महात्मा ईसा ने एक स्थान पर कहा है-
“परमेश्वर की इच्छा पर मैं अपना सर्वस्व सौंपने को तैयार हूँ। इस दुनिया की कोई वस्तु मैं उससे नहीं चाहता। मैं उसे इसलिये प्यार करता हूँ क्योंकि वह प्यार के ही योग्य है। परमेश्वर में क्या-क्या शक्ति और विशेषतायें हैं, इसे जानने की मुझे तनिक भी इच्छा नहीं है, क्योंकि मैं उससे कोई सिद्धि या अधिकार नहीं चाहता। मेरे लिये इतना ही जानना पर्याप्त है कि वह प्रेममय है। प्रेम उसे प्रिय है।”
महात्मा ईसा के उपर्युक्त कथन में प्रेम की महिमा स्पष्ट होती है। उस प्रेम की महिमा, जिसने असंख्य विरोधों और अपवादों के होते हुए भी ईसा को एक महान् पुरुष तथा संसार का पूजा-पात्र बना दिया। ईसा ने अपने हृदय का वह प्रेम परमात्मा को समर्पित कर दिया। परमात्मा के प्रति मन, वचन और आत्मा से सम्पूर्ण प्रेम समर्पित कर देने से ईसा की आत्मा का अनिवर्चनीय विकास तथा विस्तार हुआ। उनका ईश्वरपरक प्रेम फैलकर जन-जन पर छा गया, जिससे वे स्वयं सबके प्यारे बन गये। निश्छल तथा निर्विकार प्रेम करने वाला निश्चय ही बदले में प्रेम का प्रतिदान पाता है।
यह सत्य है कि प्रेम प्रतिदान प्रेम से मिलता है। किन्तु फिर भी प्रतिदान के लोभ से किया हुआ प्रेम निश्छल तथा निर्विकार नहीं मान जा सकता। उसमें कोई भौतिक स्वार्थ न होने पर भी एक प्रच्छन्न आत्मिक स्वार्थ तो रहता ही है। इतना मात्र स्वार्थ भी प्रेम की निश्छलता, निर्विकारता और गरिमा से साथ उसके प्रभाव को भी नष्ट कर देता है। वास्तविक प्रेम तो वही होता है, जिसमें दान ही दान की भावना होती है, प्रतिदान का कोई भाव नहीं होता। सच्चा-प्रेमी अपने प्रेमास्पद से किसी प्रकार की आशा, आकाँक्षा नहीं रखता। वह तो केवल देना ही चाहता है, लेना नहीं। सच्चा प्रेमी दान में ही प्रतिदान का आनन्द और संतोष प्राप्त कर लेता है। वह स्वयं आत्म-तुष्ट और परिपूर्ण होता है। उसको अपने प्रेमास्पद का हित ही अपना हित, उसका हर्ष अपना हर्ष और उसका सुख अपना सुख अनुभव होता है। जिसे दान में सुख प्राप्त होगा, वह प्रतिदान के लिये लालायित ही क्यों होगा?
जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि वह अमुक व्यक्ति को प्रेम करता है तो सुनकर बड़ी प्रसन्नता होती है। विचार आता है कि यह व्यक्ति प्रेम की अनुभूति से ओत-प्रोत कितना भाग्यवान् है। यह प्रेमी है किसी को प्रेम करता है। इस प्रकार इसने अपने जीवन में दुर्लभ आत्म-शाँति तथा आत्म-संतोष की व्यवस्था कर ली है। किन्तु वही व्यक्ति जब यह कहता सुना जाता है कि उसे उसके प्रेम का प्रतिदान नहीं मिला, इसका उसे दुख है, तो सहसा ही उस पर तरस आने लगता है और ऐसा भान होता है कि यह तो बड़ा अभागा है। प्रेम का व्यवसाय करना चाहता है। प्रेम का प्रतिदान चाहने वाले प्रेम के व्यवसायी ही तो होते हैं। जहाँ जिस स्थान पर, जिस विषय में लेने और देने की भावना होती है, वहाँ वह उस विषय का व्यवसाय ही माना जायेगा।
व्यवसायी भावना रखने वालों का प्रेम व्यापार में असफल होना अनिवार्य है। उनकी असफलता को स्वयं परमात्मा भी नहीं रोक सकता। जुए की बाजी की तरह प्रेम का दाँव लगाने वाले उस अमृत से उसी प्रकार वंचित रहते हैं, जैसे जुआरी सम्पन्नता से। यह आवश्यक नहीं कि जुआरी जो दाँव लगाये, वह उसके पक्ष में ही सामने आये। और यदि कभी वह पक्ष में आ भी जाता है तो फिर किसी दाँव पर विपक्ष में चला जाता है और इस प्रकार उसकी स्थिति असफल तथा अभावपूर्ण ही बनी रहती है।
जो प्रतिदान की लालसा और व्यावसायिक भावना से प्रेम करता है, वह वास्तव में किसी पर मायाजाल फेंकता है। यह आवश्यक नहीं कि कोई उसके माया-जाल में फँस ही जाये। और यदि कोई फँस भी जाता है तो शीघ्र ही वास्तविकता खुल जाती है और तब जीवन में कसक और कांटों के सिवाय कुछ शेष नहीं रह जाता। प्रतिदान की भावना से दूषित व्यावसायिक प्रेम जीवन के लिये विष से भी अधिक भयानक होता है।
प्रेम के अमृत से संतुष्ट प्रेमी संसार के सारे दुःख-द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है। उसका मन सम्पूर्ण रूप से अपने प्रेमास्पद में तल्लीन रहने से उसे संसार के दुख-द्वन्द्व अनुभव ही नहीं होते और अपने प्रेमास्पद के लिये तो वह विपत्ति के पहाड़ भी अपने ऊपर ले सकता है। परमात्मा के सच्चे भक्त उसके प्रेमी, उसके प्रेम के सम्मुख मोक्ष, सुख को तुच्छ समझते हैं। वह प्रवंचना करता है, ‘हे प्रभु! इस संसार में जो भी दुःख दर्द मौजूद है, जो भी कष्ट और विपत्तियाँ वर्तमान हैं, मैं उनसे जरा भी नहीं डरता, इस दुनिया के सारे पाप, अभिशाप, जो मेरे भाग्य में लिखे हैं, मैं उनका प्रसन्नता से भोग करने को तैयार हूँ। उनका पूरा दण्ड पाने को प्रस्तुत हूँ और तुझसे उनमें जरा भी रियायत नहीं चाहता। मैं तुझसे किसी प्रकार की सिद्धि, समृद्धि भी नहीं चाहता और न तुझ से धन, स्वास्थ्य, सौंदर्य, बुद्धि आदि सम्पदायें ही माँगता हूँ, न मैं मुक्ति अथवा स्वर्ग के लिये तेरे प्रति याचना करता हूँ, मुझे जन्म-मरण का चक्र भी सहर्ष स्वीकार है, मैं तुमसे क्षमा का भी आकाँक्षी नहीं हूँ, मैंने जो कर्म बोये हैं, उनका फल काटने में जरा भी संकोच नहीं है, मैं जो कुछ अच्छा-बुरा हूँ, मुझे रहने दे। मैं तुझसे कुछ भी नहीं चाहता। हाँ, यदि मुझको आकाँक्षा है तो यह कि तू मुझको अपने से प्रेम करने दे। प्रेम के लिये प्रेम और केवल निष्काम प्रेम। इसमें ही मेरे जीवन की सार्थकता है और सफलता भी। हे प्रभु! तू मुझे अपने से जी भर प्रेम करने दे। बस।”
जो सच्चे प्रेम का अमृत पाकर संतुष्ट हो जाता है, उसे संसार के मिथ्या भोगों की कामना भी नहीं रहती। जो लोग वासना से प्रेरित आकर्षण को प्रेम कहते हैं, वे प्रेम का वास्तविक अर्थ ही नहीं समझते। वासनाजन्य आसक्ति को प्रेम मानना एक प्रकार से आत्म-प्रवंचना ही है। प्रेम का स्तर आत्मा है और वासना का सम्बन्ध शरीर से है। शरीर नश्वर है, इसलिये उससे सम्बन्धित सारे विषय भी नश्वर हैं। प्रेम अमर तत्व है, वह नश्वरता से दूर एक रस रहने वाली भावना है। शरीर नष्ट हो जाने पर भी प्रेम-भावना का विनाश नहीं होता। आगामी जन्म में प्रेमी अपने प्रेमास्पद को पुनः पा लेता है और फिर उसी चिरन्तन आनन्द में निमग्न रहने लगता है। किन्हीं भी लोगों में इस जन्म में प्रेम अथवा भक्ति की तीव्रता देखी जाती है, वह उनकी इसी जन्म की उपलब्धि हो यह आवश्यक नहीं। प्रेम की परम्परा जन्म-जन्मान्तर तक चलती रहती है। उसकी पूर्णता की प्राप्ति तभी होती है, जब प्रेम और प्रेमास्पद की आत्मायें परस्पर मिलकर एक हो जाती हैं।
प्रेम आत्मा का विषय है, शरीर का नहीं। इसलिये भोग-वासना के आकर्षण को प्रेम मान बैठना उचित नहीं। भोग-वासना के दोष से भी प्रेम को मुक्त ही मानना चाहिये। आत्मा का विषय होने से प्रेम आत्मा की तरह ही अभोग्य है। भोग शरीर का विषय है, शरीर भोग्य होने से वासनाओं का भोग सम्भव होता है। जिस आकर्षण में भोग वाँछा अनुभव हो वहाँ समझ लेना चाहिये कि वास्तविक प्रेम नहीं है। सच्चे और आत्मिक प्रेम में वासना भोग, आसक्ति, मोह, संयोग-वियोग, पीड़ा-कसक अथवा दुःख-शोक आदि विकार नहीं होते। वह तो सर्वथा आत्मा की ही तरह विकार रहित और परिवर्तन से परे होता है। आत्मिक प्रेम का धनी व्यक्ति अपने प्रेमास्पद को निरन्तर अपनी आत्मा में ही पाता रहता है।
शारीरिक संयोग-वियोग उसके लिये कोई महत्व नहीं रखते। सच्चा प्रेमी अपने प्रेमास्पद को संयोग की अवस्था में भी अपने भीतर ही देखता और सुखी होता है और वियोग की अवस्था में भी अपने अन्दर देखता और सुख पाता है। शरीर से दूर हो जाने पर भी सच्चे प्रेमी को प्रेमास्पद का वियोग अनुभव नहीं होता। जो प्रेमी अपने प्रेमास्पद के शारीरिक संयोग-वियोग में सुखी अथवा दुःखी होता है, उसे समझ लेना चाहिये कि उसका प्रेम आत्मिक नहीं है। वह अपने प्रेमी से शारीरिक स्तर पर ही सम्बन्धित है।
किसी के प्रति सच्चे होने का एक लक्षण यह भी है कि प्रेमी को अपने प्रेमास्पद के दोष भी दोष रूप में नहीं दीखते। उसकी त्रुटियाँ भी अप्रिय नहीं लगतीं। ऐसा इसलिये नहीं होता कि अमुक से अमुक का गहरा सम्बन्ध होता है अथवा किसी को अपने को प्रेमास्पद हीन होना सह्य नहीं होता। यह इसलिये होता है कि प्रेम प्राण मनुष्य योगी के समान होता है। वह बहुधा गुण-दोषों से मुक्त होता है। प्रेम जब अपनी चरमावधि पर पहुँच जाता है, तब केवल प्रेमास्पद ही किसी की सम-दृष्टि अथवा गुण-दृष्टि का विषय नहीं बन जाता बल्कि संसार के जीव मात्र ही उसकी गुण-दृष्टि के विषय बन जाते हैं। सच्चा प्रेम संसार में जीव-मात्र के लिये एक समान दृष्टि का विकास कर देता है। इसके भी दो कारण हैं। एक तो यह कि प्रेम स्वभावतः ही मनुष्य की आत्मा का विकास सार्वभौम आत्मीयता में कर देता है। दूसरे सच्चे प्रेमी को संसार के अणु-अणु में अपने प्रेमास्पद के ही दर्शन होते रहते हैं। इसलिये उसको किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु में दोष, दुर्गुण नहीं दीखते।
प्रेम एक महान योग है। इसे धर्मशास्त्रों तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रेम-योग के नाम से कहा भी गया है। जिसने सत्य-प्रेम का अमृत प्राप्त कर लिया अथवा जिसने उपाय, अभ्यास अथवा साधना द्वारा अपनी आत्मा में प्रेम का स्फुरण कर लिया है, वह योगी है। उसका प्रेम योग न केवल संसार के दुख-दर्दों से ही अपने साधक को मुक्त रखेगा बल्कि उसे उस गति का भी अधिकारी बना देगा जो योगियों की निश्चित एवं नैसर्गिक उपलब्धि है।
जो संसार में किसी एक को सच्चे रूप में प्रेम करेगा, स्वभावतः उसे संसार के सारे व्यक्तियों से प्रेम की अनुभूति होने लगेगी। बहुत बार लोग समझते हैं, कि उन्हें अपनी पत्नी तथा बच्चों से बड़ा गहरा प्रेम है। लोगों का ऐसा समझना गलत भी नहीं होता। उन्हें अपनी पत्नी तथा बच्चों से प्रेम होता भी है। वे उनकी बुराइयों की ओर से निरपेक्ष हो जाते हैं। उनके लिये बड़े से बड़ा त्याग करते हैं और बड़े से बड़ा बलिदान देने में भी संकोच नहीं करते। उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं। अपने आप कष्ट उठाकर उनको आराम पहुँचाते हैं। यह सब लक्षण देखकर आभास हो सकता है कि अमुक व्यक्ति को अपनी पत्नी तथा पुत्रों से बड़ा प्रेम है। किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं।
पत्नी तथा बच्चों के प्रति लोग जिस अनुभूति का अनुभव करते हैं, वह प्रेम न होकर मोह होता है। मोह में भी आत्मीयता का अंश कम नहीं होता। किन्तु उनकी वह आत्मीयता, स्वार्थ अथवा अपनेपन की संकीर्णता से आध्यात्मिक स्तर की न होकर साँसारिक स्तर की होती है। अपने बच्चों के प्रति प्रेम में उन पर जान देने वाले, उनके दोषों को अदृष्टिगोचर करने वाले बहुधा दूसरों के बच्चों को जरा भी नहीं चाहते। उनका एक साधारण-सा दोष भी वे क्षमा नहीं कर पाते। यदि उनको अपने बच्चों से सच्चा और आत्मिक प्रेम होता तो निश्चय ही उन्हें अन्य बच्चे भी अपने बच्चों के समान ही प्रिय होते। वे उनके लिये भी त्याग और बलिदान कर सकते और उसमें वही संतोष पाते, जो अपने बच्चों के प्रति करने में। प्रेम आत्मा का विषय है।
आत्मिक क्षेत्र में अपना-पराया, अच्छा-बुरा अथवा मेरा-तेरा आदि की संकीर्णता नहीं होती। मनुष्य की आत्मा, संकीर्णता, स्वार्थ तथा निकृष्टता से सर्वथा परे है। वह आत्मा का अंश है, उसका स्वरूप है। निदान उसी की तरह सारे संसार को अपना आत्मीय ही समझता है। सच्चे प्रेमी में परमात्मा की तरह ही व्यापकता, विस्तार तथा निःस्वार्थता आ जाती है और वह सम्पूर्ण जड़-चेतन में एकात्म-भाव का अनुभव करने लगता है। निःसन्देह जिसने प्रेम के उस पावन तत्व को प्राप्त कर लिया है, वह बहुत बड़ा भाग्यवान और जीवन में ही जीवन-मुक्त योगी के समान है।