अदृश्य लोक के निवासी-हमारे अदृश्य सहायक

November 1968

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आइन्स्टाइन कहते हैं- ‘‘पदार्थ की सूक्ष्मतर सत्ता तक जब मेरी कल्पना और अनुभव शक्ति पहुँच जाती है तो मुझे यह विश्वास-सा होने लगता है कि वहाँ पहले से ही कोई विचार और परिवर्तन करने वाली चेतन सत्ता विद्यमान् है। मैंने तो केवल उसके साथ एकाकार किया है। अब मुझे विश्वास होने लगा है कि यह कोई अदृश्य जगत् की सूक्ष्म किन्तु महान् शक्तिशाली सत्ता है।”

भारतीय वेद-शास्त्रों में यह लक्षण परमात्मा के बताये गये हैं। सृष्टि का संचालन उसकी दिव्य शक्तियाँ करती हैं, ऐसा हमारा विश्वास है। ईश्वर उपासना, मुक्ति के सारे प्रयत्न और क्रिया-कलाप उसी विश्वास पर आधारित हैं। यद्यपि उस अदृश्य शक्ति का कोई प्रत्यक्ष दिग्दर्शन या भौतिक प्रमाण नहीं है, तो भी उस पर विश्वास करने के अनेक प्रमाण हैं।

आध्यात्मिकता का उद्देश्य भी परमात्मा अथवा विश्व की किसी महान् रक्षा करने वाली शक्ति के साथ जोड़ना है। ब्रह्मांड का अस्तित्व और इसका सत्य जिसके अंतर्गत सम्भवतः लाखों विश्व हैं- जिनका कोई अंत नहीं है, हमारी इन्द्रियों और बुद्धि के अनुभव की वस्तु है। ऊपर से देखने पर तो यह पता चलता है कि ब्रह्मांड अव्यस्थित है पर जब सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, हर्शल प्लूटो और अन्य ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो लगता है, सब कुछ व्यवस्था और नियम के अंतर्गत चल रहा है। जिससे स्पष्ट पता चलता है कि सब को जोड़ने वाली एक शक्ति है, जो प्रकृति अथवा बुद्धि का कोई अंश नहीं है वरन् वह नितान्त स्वतन्त्र, निर्लेप, बन्धनमुक्त है।

विज्ञान कहता है कि “एमीनो एसिड प्रोटीन” नामक पदार्थ ने एकाएक अपने पड़ौसी तत्वों को अपनी और आकर्षित करना और पचाना प्रारम्भ कर दिया जिससे जीवन की सृजनात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हुई पर जब यह पूछा गया कि ऐसा क्यों और कब हुआ तो विज्ञान कोई उत्तर न दे पाया।

प्रोटोन, न्यूट्रोन, इलेक्ट्रोन अथवा इनसे भी सूक्ष्म प्रकृति का कोई तत्व जिसके साथ उसे गतिशील करने वाली शक्ति अदृश्य रूप से घुली हुई है, प्रत्येक ब्रह्मांड में दूसरे प्रोटोन के साथ भी सम्बद्ध और एक दूसरे में अंतर्निविष्ट है। इस प्रकार अस्तित्व चाहे वह ईश्वर का हो, प्रकृति अथवा बुद्धि का पूर्णतया अविभाज्य है, इसका प्रत्येक अंश सूक्ष्म है, अदृश्य है और इन्द्रियों की अनुभूति से परे है। यह प्रत्येक दूसरे अंश को प्रभावित कर रहा है और प्रत्येक दूसरे अंश से प्रभावित हो रहा है।

रामायण का यह तात्विक विश्लेषण-

“गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न। वन्दहु सीता राम पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥”

अर्थात्- ब्रह्म और प्रकृति दोनों वाणी और उसके भाव, जल और तरंग की भाँति अविभाज्य हैं, ऐसे परमात्मा को उसकी शक्ति समेत प्रणाम है, उन्हें दुःखी से प्यार है।” उपरोक्त वैज्ञानिक विश्लेषण से मेल खा जाता है।

रह गई बात यह जानने की कि अविभाज्य होकर भी निर्लेप अथवा परम स्वतन्त्र किस प्रकार है, उसकी पुष्टि के लिये उन घटनाओं की ओर चलना चाहिये, जो पदार्थों की शक्ति को भी तुच्छ और अपवाद बनाकर रख देती हैं।

होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि-कुण्ड में कूद गई। उसे आग में न जलने का वरदान था किन्तु वह जल गई और प्रहलाद अग्नि जैसी शक्ति और महान् ऊर्जा वाले पदार्थ से नितान्त अप्रभावित बच गये, यह घटना बताती है कि पदार्थ से भी परे की कोई सत्ता अवश्य है। ऐसी घटनायें इतिहास के प्रामाणिक पृष्ठों पर भी विद्यमान है।

कहने वाले कहेंगे यह पौराणिक गल्प हैं, इन पर कोई विश्वास नहीं किया जा सकता है। आज के विज्ञानवादी युग में ऐसा पूछा जाना स्वाभाविक है। पर ईश्वरीय सत्ता को तो काल की सीमा भी नहीं बाँध सकती। इसका एक सुन्दर उदाहरण श्री सी. डब्लू लेडी बीटर ने अपनी पुस्तक “अनविजिबिल हेल्पर्स” में इस प्रकार दिया है-

“एक बार लन्दन की हालबर्न सड़क में भयंकर आग लग गई है। उसमें दो मकान जलकर राख हो गये। उस घर में एक बुढ़िया को जो धुयें के कारण दम घुट जाने से पहले ही मर गई थी छोड़कर शेष सब को बचा लिया गया। आग इतनी भयंकर लगी थी कोई भी सामान नहीं निकाला जा सका।”

“जिस समय दोनों मकान लगभग पूरे जल चुके थे, तब धर की मालकिन को याद आया कि उसकी एक मित्र अपने बच्चे को एक रात के लिये उसके पास छोड़कर किसी कार्यवश कालचेस्टर चली गई थी। वह बच्चा अटारी पर सुलाया गया था और वह स्थान इस समय पूरी तरह आग की लपटों से घिरा हुआ था, आग की गर्मी से उस समय पत्थर भी मोम की तरह पिघलकर टपक रहे थे।”

“ऐसी स्थिति में बच्चे के जीवन की आशा करना ही व्यर्थ था फिर उसकी खोज करने कौन जाता है। पर एक आग बुझाने वाले ने साहस साधा, उपकरण बाँधे और उस कमरे में जा पहुँचा, जहाँ बच्चा लिटाया गया था। अस समय तक फर्श का बहुत भाग जल कर गिर गया था किन्तु आग कमरे में गोलाई खाकर अस्वाभाविक और समझ में न आने वाले ढंग से खिड़की की तरफ निकल गई थी। उस गोल सुरक्षित स्थान में बच्चा ऐसे लेटा था, जैसे कोई अपनी माँ की गोद में लेटा हो। बाहर का दृश्य देखकर वह भयभीत अवश्य था पर उसकी तरफ एक भी आग की चिनगारी बढ़ने का साहस न कर रही थी। जिस कोने पर बच्चा सोया था, वह बिल्कुल बच गया था। जिस पटिये पर खाट थी, वह आधे-आधे जल गये थे पर चारपाई के आस पास कोई आग न थी वरन् एक प्रकार का दिव्य तेज वहाँ भर रहा था। जब तक आग बुझाने वाले ने बच्चे को सकुशल उठा नहीं लिया, वह प्रकाश अपनी दिव्य प्रभा बिखराता रहा पर जैसे ही वह बच्चे को लेकर पीछे मुड़ा कि आग वहाँ भी फैल गई और दिव्य तेज अदृश्य हो गया।”

बंकिंघम शायर में बर्नहालबीयो के निकट हुई एक घटना में इस तरह का दैवी हस्तक्षेप लगभग एक घंटे तक दृश्यमान रहा। एक किसान अपने खेत पर काम कर रहा था। उसके दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे, जो पेड़ के नीचे छाया में खेल रहे थे। किसान को ध्यान रहा नहीं दोनों बालक खेलते-खेलते जंगल में दूर तक चले गये और रात्रि के अंधेरे में भटक गये।

इधर किसान जब घर पहुँचा और वहाँ बच्चे न दिखाई दिये तो चारों तरफ खोज हुई। परिवार और पड़ौस के अनेक लोग उस खेत के पास गये, जहाँ से बच्चे खोये थे। वहाँ जाकर सब देखते हैं कि दीप-शिखा के आकार का एक अत्यंत दिव्य नीला प्रकाश बिना किसी माध्यम के जल रहा है, फिर वह प्रकाश सड़क की और बढ़ा यह लोग उसके पीछे अनुसरण करते चले गये। प्रकाश मन्दगति से चलता हुआ, उस जंगल में प्रविष्ट हुआ जहाँ एक वृक्ष के नीचे दोनों बच्चे सकुशल सोये हुये थे। माँ-बाप ने जैसे ही बच्चों को गोदी से उठाया कि प्रकाश अदृश्य हो गया।

26 जून सन् 1954 के देहली से निकलने वाले दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में छपी एक घटना इस प्रकार है- “जबलपुर भक्त प्रहलाद के काल में घटी उस घटना की पुनरावृत्ति इस कलियुग में हुई, जिसमें कुम्हार के जलते हुये भट्टे में ईश्वर ने बिल्ली और उसके बच्चों की रक्षा की थी। अंतर केवल यह था कि वे बिल्ली के बच्चे थे और इस बार चिड़िया के अण्डे। पन्ना जिले के धर्मपुर स्थान में कच्ची ईंटों को पकाने के लिये एक बड़ा भट्टा लगाया गया। भट्टे को जिस समय बन्द किया गया और आग लगाई गई, किसी को पता नहीं चला कि ईंटों के बीच एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसमें अपने अण्डे सेये हैं। एक सप्ताह तक भट्टा जलता रहा और ईंटें आँच में पकती रहीं, आठवें दिन जैसे ही भट्टा खोला गया एक चिड़िया उड़कर बाहर निकल भागी। बाद में पाया कि उस स्थान पर जहाँ घोंसला था, आग पहुंची ही नहीं। वहाँ की ईंटें कच्ची थीं। यह घटना देखकर वहाँ के प्रत्यक्ष-दर्शियों को विश्वास करना पड़ा कि ईश्वर का अस्तित्व है।”

अथर्ववेद में ईश्वर उपासना के लाभों का वर्णन करते हुए बताया है कि परमात्मा अपने उपासक की स्वयं रक्षा करता है, उसकी कृपा वर्षा क जल की तरह आवाज करती है। ऋग्वेद में भगवान् को वीर कहा गया है, वे भक्तों पर तुरन्त कृपा करने वाले और कर्मठ हैं, क्योंकि सोम याग में पाषाण हाथ में लेकर अध्वर्य आदि के रूप में सोम निष्पीड़ित करते हैं। यही देवताओं की रचना करने की कामना किया करते हैं।

“नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद्” की एक आख्यायिका में देवता ब्रह्म जी से पूछते हैं- “हे प्रजापति! भगवान् को नृसिंह क्यो कहते हैं?” ब्रह्म जी बोले- सब प्राणियों में मानव का पराक्रम प्रसिद्ध है, सिंह भी उसी प्रकार बड़ा पराक्रमी होता है। नर और सिंह दोनों से संयुक्त रूप से पराक्रम और प्रबल हो उठता है, इसीलिये भगवान ने यह रूप धारण किया है, वे अपने इस रूप से भक्त की रक्षा और विश्व का कल्याण करते हैं।”

प्रकाश और दृश्य रूप में निर्बलों और दुःख पीड़ितों की सहायता करने वाले भगवान् की वह शक्ति ही नृसिंह कहलाती है। नृसिंह कोई साकार देवता नहीं। नामकरण एक अलंकार मात्र है। पर उनका रूप बड़ा प्रभावशाली है, वह किसी भी पूर्णग्रह में बंधे बिना अपने भक्त की सच्चे सज्जन और साधु व्यक्ति की सहायता करते रहते हैं। यह उनका न्याय है, भगवान् का उपासक कभी किसी का अहित नहीं करता, किसी के अनिष्ट, राग-द्वेष, ईर्ष्या, मद, मत्सर, पाखण्ड, छल-कपट की बात भी मन में नहीं लाता, अपने को सबसे छोटा मानता है, इसलिये भगवान् ऐसे दीन-जनों की सदैव रक्षा करते हैं।

लोरेंको मार्क्वोस (मोजाम्बिक) की एक घटना है कि पंगु अफ्रीकी जिसे लकवा मार गया था और पैर मुड़ जाने के कारण घिसटकर चलता था, बपूतिस्मा (दीक्षा का एक विशेष त्यौहार) पर एकाएक खड़ा हो गया और अच्छी प्रकार चलने फिरने लगा। यह समाचार ए. एफ. पी. ने दिया। समाचार में बताया है कि अर्नेस्टो टिटोस मुल्होब’ नामक उक्त अफ्रीकी यहाँ के लोगों और पर्यटकों से खूब परिचित है, वह जब प्रोटेस्ट चर्च की और बढ़ा तो उसके हृदय से अचानक ईश्वर भक्ति का उद्गार फूट पड़ा। कोई अलौकिक प्राण-शक्ति भर रही है। वह उठकर खड़ा हो गया, लोग देखकर विस्मित रह गये कि कल तक जिसे डाक्टर भी ठीक न कर सके वह अपने आप कितना स्वस्थ और चंगा हो गया है।

वेल्स की मुख्य सड़क से 22 वर्षीया युवती पैपिटा हैरिसन अपने पिता के जन्म-दिवस समारोह में भाग लेने लन्दन जा रही थी। अचानक कार एक बर्फ की चट्टान से टकरा गई, फिर एक दीवार तोड़कर एक खेत में घुस गई। दुर्भाग्य से खेत ढलान पर था, कार वहाँ से लुढ़की और 80 फुट नीचे नदी में जा गिरी। दुर्भाग्य ने वहाँ भी पीछा न छोड़ा, नदी में पास ही 20 फुट गहरा जल प्रपात था कार उसमें जा गिरी, इस बीच वह डूबने से बचने के लिये प्रयत्न करने लगी तो ऐसा जान पड़ा किसी ने हाथ पकड़ कर ऊपर उठा लिया हो। वह बाहर निकल आई।

ऐसे हजारों उदाहरण आये दिन आंखों से गुजरा करते हैं, जब ईश्वरीय शक्ति के अस्तित्व का बोध हो जाता है, हम भले ही स्वीकार न करें पर विचारशील लोग आइन्स्टाइन की तरह ही अदृश्य होने पर भी उस सत्ता के प्रति श्रद्धा रखते हैं। गाँधी जी ने लिखा है- ‘‘ईश्वर प्रार्थना ने सदैव मेरी रक्षा की। मेरे जीवन में परमात्मा का विश्वास न होता तो मैं पागल हो गया होता। ईश्वर में मेरा विश्वास ज्यों-ज्यों बढ़ता गया प्रार्थना के लिये मेरी व्याकुलता भी उतनी ही दुर्दमनीय होती गई। ईश्वर उपासना के बिना मुझे जीवन नीरस और शून्य प्रतीत होने लगता है।”

आध्यात्मिकता का प्रथम चरण आस्तिकता है। उसके बिना विज्ञान और टेक्नोलॉजी दोनों स्वार्थ भौतिक पदार्थों से संग्रह और अधिकार भावना के प्रदर्शन में जो बाधायें आती हैं, उन्हीं के निवाश में लग जाते हैं, इस स्थिति में मनुष्य घोर अहंकारी, दुष्ट-दुराचारी जो जाता है। आज की अनैतिकता, दुर्वासनायें और भ्रष्टाचार उसी का परिणाम है। इन कारणों से समाज कितना संघर्षग्रस्त और अशाँत है, यह कोई कहने की बात नहीं। यदि आध्यात्मिकता अर्थात् आस्तिकता द्वारा विज्ञान और टेक्नोलॉजी का नियंत्रण हो जाय तो यह दोनों ही वस्तुयें जीवन की शुभ्र-शक्तियों और श्रेष्ठता का साधन बन जायें।


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