8000 मील व्यास वाली यह पृथ्वी पदार्थ जगत् की एक छोटी-सी गेंद है। असीम अन्तरिक्ष की तुलना में वह गेंद से भी छोटी है। पृथ्वी से भिन्न सबसे पास का पिंड चन्द्रमा ढाई लाख मील दूर है। सबसे निकट का नक्षत्र भी तीन प्रकाश वर्षों से दूर हैं। प्रकाश को सूर्य से पृथ्वी तक आने में आठ मिनट लगते हैं, फिर ब्रह्मांड की अन्तर्वरीयता को तो नापना ही कहाँ सम्भव है?
इस अपरिमित पार्थक्य को मनुष्य जानबूझ कर अवगाहित करने जा रहा है। यदि एक बार अन्तरिक्ष यान दो मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से दुर्घटनाग्रस्त हो जाये तो अन्तरिक्ष यात्री की हड्डियाँ भी धरती माता तक लाखों वर्ष बाद भी नहीं पहुँच पायेंगी। इस जोखिम भरे काम से क्या लाभ?
मानवता को अन्तरिक्ष युग के योग्य होने की इच्छा है तो उसे आत्मिक क्राँति करनी होगी। विचार और आचरण की लघुता जिससे आज सारा समाज ग्रस्त है, उससे मुक्ति पाकर अपने मानस को स्वयं अन्तरिक्ष की तरह विस्तृत और सब की अनुभूति में अपना सुख अनुभव करना होगा।
एक समय था जब देवी-देवता यहाँ आया करते थे। इन कथानकों में कितना सत्य है, पता नहीं। किंतु उनके साथ जो घटनायें जुड़ी है, वह बताती हैं कि अन्तरिक्ष का उपयोग भी धरती के लोगों के स्वास्थ्य, सुख, सद्प्रवृत्तियां और चरित्र को ऊपर उठाना ही रहा है। अन्तरिक्षवासी देवता पार्थिव असुरों से जीतते रहे हैं, तात्पर्य यह है कि अन्तरिक्ष के अपरिचित रूप वाले जीवन का उपयोग मानवीय आत्मा के उत्थान के लिये होना चाहिये। उसमें विज्ञान भी आ जाता है, उसके छूट जाने की बात सोचना सही नहीं है।
आज की अन्तरिक्ष यात्रा का रूप सही नहीं है। उससे मनुष्य के साधन सीमित हो जायेंगे, समस्यायें बढ़ जायेंगी। चन्द्रमा तक पहुँचने, वहाँ उपनिवेश बनाने और खनिज की खुदाई करना ही बड़ा कठिन काम है। फिर असीम अन्तरिक्ष को नापना और वहाँ पर मानवीय विकास की समस्या पर विचार करना तो और भी टेढ़ी खीर है। जो सरल और शुचितम है, वह यही कि मनुष्य पहले अपने आपको खोजने का यत्न करे, सम्भव है, उसे अपने ही भीतर एक विशाल गुण और संतोषदायक अन्तरिक्ष उपलब्ध हो जाये। -सम्पूर्णानन्द