह प्राण ही है, इसे ही ‘गायत्री’ कहते हैं।

मनुष्य शरीर में यह दोनों शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं। बाल्यावस्था में छोटा-सा पंच भौतिक पदार्थों का पिंड छोटा-सा प्राण धारण किये हुये था, तब उसकी शक्ति और तेजस्विता कम थी पर जैसे-जैसे शरीर का विकास होता है और शरीर में प्राण की मात्रा बढ़ती है, शक्ति और क्रियाशीलता भी बढ़ती है, अवस्था के इस क्रम से बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था को “गायत्री की समिधा” कहा गया है, क्योंकि प्राण तत्व इन्हीं में जलता है।

उसके बाद दोनों तत्व फिर अलग-अलग हो जाते हैं प्राण निकल जाता है और पंचभूतों से बना हुआ नितान्त प्राकृत शरीर पड़ा रह जाता है। इस छूटे हुए शरीर को ऋग्वेद में-

यद् गायत्रे अधि गायत्र माहितम्।

अर्थात् पंचभूतों से बना शरीर मर्त्यगायत्री है। इसमें सोचने, समझने, सुख-दुःख अनुभव करने, क्षोभ और विकलता व्यक्त करने वाली शक्ति प्राण थी। शरीर निस्पन्द और अनुभव-हीन होता है। इसलिये सुख-दुःख ही नहीं मनुष्य जीवन की सारी हलचल, परिवर्तन गति उन्नति, अवनति का कारण भी प्राण ही हैं।

यदि सूक्ष्म रूप से विचार करें तो ऐसा मालूम पड़ेगा कि जो प्राण शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में क्रियाशील रहता है, वह भी भौतिक है। किरणें, ज्योति या अग्नि जैसा कोई स्थूल तत्व कह सकते हैं, उसे नियन्त्रित और प्रेरित करने वाली एक तीसरी मनोमय शक्ति है। इसी की इच्छा और संकल्प शक्ति से शरीरगत व्यापार चलते हैं। इसलिये गायत्री -इस एक शब्द में ही पंच-भौतिक, प्राण और मन-त्रिक शक्ति का समग्ररूप आ जाता है। शास्त्रों में इसे भौतिक क्लेश और प्रपंच से मुक्ति दिलाने वाली विद्या कहा गया है। अर्थात् जो विचारपूर्वक इन तीनोँ शक्तियों को अलग-अलग अनुभव करते हैं, फिर उनकी अधोगति नहीं होती “तुमहिं जानि कछु रहे न शेषा, तुमहिं पाय कछु रहे न क्लेशा।” इसी गायत्री शक्ति की स्तुति है, जो अब विज्ञान सम्मत भी है।

गायत्री का आविर्भाव कहाँ से होता है। यह प्रश्न उठता है तो उपनिषदकार कहते हैं-

“देवात्म शक्तिम् स्वगुणे निगूढः”

देव माया या इन्द्र शक्ति ही वह सत्ता है, जो विश्व-गायत्री अर्थात् अनेक रूपों में विकसित होता है। यह देव-शक्ति या इन्द्र कौन है-

“तस्य दृश्यः शतादश”

सूर्य ही वह इन्द्र है, जिसकी हजारों किरणें हैं। एक-एक किरण, एक-एक रूप है। इन किरणों में प्राण-शक्ति भरी होती है। सूर्य को त्रयी विद्या भी कहा गया है अर्थात् सूर्य स्वयं भी एक वैसी ही गायत्री है, जिस तरह कि एक गायत्री शरीर प्राण और मनोमय रूप में धरती में विद्यमान रहती है। इस तरह यदि सूर्य को एक विराट पुरुष की संज्ञा प्रदान करें- जो एक व्यापक क्षेत्र में बिल्कुल मनुष्य की तरह क्रियाशील रहता है। सोच-विचार भी कर सकता है, विकल और क्षुब्ध हो सकता है। दंड और पुरस्कार दे सकता है। हर्ष और शोक, सन्तोष और असन्तोष व्यक्त कर सकता है, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

अब तक यह विषय हमारी श्रद्धा का रहा है, अर्थात् जिसके हृदय में वैराग्य और श्रद्धा उत्पन्न होती थी, वह यह मान लेता था कि- ‘‘निखिल आकाश या किसी लोक स्थान से गायत्री नाम की कोई देवी बैठी होगी, जो हमारे आन्तरिक भावों को सुन और समझ कर अपने वरदान दे सकती होगी।” पर अब उनके विराट पुरुष रूप को विज्ञान ने इस तरह सिद्ध कर दिया है कि जिनके हृदयों में श्रद्धा नहीं वह भी इन प्राण-पुरुष से अपना संपर्क स्थापित कर उसी प्रकार लाभान्वित हो सकते हैं, जिस तरह बड़े बिजली घर से संपर्क स्थापित करके छोटा बिजलीघर भी प्रकाशमान हो उठता है।

मनुष्य एक छोटी गायत्री है, सूर्य एक विराट गायत्री। छोटी गायत्री को जब विराट गायत्री के साथ जोड़ देते हैं तो वह भी वैसी ही शक्ति और सम्पन्नता अनुभव करने लगती है, जैसे धनवान पिता का पुत्र पास में कुछ न होने पर भी अपने पिता की तरह ही धन का अभिमान और कुछ भी क्रय कर सकने का विश्वास कर सकता है। अर्थात् गायत्री के विराट स्वरूप को पा जाने पर मनुष्य भी उतनी ही क्षमता वाला हो जाता है, जितनी सुर्य भगवान की, इसे ही शक्ति अथवा सिद्धि कहते हैं।

यह जानना आवश्यक है कि क्या सचमुच सूर्य मनुष्य की तह त्रिक शक्ति वाला विराट पुरुष- जिसमें मनुष्य की तरह सम्वेदनशील हो- हो सकता है?

सूर्य रश्मियों के वर्णन में वैज्ञानिक यह कहते हैं कि यह तीन रगों का (सात रंग इन तीन रंगों के मिश्रण से बनते हैं, मूल रंग तीन ही हैं ) सम्मिश्रण है। स्पेक्ट्रोमीटर के द्वारा इन रंगों को- अलग-अलग भी कर दिखाया जा सकता है। यदि मनुष्य और सूर्य में ऐसा कुछ साम्य है तो मनुष्य शरीर में भी इन रंगों को परिलक्षित होना चाहिये पर यहाँ तो रक्त का रंग भी लाल है। फिर साम्य कहाँ हुआ।

विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि रक्त का रंग लाल नहीं है, कई तत्वों के सम्मिश्रण से वह लाल दिखाई देता है। अन्यथा रक्त के जीवाणु विशुद्ध पीले रंग के होते हैं। आजकल पूर्ण मृत्यु का पता लगाने के लिये त्वचा में ‘यूरेनाइन’ नाम का इन्जेक्शन दिया जाता है, यदि मनुष्य की मृत्यु नहीं हुई और रक्त संचार हो रहा होता है तो त्वचा का रंग पीला और हरा हो जाता है, नीला रंग, लाल रंग की गहराई के कारण दृश्य नहीं हो पाता अन्यथा इस विधि से शरीर की इस त्रिक शक्ति का स्पष्ट विश्लेषण हो जाता है। मृत देह में इन्जेक्शन का कोई प्रभाव नहीं होता।

प्रत्यक्ष में निर्विकार दिखाई देने वाले सूर्य के सम्बन्ध में सर्वप्रथम इन्गोस्स्टाड के पादरी क्रिस्टॉफ शाइनर ने एक संदेश अपने अध्यक्ष पादरी को दिया था कि उसमें काले-काले धब्बे विद्यमान हैं। लेकिन अरस्तू के ग्रन्थ में ऐसा कुछ नहीं था, इसलिये बेचारे शाइनर को कड़ी डाँट-फटकार सुननी पड़ी किन्तु सौभाग्य से उन्हीं दिनों गैलीलियो ने दूरदर्शक यन्त्र की सहायता से इस बात की पुष्टि कर दी कि सूर्य में सचमुच धब्बे हैं और यह धब्बे हलचल करते रहते हैं। कभी फूटकर फेल जाते हैं, कभी एक धब्बा लुप्त हो जाता है और उसके पास का धब्बा कोंधने लगता है। कई बार वे कई भागों में बँट जाते हैं और फिर कई-कई मिलकर एक हो जाते हैं। पहले ही इन हलचलों का कारण वैज्ञानिक नहीं जान सके थे, पर धीरे-धीरे पता चला कि यह सब तपी हुई गैसों के वृहत् बवण्डर हैं। और वे बिल्कुल मनुष्य की सी इच्छा शक्ति से मेल खाते हैं।

सूर्य की इस दमक के साथ जो प्रकाश फूटता है, उसे ‘फ्लेयर’ कहा जाता है और उस समय जो प्रकाश के सर्प से लहर लेते हुए दौड़ते हैं, वह ‘फिलामेन्ट ’ कहलाते हैं। अब इनके सम्बन्ध में कई आश्चर्यजनक तथ्य सामने आने से वैज्ञानिक यह मानने को सहमत हो रहे हैं कि सूर्य के अन्दर सम्वेदना व्याप्त है, अर्थात् यह हलचल, विकलता, क्षोभ, प्रसन्नता और क्रोध जैसी भावनाओं के स्थूल स्पन्दन हैं और जिस तरह विचारों का प्रभाव मनुष्य के शरीर पर पड़ता है, उसी प्रकार यह विकलतायें भी प्रकृति में भारी हलचल उत्पन्न करती रहती हैं। विकलता की स्थिति में सूर्य विशेष प्रकार के सूक्ष्म कण और किरणों के अम्बरक छोड़ता है, जो बड़े वेग से चलकर करोड़ों मील तक अपना प्रभाव डालते हैं, यहाँ तक कि चुम्बकीय क्षेत्र को भी मथ डालते हैं। ऐसे समय कुतुबनुमा की सुई तक काँपने लगती है।

इनका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ता है तो उससे हिमपात, ओले, अनावृष्टि, वृक्षों की वृद्धि, बाढ़, वर्षा, झंझावात, ताप और शीत की मात्रा में तीव्रता से परिवर्तन आदि दृश्य उपस्थित होते हैं, अमेरिका के अनेक अर्थ-शास्त्रियों ने तो यहाँ तक माना है कि अर्थ जगत जैसे मोटर, शराब आदि के कारखाने, नये भवनों के निर्माण में भी इनकी प्रतिक्रिया पड़ती है। यह हलचल 11 वर्ष की एक सीमा में बँधी पाई गई है। पिछले कुछ वर्षों में सन 1928, 1936, 1947, 1959 में इनकी प्रबलता के कारण पृथ्वी पर व्यापक परिवर्तन सन 1938 में अत्यन्त तेज ध्रुव प्रकाश चमका। वह अफ्रीका और क्रीमिया में दिखाई दिया था, इसके कुछ दिन बाद ही वहाँ भयंकर चुम्बकीय आँधी आई, जिससे सारी संचार व्यवस्था गड़बड़ पड़ गई। 22 फरवरी 1956 को हुये सौर-विस्फोट के कारण एशिया, आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड का रेडियो सम्बन्ध टूट गया था। 28 जून 1957 को मास्को की क्रास्नाया पाखा वेधशाला ने भी ऐसा विस्फोट देखा और उसकी सूचना “विश्व सूचना ऐजेन्सी’’ को भेजी। उसके ठीक 33 घंटे बाद योरोप में तेज आँधी आई। रूस के जल विज्ञान सम्बन्धी इंजीनियर प्रो. बी. आपालोव तथा ए. फ्रोलावा के अनुसार 1966 में आई, सभी प्राकृतिक विपदाओं का कारण भी सूर्य ही था। इसी वर्ष भारत, अमेरिका, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इटली, पूर्व जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, बुल्गारिया, मिश्र, आदि अनेक देशों में बाढ़ें आईं। बुल्गारिया में तो 20-30 सेंटीमीटर तक ओले पड़े।

1947 में भारत की स्वतन्त्रता का कारण भी अब ज्योतिर्विद् सूर्य को ही मानते हैं। कुछ महीनों पूर्व वैज्ञानिकों ने फिर से घोषणा की है कि सूर्य से एक प्रकार की आँधी चल पड़ी है और वहाँ इस समय तेजी से विकलतायें परिलक्षित हो रही हैं। उनका पृथ्वी पर तेज प्रभाव पड़ेगा। प्राकृतिक हलचलें तीव्र होंगी। वायु-दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ेगी मानवीय संकट बढ़ेंगे। अमेरिका का उड्डयन और अन्तरिक्ष प्रशासन इन सम्भावनाओं की तेजी से खोज कर रहा है और उससे बड़ी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलने की संभावना है।

हम भारतीय सूर्यदेव की इन हलचलों को उनकी मनोमय क्राँति मानते हैं। और हमारा यह विश्वास है कि उससे विश्व के भूगोल में कितने ही बड़े और भयंकर परिवर्तन हों, पर भारतीय संस्कृति को उससे संरक्षण मिलेगा। भारतीय संस्कृति के अभ्युत्थान के मूल में उन विराट पुरुष की ही इच्छा काम कर रही है, चाहे इसे कोई वैज्ञानिक ढंग से मानले, चाहे श्रद्धापूर्वक स्वीकार करले।

सूर्यदेव का यह मनोमय विश्लेषण ज्यादा वजनदार है, वैसे उनके विराट पुरुष होने के शेष दो प्राण-शक्ति और उनकी पंच-भौतिक प्रकृति का गायत्री स्वरूप अभी और शेष है।

शरीर में जितनी धातुयें रासायनिक तत्व आदि हैं, वह सब सूर्य में भी हैं। आपको पता होगा, गन्ना जिस खेत में खड़ा होता है, उसके आस-पास के क्षेत्र में भी शक्कर की अधिक से अधिक 5-10 सेर से अधिक मात्रा नहीं होती, किन्तु उसी खेत के गन्नों से मनों शक्कर प्राप्त हो जाती है। इतनी सारी शक्कर गन्ने का पौधा सूर्य की धूप से ग्रहण करता है, अर्थात् शरीर के जितने भी निर्माणकारी तत्व हैं, वह सब सूर्य में हैं। सूर्य चिकित्सा और प्राण-चिकित्सा नामक दो पुस्तकें ‘अखंड ज्योति संस्थान’ से पहले छपी थीं, स्वास्थ्य और शरीर साधना के यह दोनों लाभ गायत्री उपासना से मिलते हैं, यह निश्चित हैं यहाँ तो केवल यह बताना था कि मनुष्य की तरह भी प्राण, पंच-भौतिक प्रकृति और मनोमय क्रियाशीलता तीनों ही अंग सूर्यदेव में विद्यमान हैं, हम उनको आत्मा के रूप में ‘गायत्री’ के रूप में ध्यान और धारण करते हैं, चाहें तो उनकी कल्पना एक विराट पुरुष के रूप में भी कर सकते हैं, पर निश्चित है कि जिस तरह मनुष्य का एक छोटा-सा ‘अहंभाव’ है, सूर्य का भी वैसा अहंभाव सम्भव है। और जस तरह हम किसी तेजस्वी महात्मा के वरदान द्वारा प्राण प्राप्त कर आरोग्य-लाभ, पुत्र-लाभ, धन-लाभ, बुद्धिलाभ आदि प्राप्त कर सकते हैं, इन प्राण पुरुष गायत्री के तत्व देवता- सविता से और अधिक विश्वासपूर्वक ऐसे आशीर्वाद और स्नेह प्राप्त कर सकते हैं, शर्त इतनी भर है कि यदि हम उनको अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा और निष्ठा से उसी तरह प्रभावित कर सकें, जिस तरह पुत्र अपने पिता को प्रसन्न करके स्नेह के साथ उनकी अन्य भौतिक वस्तुओं का भी अधिकार पा लेता है।

अभी यह रहस्य और विस्तृत होने वाले हैं। अभी वैज्ञानिकों को ध्यान प्रणाली का पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है, जिस दिन इस विद्या की वैज्ञानिक जानकारी देनी सम्भव हो जायेगी, उस दिन उपासना, श्रद्धा और भक्ति आदि रहस्य का भी प्रकट हो जायेगा और सिद्धियों, सामर्थ्यों की बात भी सत्य साबित हो जायेगी।

“चमत्कारिक अनुभूतियाँ’’ नामक पुस्तक में सन्तराम बी. ए. ने अध्यात्म जगत के अनेक चमत्कारों का वर्णन किया है, पहले अध्याय में एक साधु के मानसिक चमत्कारों का वर्णन है, जो रस्सी को फेंकता है और वह ऊपर आकाश तक जाती दिखाई देती है, वह किसी के भी मन की बात जान लेता है, इसमें यह बताने का प्रयत्न किया गया कि एक व्यक्ति के मन में अपने मन की शक्ति को घोलकर उसकी तमाम आन्तरिक बातें तक जानी जा सकती हैं।

सूर्य भगवान का दृश्य और क्रिया क्षेत्र बहुत व्यापक पृथ्वी ही नहीं अनेक ग्रह-नक्षत्रों तक व्याप्त है। मनुष्य की शक्ति उसकी आँखें ऐसी नहीं हैं कि वह उतने व्यापक क्षेत्र को देख सके किन्तु जब वह अपना सम्बन्ध सूर्यदेव के साथ जोड़ लेता है (ध्यान-विज्ञान के द्वारा यह स्थिति काफी दिन में आ पाती हैं) तो वह भी उसी तरह न केवल पृथ्वी की हलचलों और परिवर्तनों का जानकार हो जाता है वरन् उसे ब्रह्मांडों के भी रहस्य ज्ञात होने लगते हैं, यही नहीं वह एक अंश तक उन परिवर्तनों के साथ अपनी सम्मति भी जोड़कर उन्हें कुछ कम या ज्यादा कर सकता है। अर्थात् इस तरह के कोई आध्यात्मिक पुरुष बड़ी-बड़ी दैवी हलचलों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त करते, उन्हें कम या बिल्कुल ही समाप्त भी कर सकते हैं।

हजारों वर्ष पूर्व प्राण विद्या के आचार्यों ने कहा था-

तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्रं दाधार पदैद्वितीय- मक्षरैरतृतीयम्। तां. 10।5।3

तेजो वै गायत्री। गो. उ. 5।3

ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। तां.13।7।12

अर्थात् गायत्री एक प्रकार का तेज है, जो प्रकाश और ऊष्मा के रूप में विश्व का मूल है। सूर्य गायत्री तेज का सबसे बड़ा भण्डार है और विश्व के निर्माण में सबसे बड़ा कारण भी।

किसी प्रकार गायत्री के मनुष्य जीवन में प्रादुर्भाव के स्वरूप को व्यक्त करते हुए शास्त्रकार ने बताया कि “मनः एव सविता’’ अर्थात् मन ही सविता है। तात्पर्य यह है कि जब मन और “सूर्यदेव’’ का तादात्म्य करते हैं (जप और सूर्य तेजमध्यस्था गायत्री का ध्यान करते हैं) तो प्राणायतन होता है अर्थात् सूर्यदेव की भर्गशक्ति मनुष्य के अन्तःकरण में प्रवेश करती है और प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करती है, अर्थात् यदि प्रकृति कहीं दूषित हो रही है (कोई रोग के रूप में ) तो उसे ठीक करती है। इसी का नाम असत् संस्कारों का निष्कासन और सत्संस्कारों का विकास होता है। जब तादात्म्य की स्थिति ऐसी हो जाये कि मन का ध्यान करते हुए मन की अग्नि और सूर्य रूप दोनों एक हो जायें। कोई और विलम की कल्पना हो ही नहीं तो उसे ‘गायत्री सिद्धि’ कहेंगे। तब गायत्री की सम्पूर्ण अनुभूति और शक्ति का स्वामी वह मनुष्य होगा और उन क्षमताओं से प्रकृति में परिवर्तनों की शक्ति से विभूषित होगा, जिनकी ऊपर व्याख्या की गई है।

शास्त्रकार ने जो कहा था कि एक गायत्री मनुष्य है और दूसरी त्रिधा शक्ति सूर्य। दोनों में विलक्षण साम्य है। यह विषय अब विज्ञान भी सिद्ध करने लगा है, इसका थोड़ा-सा अनुमान इन पंक्तियों में होगा। विस्तृत ज्ञान तो तब हो, जब लोग गायत्री तत्व का भी विस्तृत साधन और अवगाहन करें। यह वह विद्या है, जो शरीर बुद्धि और अन्तःकरण तीनों में हस्तक्षेप रखने के कारण शरीर-बल, साँसारिक-बल और आत्म-बल देकर अपने उपासक का भारी हित सम्पादित कर सकती है, करती भी है।


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