ज्ञानी-जन

November 1968

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एक था कुत्ता, सड़ गये थे कान जिसके, कई दरवाजों में घूमा जहाँ भी गया वहाँ दुत्कारा गया। दिन भर घूमा रोटी के लिये कौर मिले दो, मार और फटकार का कोई ठिकाना नहीं था। इन्द्रियों को लिप्सा वें दर दर भटकता, हुआ अज्ञानी व्यक्ति भी इसी प्रकार सर्वत्र तिरस्कार हो पाता है।

एक था हाथी, जंगल में मस्त घूमा करता था, न कोई अभाव था, न दुःख। एक दिन एक हाथिन की आसक्ति में आ गया। वासना-भूत हाथी को हथिनी उधर ले गई जहाँ शिकारी जाल बिछाये बैठे थे। हाथी पकड़ लिया गया। न रही वह मस्ती, न रहा वह मुक्त आनन्द। वासना में फँसा अज्ञानी मनुष्य भी उसी प्रकार अपने शाश्वत आनन्द से भटक कर दुःखों के जाल में जा गिरता है।

एक था कछुआ, कुछ शिकारियों ने उसे दूर से देखा और आक्रमण के लिये दौड़े। कछुआ समझदार था, ज्ञानी था अंग-प्रत्यंगों को समेट कर खाल के भीतर ही छिप रहा। शिकारी इधर-उधर ढूँढ़ते ही रहे। कछुये की तरह जो ज्ञानी-जन बाहरी मोह आकर्षणों से बचकर आत्मा का अनुसरण करते हैं, उनकी सब प्रकार रक्षा होती है।


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