‘उपयोगितावाद’ हमें हिप्पी बनाकर छोड़ेगा

November 1968

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आज का पाश्चात्य जगत् जान स्टुअर्ट मिल के “उपयोगितावाद सिद्धान्त” पर चल रहा है। उपयोगितावाद केवल ऐन्द्रिक सुख को प्रधानता देता है और कहता है कि यही सुख प्रत्यक्ष और तर्क-संगत है, चूँकि सुख मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है, इसलिये ऐसा कोई भी साधन जो सुख की प्राप्ति में सहायक हो उसे प्राप्त करने के लिये व्यक्ति स्वच्छन्द है।

उपयोगितावाद प्राणि-मात्र के प्रति कर्त्तव्य और सहानुभूति भाव को नहीं मानता। उनका कहना है कि “किसी भी नियम का प्रतिपादन प्रकृति के गुण और स्वभाव के अनुसार होना चाहिये। प्रकृति का सिद्धान्त यह है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। बड़े वृक्ष छोटे पौधों को पनपने नहीं देते। बड़े जीव छोटे जीवों की सत्ता और स्वतन्त्रता का अपहरण करते रहते हैं, उन्हें मार कर खाते रहते हैं। यही सिद्धांत सभी पर लागू होता है अर्थात् सुख की पूर्ति के लिये स्वच्छन्दता ही नहीं शक्तिवाद भी सही है।”

वास्तविकता यह है कि- प्रकृति का यह नियम सनातन नहीं अपवाद है। अधिकाँश प्रकृति परोपकार के नियम का अनुसरण करती है। वृक्ष अपने फल आप सेवन नहीं करते, नदियाँ औरों के लिये बहती हैं, सूर्य भ्रमण करता है, जिससे सर्वत्र शक्ति, चेतनता विकसित होती रहे। “जियो और जीने दो-प्रयत्न करो और शाश्वत सुख की प्राप्ति करो -उसके लिये यदि भौतिक जीवन को तपोमय बनाना पड़े तो बनाना चाहिये।” यह विश्व का नैसर्गिक नियम है और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति उसी पर आधारित है। इसी कारण भारतीय जीवन में आज भी अपेक्षाकृत अधिक शाँति और सौहार्द्र बना हुआ है।

उपयोगितावाद सिद्धान्त के मन्त्रदृष्टा स्टुअर्ट मिल लिखते हैं- ‘‘जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है, उतना ही अच्छा है तथा जो आनन्द से जितनी विपरीत दिशा में ले जाता है, उतना ही बुरा है। आनन्द से मतलब है, सुख तथा कष्ट का न होना। सार्वजनिक प्रसन्नता या सुख बढ़ाने के लिये हम बाधित नहीं।”

उपयोगितावाद का कहना है कि “पुण्य की कामना ही नहीं करनी चाहिये।” इस मान्यता ने मनुष्य-जीवन के आदर्श को ही उलट-पुलट कर दिया है। जबकि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है- प्रेम, दया, भ्रातृ-भाव व आध्यात्मिकता पर तथाकथित उपयोगितावाद में इनका कोई उल्लेख नहीं भौतिकतावादी सुख की ही प्रधानता रह गई है।

परिणाम- मशीन और वासना की भीड़ का अस्तित्व समाप्त हो गया। चारों ओर भयंकर प्रतिद्वन्द्विता- सुखों में औरों को पछाड़ने की अन्धी दौड़ चल रही है। धन की अदम्य लालसा ही जीवन का प्रधान लक्ष्य बन गया है, उसके नीचे सेवा, सद्भावना, त्याग और भलमनसाहत का जीवन दबा पड़ा है।

कहीं भी शाँति दृष्टिगोचर नहीं हो रही। ब्रिटेन, फ्राँस, जर्मनी आदि योरोपीय समृद्ध देशों में ही नहीं संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे धनी देश में भी 2 सेकेंड पर एक अपराध अर्थात् प्रतिदिन 10800 अपराध होते हैं। भारतवर्ष में जहाँ पाश्चात्य जीवन की हल्की लहर-सी अभी आई है, उसका कुप्रभाव स्वराष्ट्र-मंत्रालय के यह आंकड़े बताने लगे हैं। सन् 1959 में हस्तक्षेप योग्य 6 लाख 20 हजार 326 अपराध भारतवर्ष में हुए, यह संख्या सन् 1964 में 7 लाख 59 हजार 13 तक पहुँची। 1965 में जुलाई, अगस्त, सितंबर कुल तीन महीनों में 1 लाख 58 हजार अपराध हुए। बड़े आश्चर्य की बात यह है कि उत्तर-प्रदेश में शिक्षा प्रसार के साथ-साथ युवक युवतियाँ नये नये अपराधों की ओर प्रेरित हो रहे हैं। 1962 में उत्तर-प्रदेश में प्रति एक लाख व्यक्ति के पीछे पुलिस के ध्यान देने योग्य 173.3 अपराध सुशिक्षितों द्वारा किए गये। शिक्षितों में अपराधी मनोवृत्ति का बढ़ना मानवीय सभ्यता पर कलंक तो है पर उसे उपयोगितावाद और भौतिक सिद्धांतों की ही देन मानना पड़ेगा।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ‘हिप्पी-दर्शन’ है, जो अब से कुल 35 ही वर्ष पूर्व अमेरिका में आविर्भूत हुआ। 15 से 20 वर्ष तक की कच्ची आयु के युवकों और युवतियों ने आज के जटिल और भौतिकवादी जीवन से ऊब कर एक नये दर्शन को जन्म दिया। जिसे न तो पुरातन संस्कृति कह सकते है, न अधुनातन। दोनों के बीच की एक दिग्भ्राँत दिशा है, यह हिप्पी-दर्शन। जिसका तात्पर्य है समाज की वर्तमान सभी मान्यताओं को तोड़-मरोड़ कर चकनाचूर कर देना।

यह अमेरिका के लिये ही नहीं, सारे सभ्य-जगत के लिये एक चेतावनी है कि यदि भौतिक दिशा में इसी तरह कदम बढ़ते रहे और आध्यात्मिकता के सच्चे स्वरूप को- जो अन्तःकरण से प्रस्फुटित होता है- न पहचाना, माना और जाना गया तो ऐसे-ऐसे अनेक दर्शन उठ पड़ेंगे और तब मानवीय सभ्यता का दृश्य ही कुछ और होगा।

हिप्पी दर्शन में किसी सामाजिक मान्यता या विधि-व्यवस्था को मानना आवश्यक नहीं। वे अपने आचरण एवं विचारों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध स्वीकार नहीं करते और स्वेच्छाचारी जीवन-यापन करने में गर्व अनुभव करते हैं। उनके अनुयायी और प्रशंसक तेजी से बढ़ रहे हैं। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ जनरल टायनबी के शब्दों में- हिप्पी अमरीकी जीवन-पद्धति के लिये लाल खतरे का चिन्ह है। वे न तो कोई पारिवारिक बन्धन मानते हैं, न सामाजिक मर्यादायें। कहीं भी युवक युवतियाँ स्वच्छन्द घूमते, कहीं भी सो जाते, जो चाहते हैं वही करते हैं। उनके शब्दों में- “व्यक्ति की स्वतन्त्रता याँत्रिक जीवन में बँध गई है, इसलिये हम ऐसे स्वतन्त्र जीवन की खोज में हैं, जिसमें सुख ही सुख और प्रेम ही प्रेम हो।”

धन को वे तुच्छ मानते हैं, इसलिये नोट जला देने में उन्हें बिल्कुल दर्द नहीं होता। नंगे पैर, दाढ़ी के बाल बढ़ाये यह हिप्पी भारत की ओर भी बढ़ते आ रहे हैं। उनकी लोक-प्रियता जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखते हुए यह आशंका होती है कि शिक्षित समाज का एक बड़ा वर्ग धीरे-धीरे स्वेच्छाचार की ओर आकर्षित हो रहा है, वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की मर्यादाओं को तोड़कर स्वेच्छाचारी ऐसी गतिविधियाँ अपनाने जा रहा है, जिसमें सदाचरण के लिये कोई स्थान नहीं।

सर्वमान्य व परम्परागत सिद्धान्तों और मर्यादाओं को तिलांजलि देकर हिप्पी गाँजा और लेसरजिक एसिड डाइकियेलेमाइड का प्रयोग करते हैं। गाँजा तो हिप्पी आंदोलन का एक विशिष्ट अंग ही बन गया है। इसे चाय या सिगरेट के साथ पीने से थोड़ी देर के लिये शारीरिक और मानसिक तनाव दूर हो जाता है और मन उन्माद की स्थिति में पहुँच जाता है। उसका कहना है कि नशा पीने से कल्पना शक्ति तीव्रता से बढ़ती है, उस समय विलक्षण अनुभूतियाँ होती हैं, शरीर में सिरहन अनुभव होती है और थोड़ी देर के लिये पीने वाला मस्ती अनुभव करने लगता है। यदि नशा पीने से ऐसा आनन्द भरा अनुभव उठाया जा सकता है, तो क्यों न उठाना चाहिये?

मन को अचेतन स्थिति का आनन्द देने के लिये हिप्पी एल. एस. डी. प्रयोग करते हैं, यह अत्यन्त नशीला पदार्थ है, इसकी एक बूँद से 12 घंटे की मदहोशी आ जाती है। एस. टी. पी. या बी. जेड. नाम के पदार्थ भी यह लोग सेवन करते हैं, उससे 72-72 घंटे की बेहोशी आ जाती है।

इस तरह यह नई पीढ़ी मानसिक मूर्छा का प्रयोग कर रही है, उपयोगितावाद जैसे भौतिक दर्शन इसकी प्रेरणा भरते हैं। यह मान्यतायें विचारशीलों की दृष्टि से- इस युग का कलंक ही मानी जा रही है। यह प्रवाह इसी दिशा में चलता रहा तो भावी प्रजा ऐसे कितने दर्शनों को जन्म दे सकती है और न कितना अपराधी जीवन विनिर्मित कर सकती है, इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

सामाजिक जीवन में अपराधों की भारी अभिवृद्धि से समाज की प्रतिद्वन्द्विता और दुर्दशा तेज ही हो रही है। भौतिक सभ्यता और उपयोगितावाद से शाँति मिल सकती है न सुख। सुख अभीष्ट हो तो एक बार फिर से भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति का व्यापक शोध और प्रसार करना पड़ेगा।

पहले ही उपयोगितावाद की जड़ें यहाँ काफी गहराई तक धँस चुकी हैं, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हिप्पी संस्कृति जैसी विचार-धाराओं एवं आचरण पद्धतियों से एक और नया खतरा पैदा हो गया है। स्वेच्छाचार हमारा भावी आदर्श बन गया तो उसके फलस्वरूप सारा समाज जंगली युग की तरफ लौट जायेगा और सभ्यता का आरंभ फिर वहीं से करना पड़ेगा, जहाँ से कि आदिम इंसान पत्थरों के हथियारों द्वारा छोटे जानवरों के शिकार पर निर्भर पाशविक जीवन जीते हुए दिन गुजारता था।

इस खतरे से बचने के लिए हमें सतर्कता बरतनी होगी और उन उपयोगितावाद जैसे दर्शनों को चुनौती देकर उन्हें अमान्य ठहराने का बुद्धिसम्मत आधार तैयार करना पड़ेगा, अन्यथा मानव-समाज के स्वेच्छाचारी प्रवाह को- और उसके फलस्वरूप होने वाली साँस्कृतिक आत्म-हत्या को रोका न जा सकेगा।


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