अपनों से अपनी बात-

November 1968

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हम अपना स्वरूप समझें और कर्तव्य सम्भालें

अखण्ड-ज्योति परिवार के हर सदस्य को अपना स्वरूप और स्थान जानना चाहिये और तदनुसार अपनी विचार शैली एवं कार्य पद्धति का निर्माण करना चाहिये।

जिन घड़ियों में हम लोग जीवन-यापन कर रहे हैं, वे इतिहास की असाधारण घड़ियां हैं। इन दिनों एक ऐसे नये युग के सृजन का सूत्रपात हो रहा है- जो मानव समाज को सामूहिक आत्म-हत्या करने से बचाकर चिर-स्थायी सुख-शांति की सम्भावनायें उत्पन्न कर सकेगा और इस धरती पर स्वर्गीय वातावरण का निर्माण हो सकेगा।

प्रसव पीड़ा के समान यह घड़ियां बड़े उद्वेग तथा आवेश से भरी हुई भी है। इन्हीं दिनों अनाचार अपने पूरे जोर पर है। जिस तरह बुझता हुआ दीपक पूरे जोर से जलता है- प्रभात उगने से पूर्व की घड़ियों में रात भर में सबसे अधिक घना अँधेरा होता है- मरते समय लम्बी हिचकी आती है, उसी तरह दुर्बुद्धि और दुष्कर्मों का दौर भी अपने अन्तिम चरण पर इन्हीं दिनों है। अतएव साज-सम्भाल की आवश्यकता भी सबसे अधिक इन्हीं घड़ियों में है। महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों से भरे क्षणों में पूरी सतर्कता रखनी पड़ती है। ऐसे समय की चूक का प्रतिफल चिर-कालीन पश्चाताप के रूप में भुगतना पड़ता है। ऐसे ऐतिहासिक अवसर हजारों वर्षों बाद कभी-कभी ही आते हैं। जो उनका ठीक उपयोग कर लेता है, वह अपना जीवन धन्य बनाता है और संसार की महती सेवा, सहृदयता करने का पुण्य-लाभ करते हुए यशस्वी बनाता है।

वर्तमानकाल की विषम विभीषिकायें ऐसी हैं कि यदि उनसे सतर्क न राह जाय, उनका प्रतिरोध न किया जाय तो ऐसे दुष्परिणाम हो सकते हैं, जिनके कारण मानव-सभ्यता एवं अस्तित्व खतरे में पड़ सकते हैं।

आधुनिक भौतिकवादी विज्ञान ने मानवीय उत्कृष्टता की आस्थाओं पर करारी चोट की है। नव-विकसित बुद्धिवाद ने नैतिक मान्यताओं की जड़े हिलादीं हैं। “मनुष्य को बोलने-सोचने की विशेषताओं से युक्त एक ऐसा नाशवान जड़पदार्थ मात्र प्रतिपादित किया गया है, जिसकी न आत्मा है न हस्ती। और जिसे न कर्मफल भोगना है और न ईश्वर को उत्तर देना है। वह स्वच्छन्द आचरण करने में स्वतन्त्र है। यदि राज-दण्ड से बचा जा सके तो फिर और किसी प्रकार का दण्ड किसी को अपने दुष्कर्मों का भुगतान नहीं है, स्वच्छंद कामुकता को रोकने से शारीरिक मानसिक हानि होती है। मनुष्य स्वभावतः पाशविक वृत्तियों से बना है, उसे प्रकृति की प्रेरणा के आधार पर स्वच्छंद आचरण करने चाहिये। सामाजिक एवं धार्मिक मान्यतायें व्यक्ति के लिये बन्धन मात्र हैं। उन्हें तोड़कर स्वच्छंद जीवन बिताना चाहिये।” यह प्रतिपादन हैं, भौतिकवादी तत्वज्ञान के। लोग इन्हीं आस्थाओं को तेजी से अपना रहे हैं फलस्वरूप पशुता की प्रबलता होती जा रही है, मानव आचरणों में जिस कदर अनैतिकता और छलछद्म का समावेश होता जा रहा है और उसकी प्रतिक्रिया बढ़ते हुए अपराधों, क्लेश, कलहों और शोक-संतापों के रूप में सब ओर दिख रहे हैं। व्यक्ति और समाज में बढ़ती हुई उद्विग्नता, रुग्णता, निराशा, वेदना एवं व्यथा इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण बनी हुई है।

विज्ञान के आविष्कार हमें अन्ध, अपंग बनाये दे रहे हैं। मशीनों पर हम इतने निर्भर होते चले जा रहे हैं कि एक दिन के लिये यदि बिजली उत्पादन की व्यवस्था नष्ट हो जाय तो बड़े शहर की आधी जनता भूख-प्यास और गन्दगी से पीड़ित होकर मर जायेगी। वाहनों की निर्भरता ने पैरों को अपंग कर दिया। मनुष्य जीवन अब स्वयं एक मशीनी प्रक्रिया बनता जा रहा है। संहारक आविष्कारों ने- मृत्युकिरण, अणुशक्ति, उद्जन बम, राकेट, विष-वायु आदि अगणित ऐसे साधन मनुष्य के हाथ में दे दिये हैं, जिनके द्वारा एक पागल आदमी इस धरती के तथा इसके समस्त निर्माणों को क्षण भर में भस्मसात् कर सकता है। युद्धों की चिनगारियाँ हर महाद्वीप में उड़ रही हैं, सर्वत्र बिछी हुई बारूद कभी भी ऐसा विस्फोट कर है, जिसका प्रतिफल सामूहिक आत्म-हत्या एवं समग्र सर्वनाश के रूप में देखा जा सके।

नई भौतिकवादी सभ्यता ने बुद्धिवाद एवं विज्ञान के आधार पर यों अनेक सुख-सुविधायें हमें प्रदान की हैं, पर इन दो विभीषिकाओं द्वारा दिया हुआ उसका अभिशाप भी कम नहीं है। इससे मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी है। इस युग के इन दो महासंकटों का सामना उन लोगों के लिये ही सम्भव है, जिनके पास बुद्धि और विज्ञान दोनों की तुलना में अधिक सामर्थ्य, महाबल, अध्यात्म मौजूद है। अखण्ड-ज्योति परिवार थोड़ी-थोड़ी आत्म-बल, सम्पन्न, प्रबुद्ध, सजग एवं संस्कारवान आत्माओं का संगठन है। छोटे-छोटे बिन्दु-कण मिलकर एक बड़ा जलाशय बन जाता है। छोटे-छोटे सिक्के बड़ी संख्या में एकत्रित हो जाँय तो विपुल धन-राशि के रूप में परिणत हो सकते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार के सुसंस्कारों, परिजनों की संगठित शक्ति एक महान सामर्थ्य-सत्ता बन गई है। प्राचीनकाल में ऋषियों के बूंद-बूंद एकत्रित रक्त घट द्वारा रावण-राज्य समाप्त करने वाली सीता का जन्म और देवताओं की एकत्रित थोड़ी-थोड़ी शक्ति द्वारा विनिर्मित असुर निकन्दिनी महाकाली का अवतरण यही बताता है कि दैवी तत्व के छुट-पुट बिखरे अंश मिलकर एक बड़ी सत्ता रूप धारण कर सकते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार एक ऐसा ही प्रयास है। बड़े प्रयत्नपूर्वक इस माला में हमने ढूँढ़-ढूँढ़कर मूल्यवान रत्नों को इकट्ठा किया और पिरोया है। इस सर्व-शक्ति द्वारा बुद्धि और विज्ञान के दुरुपयोग द्वारा उत्पन्न विकृतियों का सामना करने के लिये एक मजबूत मोर्चा लगाया जा सकता था, सो लगाया भी गया है।

दूसरा बड़ा काम अखण्ड-ज्योति परिवार की संगठित शक्ति के द्वारा विश्व के नव-निर्माण की संभावनाओं को मूर्तिमान स्वरूप प्रदान करना है। अगला समय मंगलमयी सम्भावनायें लेकर अवतरित होने जा रहा है। उसमें एक विश्व, एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति, एक नीति, एक परम्परा, एक अर्थतन्त्र एवं सर्वांगीण एकता के आधार पर व्यक्ति का मन-स्तर और समाज का ढाँचा नये सिरे से खड़ा किया जायेगा। आज की सड़ी-गली संकीर्णतायें अपनी अनुपयोगिता के कारण अपनी मौत मर जायेंगी। जिस वैयक्तिक अनाचार और सामाजिक भ्रष्टाचार का सर्वत्र बोल-बाला है, कल उनके लिये कोई आधार शेष न रह जायेगा।

मनुष्य और मनुष्य के बीच असमानता के जितने भी आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं बौद्धिक कारण हैं, उनकी जड़ें कट जायेंगी और परिस्थितियाँ ऐसी बन जायेंगी, जिसमें किसी को अन्याय की शिकायत न करनी पड़े। तब अपराध करने, परस्पर टकराने और असामाजिक बनने की कोई गुंजाइश न रहेगी। जो मर्यादायें तोड़ेगा, वह संघशक्ति द्वारा इस तरह कुचल दिया जायेगा कि उसका अस्तित्व ही दुबारा दृष्टिगोचर नहीं हो सकेगा।

यह स्वप्न नहीं एक सुनिश्चित सचाई है। आगामी कल बहुत ही शानदार, सुनहरा और स्वर्गीय सुख-शांति से भरा-पूरा आ रहा है, उसे पाकर मानवता धन्य हो उठेगी।

पर यह महान परिवर्तन अनायास ही न हो जायेगा। इसके लिये समुद्र-मंथन जैसा, देवासुर संग्राम जैसा, गंगावतरण जैसा, लंका विजय जैसा, महाभारत जैसा, गोवर्धन उठाने जैसा- महान प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करना होगा। सृष्टि के महान परिवर्तन अनायास ही नहीं हो जाते। उनकी एक अति विस्तृत भूमिका होती है। और उस भूमिका का अपना अमर इतिहास होता है, जिसकी चर्चा कहते-सुनते रहकर लोग युग−युग तक आदर्शवादिता की दिशा में बढ़ते चलने का प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं। अगली घड़िया ऐसी ही आने वाली हैं, जिनमें प्रबुद्ध, सजग एवं सुसंस्कारी आत्माओं को महत्वपूर्ण भूमिकायें प्रस्तुत करनी होंगी। लेखनी, वाणी मात्र से नहीं, अपने उज्ज्वल चरित्र एवं त्याग, बलिदान द्वारा ऊँची आत्मायें ऐसा वातावरण प्रस्तुत करेंगी, जिससे प्रभावित होकर सामान्य स्तर के लोग भी कुछ करने का प्रोत्साहन प्राप्त कर सकें और इस नव-निर्माण की विशाल सेना में सम्मिलित कर उस महान प्रक्रिया को सरल बनाने में योगदान दे सकें।

अखण्ड-ज्योति परिवार का संगठन हमारे आजीवन प्रयत्न का फल है। सूक्ष्म दृष्टि से ढूँढ़-ढूँढ़कर हमने देश भर में से संस्कारवान् जागृत आत्माओं को प्रयत्नपूर्वक एकत्रित किया है। इसमें बहुत समय लगा है और बहुत श्रम। परिवार के अधिकांश सदस्य पूर्वजन्मों की भारी आध्यात्मिक सम्पदा से सम्पन्न हैं। उनका वर्तमान स्वरूप सामान्य भले ही दिखता हो पर उनके अंतरंग में वे तत्व विद्यमान हैं कि थोड़े से प्रयत्न से उन्हें जगाया, बढ़ाया और समुन्नत स्थिति तक पहुँचाया जा सकता है। वाल्मीकि, अजामिल, अंगुलिमाल, सूरदास, तुलसीदास जैसे हेय जीवन बिताने वाले थोड़ा-सा अवसर मिलने पर देखते-देखते उच्च भूमिका में इसलिये जागृत हो उठे थे, कि उनके पास पूर्वजन्मों की संचित सम्पत्ति बहुत थी। फिर जिनके हेय जीवन नहीं है- केवल मूर्छित मात्र है, उन्हें सजग और समुन्नत बनाया जा सकना कुछ अधिक कठिन नहीं है।

जिस दिन व्यक्ति की अन्तःभूमिका यह स्वीकार करले कि- मानव जीवन का उद्देश्य पेट पालने और बच्चे उगाने से कुछ आगे बढ़कर भी है- यह अलभ्य अवसर किन्हीं महान प्रयोजन के लिये भगवान ने दिया है- और थोड़ा दुस्साहस कर अपने स्वतन्त्र विवेक का सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति अपनी विचारणा और प्रक्रिया को बदलने में वैसा ही समर्थ हो सकता है, जैसे कि ऐतिहासिक महापुरुष समर्थ हुए हैं। इतनी-सी बात यदि गले उतर जाय तो आज बिल्कुल ही गया-गुजरा दीखने वाला व्यक्ति कल अपनी रीति-नीति में आमूल-चूल परिवर्तन कर सकता है और जमीन पर रेंगने वाला, आकाश में उड़ने लग सकता है। संस्कारवान व्यक्तियों के लिये यह आत्म-परिवर्तन अति सरल होता है, कोई छोटी-सी चोट उनकी दिशा में आश्चर्यजनक मोड़ प्रस्तुत कर सकता है।

हमें विश्वास है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के अधिकांश सदस्यों में ऐसा मोड़ आकर रहेगा। उन्हें सामान्य से असामान्य बनने का अवसर मिलेगा। जानवरों की तरह निरुद्देश्य जीवन काट डालना किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के लिये लज्जा एवं कलंक भरी बात है। जागृत व्यक्ति ऐसा जीवन नहीं जी सकता। वे प्रकाश पाने और प्रकाश देने के लिये अवतरित होते हैं। उनकी आत्मा निरन्तर उसके लिये नोंचती, खोंसती, पुकारती और दबाती रहती है। आखिर वे कब तक उस ईश्वरीय वाणी की- आत्मिक पुकार की अवहेलना कर सकते हैं। उन्हें एक दिन सजग होना पड़ता है और अज्ञान एवं दारिद्रय भरी परिस्थिति को साँप की केंचुली की तरह उतार फेंकना पड़ता है।

शरीर निर्वाह के साधन, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों को भी उपलब्ध हैं, फिर मनुष्य को उनके लिये आशंका एवं चिंता क्यों करनी चाहिये? यह अनिवार्य निर्वाह साधन महंगे वाले न सही, सस्ते वाले सही, हरएक को निश्चित रूप से मिलते हैं। फिर निकृष्ट जीवन किसलिये जिया जाय? माया, मोह से ग्रसित घृणित रीति-नीति को अपनाकर अनन्त पश्चाताप का भागी क्यों बना जाय?

उपरोक्त स्तर की विचारणा जिसके भी अंतरंग में उठेगी उसे अपना जीवन क्रम उत्कृष्ट आदर्शों पर आधारित बनाने के लिये तत्परता प्रकट करनी पड़ेगी। अपने परिवार को अब इसी स्थिति में होकर गुजरना है। स्पष्टतः अखण्ड-ज्योती कोई अखबार या मनोरंजन सामग्री नहीं जिसे वक्त काटने या मन बहलाने के लिये कोई मँगाता पढ़ता हो। किसी दूसरी मासिक पत्रिका से उसकी तुलना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि अखबारों का जो ढर्रा और ढाँचा होता है, वह इसका है ही नहीं। हम अपनी अन्तःप्रेरणा और आन्तरिक पुकार उन परिजनों तक पहुँचाने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, जिनके साथ हमारा अनेक जन्मों से घनिष्ठ सम्बन्ध, संपर्क रहा है, और अब जिन्हें इस समय की महान जिम्मेदारी उठाने के लिये अवतरण लेना पड़ा है।

इन्हें शिश्नोदर परायण पेट और प्रजनन के जाल-जंजाल तक सीमित नहीं रहने दिया जा सकता, इन प्रबुद्ध आत्माओं को जगाया ही जाना था, ताकि वे इस महत्वपूर्ण पर्व पर अपने आध्यात्मिक कर्त्तव्य को ठीक तरह पूरा करने के लिये तत्पर हों, जागरण वेला की प्रभात-कालीन शंख ध्वनि का नाम अखण्ड-ज्योति है। उसका हर एक अंक अपने पाठकों के लिये एक प्रेरणा, प्रकाश एवं उद्बोधन लेकर पहुँचता है। जिनकी जान निकल गई- जो अपना वर्चस्व खो बैठे- उनकी बात जाने दीजिये अन्यथा अधिकांश परिजन भावनापूर्वक इस प्रकाश को ग्रहण करते हैं और उनींदी आँखें मलने और खुमारी उतारने का प्रयत्न भी करते हैं। जो जग पड़े और शैया त्याग कर कर्म क्षेत्र में आ गये, वे एक से एक बढ़कर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता से भरे क्रिया-कलापों का परिचय दे रहे हैं।

अब शिथिलता, उपेक्षा, आलस्य और अवसाद का दौर समाप्त कर देना चाहिये। जिन्हें जगना है, उन्हें जग ही जाना चाहिये। जिन्हें आत्म विस्मरण ने आ घेरा है, उन्हें अपना स्वरूप, लक्ष्य एवं कर्त्तव्य समझने के लिये अपने को झकझोरना चाहिये और दर्पण में देखना चाहिये कि आखिर हम हैं क्या? और आये किसलिये? इन प्रश्नों का उत्तर वह मनोभूमि एवं परिस्थिति नहीं ही हो सकती, जिसमें पड़े रहकर इन दिनों समय गुजारा जा रहा है। यह मोहभ्रांत-अज्ञानांधकार में भटकता हुआ जीवन क्रम भी कोई हर्षोल्लास भरा थोड़े ही है, जिसके आकर्षण से इसी स्थिति को बनाये रहा जाय। उत्कृष्टता और जागृति से भरे जीवन में मोह-जंजाल की भ्राँत माया का विस्तार भले ही न हो पर उनमें अपेक्षाकृत अधिक सुविधा है और अधिक शांति, अधिक संतोष है और अधिक उल्लास। फिर अपने को बदल डालने में जिस साहस और विवेक की कमी है, उसे एकत्रित करके एक प्रभावी परिवर्तन क्यों न किया जाय?

अपना भावनात्मक परिवर्तन लक्ष्य, उत्तरदायित्व और कर्तव्य का स्मरण दिलायेगा और कुछ ऐसा करने की प्रेरणा देगा जो अब तक नहीं किया गया है। इस परिवर्तन की वेला आ पहुँची। युग परिवर्तन का महान प्रयोजन प्रबुद्ध आत्माओं के आत्म-परिवर्तन से आरम्भ होगा। हम बदलेंगे तो जमाना बदलेगा। प्रकाश अपने भीतर पैदा होगा और फिर वह सर्वत्र फैल जायेगा। अज्ञानान्धकार की विभीषिका इसी क्रम से समाप्त होगी।

जिस मशाल को हम पिछले 45 वर्ष से जला रहे हैं, अब उसे दूसरे उत्तरदायी- उत्तराधिकारियों के हाथ में सौंपना होगा। इसलिये उनका आह्वान किया जा रहा है, जिनमें जीवन है। उन्हें जानना चाहिये कि यह सामान्य समय नहीं है- इसमें प्रबुद्ध आत्माओं को सामान्य स्तर का जीवन नहीं जीना है। कुछ अतिरिक्त कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व उनके कन्धे पर हैं, जिनकी यदि उपेक्षा की जाती रही तो आत्म-प्रताड़ना की इतनी बड़ी वेदना उनके अंतरंग में उठती रहेगी कि वह आत्म-ग्लानि का कष्ट शारीरिक विषम वेदनाओं से भी अधिक भारी पड़ेगा और उसे सहन करना कठिन हो जायेगा। धन, स्वास्थ्य, यश, पद आदि की क्षति आसानी से पूरी हो सकती है पर कर्त्तव्य की उपेक्षा करते हुए, जीवन का अमूल्य अवसर गँवा बैठने पर- जब समय निकल जाता है, तब अपनी चूक पर ऐसा पश्चाताप होता है, जिसकी व्यथा सहन कर सकना कठिन हो जाता है।

अपने परिवार में किसी को वेदना सहन नहीं करनी पड़े यही उत्तम है। हम जागृत, संस्कारों और विशेष लक्ष्य के लिये भेजे हुए- अवतरित हुए- नये युग के अग्रदूत हैं। हमें अपना स्वरूप समझना चाहिये, मार्ग समझना चाहिये और समय रहते वह करना चाहिये, जो करना उचित और आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।

इस संध्या बेला में हमें आलस्य और प्रमाद में अपनी चेतना को मूर्छित नहीं पड़े रहने देना चाहिये। शरीर, परिवार, अर्थ-उपार्जन आदि के उत्तरदायित्वों का निर्वाह जिस प्रकार करते हैं- उनके लिये जिस प्रकार सोचते और करते हैं, उसी प्रकार हमें अपने चिरस्थायी और सामयिक आध्यात्मिक कर्त्तव्यों की पूर्ति के लिये भी कुछ करते और सोचते रहना चाहिये। उस ओर से सर्वथा मुख मोड़ लेना, नितान्त उपेक्षा बरतना उचित नहीं। जिस प्रकार तीन बच्चे होने के बाद चौथा बच्चा और उत्पन्न हो जाय तो उसके लिये पिछले तीन बच्चो की तरह ही चिन्ता, देख-भाल एवं भाग-दौड़ करनी पड़ती है। उसी तरह हमें अपने शारीरिक, साँसारिक कर्त्तव्यों की तरह ही आध्यात्मिक कर्त्तव्यों के लिये सजग रहना चाहिये। उनके भी समक्ष, श्रम, मनोयोग, धन आदि का एक उचित अंश निकालना चाहिये। अन्यथा साँसारिक कर्त्तव्य न करने की तुलना में- इन आत्मिक जिम्मेदारियों की उपेक्षा और भी अधिक कष्टकर एवं हानिप्रद सिद्ध होगी।

अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों को युग-निर्माण की पुण्य प्रक्रिया में अग्रिम मोर्चा सम्भालना है। उन्हें अपने को- अपने साथी सहचरों को सजग, तत्पर, संगठित एवं विस्तृत करना है। कल तक हम निरुत्साहित थे, आज हमें उत्साहित, स्फूर्तिवान और और प्रयत्नशील बनना है। सबसे पहला काम अपने को, अपने परिवार को, संगठित, सक्रिय एवं विस्तृत बनाना है। यों हम समय-समय पर उद्बोधन करते रहे हैं, पर अब उतने से ही काम न चलेगा।

हर प्रबुद्ध परिजन को अपने दूसरे साथियों में उल्लास और उत्साह पैदा करना है। इसलिये जहाँ जितने अखण्ड-ज्योति परिजन हैं, वहाँ उन्हें परस्पर, संपर्क, सहयोग एवं घनिष्ठ भाव पैदा करना चाहिये। ताकि एक मजबूत श्रृंखला में आबद्ध होकर एक दूसरे से प्रेरणा प्राप्त करने की प्रक्रिया ठीक तरह चलने लगे। अपने में से एक को भी बिछुड़ने नहीं देना चाहिये वरन् प्रयत्न यह करना चाहिये कि विशालता की अभिवृद्धि हो और संख्या की दृष्टि से हम अब की अपेक्षा दूने चौगुने हो जायें। बड़ी सेना अपनी उत्कृष्टता एवं विशालता के आधार पर बड़े मोर्चे फतह करती है। अपना मोर्चा बहुत बड़ा है। अति व्यापक है। समस्त संसार अपना कार्य-क्षेत्र है। जीवन की हर दिशा को प्रकाश देना और संसार की हर समस्या को सुलझाना है। इसलिये शक्ति में वृद्धि भी आवश्यक है। कहना न होगा कि संघ शक्ति इस युग की सबसे बड़ी शक्ति है। हम जितने हैं, उतने पर ही सीमित एवं संतुष्ट नहीं रह सकते हैं। मोर्चे को विशालता को देखते हुए परिवार का विस्तार होना भी अपेक्षित है।

इन दिनों हमारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित होना चाहिये कि अपने परिवार को विशाल एवं सुदृढ़ बनायें। लोक-मंगल के विशाल कार्यक्रमों की श्रृंखला में यह पहली कड़ी है। यह पहला कदम आज ही उठाया और आज ही आगे बढ़ाया जाना चाहिये। नव-निर्माण के मिशन का समारम्भ, शुभारम्भ, संचालन एवं अभिवर्धन का मूल तन्त्र ‘अखण्ड ज्योति’ और ‘युग निर्माण’ पत्रिकायें हैं। उन्हीं के माध्यम से इतने विशाल परिमाण में प्रबुद्ध परिजनो का एक अति प्रभावी और अति समर्थ संगठन उत्पन्न हो सका है और इन्हीं की प्रेरणा से शतसूची कार्यक्रमों को अपनाकर हजारों, लाखों कर्मवीर नव-निर्माण की पुण्य प्रक्रिया में प्रवृत्त हुए हैं। अब अपना क्षेत्र बढ़ाना है, तो इन दोनों पत्रिकाओं को अधिक समर्थ एवं व्यापक बनाना होगा। इसके बिना हमारी सारी प्रगति रुकी रह जायगी और जो करना है, उसको सफलतापूर्वक कर सकना कठिन हो जायेगा।

कर्त्तव्य पालन के प्रथम चरण में हमें अपना परिवार संगठित, मजबूत एवं विस्तृत बनाना है। इसके लिये पत्रिकाओं का कार्य-क्षेत्र बढ़ाना चाहिये। कलेवर उनके बढ़ा दिए गये हैं। मूल्य भी उनका बढ़ाना पड़ा है। अधिक गोला बारूद से अधिक कार्य हो सकना निश्चित है। पर आवश्यकता इस बात की भी है कि वर्तमान सदस्य बने रहें, इतना ही काफी नहीं उन्हें बढ़ाया जाना भी आवश्यक है। अगले तीन महीनों में हमें इतना लक्ष्य तो बना ही लेना चाहिये कि हर परिजन दो नये साथी बढ़ा देगा और नव-निर्माण का कार्य-क्षेत्र दूना व्यापक बनाने में शक्ति भर प्रयत्न करेगा।

यह कार्य अति सरल है। थोड़ा उत्साह और थोड़ा प्रयत्न इस सरलता को सफलता में तुरन्त परिणत कर सकता है। हमें यह करना ही होगा। इस वर्ष अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाओं के सदस्य दूने कर लेने हैं ताकि उसी अनुपात से नव-निर्माण का-युग परिवर्तन का कार्य सरलता और सफलतापूर्वक अग्रसर किया जा सके।


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