मुझे यह कभी नहीं स्वीकार (Kavita)

November 1968

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पथ पर बिछे देखकर काँटे कभी मान लूँ हार। मुझे यह कभी नहीं स्वीकार॥

झरना चला एक पर्वत से, इठलाता गाता मुसकाता। चट्टानें भी राह रोकतीं लेकिन झरना चलता जाता॥ ऊँचे-नीचे पथ कँकरीले टीलों पर भी चढ़ता जाता। ऊपर से गिर जाता, नीचे फिर-फिर आगे बढ़ता जाता॥

देख हँसी पर्वत उपत्यिका बोली सुन रे निर्झर भ्राता! गिर-गिरकर उठ-उठ चलने में, क्या तू कुछ भी कष्ट न पाता॥ ऐसा भी जीना क्या जीना जिसमें बस कष्टों से नाता। हँसकर कहा पथिक निर्झर ने सुनरी भगिनी बात हमारी॥ रुक जाऊँ तो बढ़े मैल दल अपवित्रता अपार। मुझे यह0॥

सूर्यलोक से देवि-किरण ने धरती माँ की ओर निहारा। देख अज्ञ-अंधियारा धरा पर उमड़ उठा उनका उर प्यारा॥ निकल पड़ीं घर छोड़ मिटाने धरती माता का अंधियारा। लेकिन रोका बलाहकों ने पथ रश्मिनिका सिर कजरारा॥

तिमिर सघन हो उठा मरुत ने दिया मेघ को और सहारा। अट्टहास कर मेघराज ने शत योजन शरीर विस्तार॥ दुःखी हुआ आकाश देख यह उसने दबा-वचन उच्चारा। देवि-किरण लौटो अपने गृह, किन्तु किरण बोली यों हँसकर॥ घर लौटूँ तो प्रिय धरती पर और बढ़े अंधियारा। मुझे यह0॥

नाविक ने मस्तूल खोल दी नाव बढ़ी लहरों की रानी। छप-छप करती सिंधुराज के वक्षस्थल पर बढ़ी सयानी॥ हँसती गाती शोर मचाती इठलाती जाती दीवानी। कितनी राह नापला अब तक बात नहीं नाविक ने जानी॥

तभी अचानक रौद्र रूप धर आ दौड़ी झंझा तूफानी। टूट गई पतवार नाव में भर आया घुटनों तक पानी॥ गरज उठा सागर बोला रे नाविक! मेरी बात न मानी। हँस मांझी ने कहा सिन्धु से जीवन-मरण लगा ही रहता॥ पर मेरे रुकने से रुक जाता जीवन-व्यापार। मुझे यह0॥

झरना, किरण और नाविक-सा जीवन ही सच्चा जीवन है। जो न रुके झंझावातों में वही सदा सच्चा यौवन है॥ रुकने वाले नहीं किसी से कर सकते हैं प्यार। रुक जाने वाले का जीवन हो जाता बेकार॥ मुझे यह कभी नहीं स्वीकार॥

*समाप्त*


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