धर्म की सच्ची भावना का प्रवर्तन हो

August 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज के संसार की अशाँति का मूल कारण धार्मिक अनास्था है। एक नई बर्बरता जिसने प्राचीन धर्म और संस्कृति को पदच्युत कर दिया है, के कारण मंगलमय विश्व अमंगलकारी परिस्थितियों से पूरित हो रहा है। लोगों ने ‘‘शक्ति के अधिकार में सब कुछ’’ की पाशविक धारणा बना ली है, इसी कारण छल, शोषण, अत्याचार, वर्गभेद और न जाने कितने दुराचार बढ़ गये हैं, आज की परिस्थिति में उद्धार का एक ही उपाय है और वह यह कि धर्म की सच्ची भावना का प्रवर्त्तन हो।

विश्व में जो भी वैभव, विकास की विभूतियाँ हैं, वह सब धर्म के किसी न किसी अंश को ही लेकर जन्मी है। विचारों की कोई भी गम्भीर साधना, विश्वासों की कोई भी खोज, सद्गुणों के अभ्यास का कोई भी प्रयत्न यह सब उन्हीं स्रोतों से उत्पन्न होते हैं, जिनका नाम धर्म है।

धर्म का बड़ा व्यापक अर्थ है। धर्म का अस्तित्व उन सभी परिस्थितियों में विद्यमान रहता है, जिनमें शाश्वत की झाँकी हो हो। मन के द्वारा सौंदर्य, शिवत्व और सत्य की खोज धर्म है। बच्चा माता के स्तनों का दूध पीता हुआ चपलता से कभी इधर, कभी उधर देखता है, कभी अधिकार पूर्वक किसी अंग को पकड़ता, झकझोरता है, उसमें जो पवित्रता और निष्कलुषता होती है वह धर्म है। जंगल में बैठा हुआ अशिक्षित व्यक्ति आकाश की ओर देखता है और प्रयोगशाला में बैठा हुआ वैज्ञानिक एक तत्व का ध्यानमग्न परीक्षण करता है एक अज्ञान से, दूसरा ज्ञान से परमात्मा की सृष्टि के प्रति आश्चर्य चकित होता है। स्थिति और अवस्था में भेद होते हुए भी दोनों ही धर्ममय स्थिति में है। जहाँ शाश्वत की खोज, जहाँ निष्कलुष आनन्द की सृष्टि, जहाँ उद्दात्त जीवन की निष्ठा है, वहाँ धर्म मूर्तिमान है। यह धर्म ही मनुष्य को ऊँचे उठाता है और समाज संसार में शाँति का सृजन करता है।

वाल्ट डिज्ने लिखते हैं- “एक बार मैं अपनी ‘मरुस्थल’ फिल्म बना रहा था तो पशु-पक्षियों के साथ मेरी मैत्री ऐसी प्रगाढ़ हो गई मानो उनका सारा जीवन मेरे लिए एक खुली पुस्तक है। हमारे आपके भीतर पशु-पक्षियों की जो आदतें आज भी देखने में आती हैं, वे स्पष्ट करती हैं कि पशुत्व से मनुष्यत्व तक की मंजिल बरसों के हिसाब से लम्बी रही हो, फासले के नाम पर कुछ ही इंचों की है। कल जो पशु था आज वही मनुष्य है। विकास की इस गति को कोई नहीं रोक सकता किन्तु मेरे लिये दुःख की सबसे बड़ी बात यह है कि पशु को हम अपने से हीन समझते हैं। इसके विपरीत बात असल में यह है कि पशु व मनुष्य में सिर्फ शरीर परिवर्तन का ही अन्तर होता है। गुण या अवगुण का नहीं। कई बार तो मैंने देखा है कि पशु-पक्षियों के जो गुण मनुष्य में आज विद्यमान है, वे ऐसे विकृत हो गये कि पशुओं को भी मेरी तो धारणा है, मनुष्यों से नफरत होती होगी।’’

मनुष्य में जो विशेषता है वह प्राणिमात्र में आत्मीयता प्रेम और विश्वास का आदान-प्रदान है। इसी का नाम धर्म है, यदि मनुष्य उससे वंचित है तो वह मनुष्य नहीं। मनुष्यता का गौरव केवल धार्मिकता है।

शिकारी रेनाल्ड ने लिखा है- “मेरे सामने एक रेगिस्तानी शेर का उदाहरण है। रेगिस्तानी शेर बड़ा खूँखार होता है। मरुस्थल के जीवन में स्वार्थपरता और क्रूरता स्वाभाविक से हो गये हैं किन्तु मैंने देखा कि बलवान से बलवान जानवर भी प्रेम, दया और भाई-चारे की मर्यादा नहीं तोड़ता। शेर पानी पीने गया। धूप और गर्मी का तो नाम ही रेगिस्तान है और भी छोटे-छोटे जीव पानी के लिए दौड़े आ रहे थे। शेर कुण्ड से काफी दूर छुप कर बैठ गया, यद्यपि वह बहुत प्यासा था। जब सब जानवर पानी पी गये तब वह कुण्ड के पास आया। थोड़ा पानी बचा था उससे प्यास नहीं बुझ सकती थी। थोड़े से पानी पर दृष्टि डाल कर उसने चारों ओर देखा, अजीब-सी तृप्ति उसकी आँखों से चमक रही थी। अब कोई जानवर पानी पीने के लिए शेष नहीं रहा जब उसे यह विश्वास हो गया तो उसने उतने ही पानी से गला सींच लिया। जंगल के राजा ने अपने प्राणों की अपेक्षा धर्म को प्यार किया और शक्ति का, सम्पन्नता का तकाजा भी तो यही है कि उसकी छाया में दूसरे फलें-फूलें।”

हमारे सामने यह बड़ा अनोखा उदाहरण है। मनुष्य समाज में शान्ति और स्थिरता का आधार भी यही है कि मनुष्य में दूसरों की आवश्यकताओं को पहचानने और प्राथमिकता देने में संकोच न करे, उसे अपने हित से बड़ा मानें। धर्म के बाह्यडम्बरों की आवश्यकता नहीं यदि मनुष्य हृदय की निर्मल भावनाओं को ही परिष्कृत और प्रसारित कर लेता है, तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसी का नाम धर्म है। इसी का नाम धारण करना, जीवन लक्ष्य को प्राप्त करना, सत्य में समाहित होना आदि-आदि है। धर्म कोई वर्ग, सम्प्रदाय, कुल, जाति अथवा गोत्र की उच्चता, निम्नता का माप-दण्ड नहीं, वह अन्तरात्मा के परिष्कार का माध्यम और सुखी समाज का साधन है, जिसमें किसी का अहित न हो।

सच्चे अर्थों में धार्मिक व्यक्ति का धर्म बिलकुल सीधा सादा होता है। जिसमें धर्म-विश्वासों, धर्म सिद्धांतों के मनोभावों या आधिदैविक तत्वों की बेड़ियां नहीं होतीं। यह उस आत्मा की वास्तविकता का प्रतिपादन करता है, जो काल और देश के ऊपर व्याप्त है। वह मानव-मात्र को प्रेम, एकता, आत्मीयता से रहने, व्यवहार करने, बढ़ने और फलने-फूलने का समान अवसर प्रदान करता है। अपनी व्यवहारिक अभिव्यक्ति के लिये धर्म की सूक्ति है ‘‘जो भी भला करता है वह भगवान का है” न्यायपूर्वक आचरण करना, सौंदर्य से प्रेम करना और सत्य की भावना के साथ विनम्रतापूर्वक चलना यह सबसे ऊँचा और वास्तविक धर्म है। यह अनुभव किसी एक जाति या एक प्रदेश तक सीमित नहीं है।

गाँधी जी के जीवन में इसी विशेषता के दर्शन होते हैं। उन्होंने धर्म का दिखावा नहीं किया वरन् उसे जीवन की व्यवहारिकता में ढाला इसलिये वे एक महान आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हुये। वे सच्चे अर्थों में धार्मिक भावना को ग्रहण करने के लिए हमें प्रेरणा देते हैं, इसलिये वे हमें मान्य हैं। उनकी घोषणा है कि प्रेम मनुष्य की प्रकृति के अनुकूल है, यदि हम अपनी सामाजिक चेतना ऊपर प्रेम और सर्वात्म-भाव का प्रभाव पड़ने दें तो इसी से स्वतन्त्रता और सामाजिक उन्नति हो सकती है। इस घोषणा के आधे हिस्से को सफल करके उन्होंने अनूठा उदाहरण भारत ही नहीं समग्र विश्व को दिखा दिया। संसार उसे चमत्कार मानता है। पर वह धर्म की ही शक्ति थी, जिसने इतने भारी काम को इतना सरल बना कर दिया दिया। पीड़ा यह है कि सामाजिक उन्नति के दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उनका शरीर ही नहीं रहा। यह काम तो अब वर्तमान पीढ़ी को पूरा करना है।

स्वामी विवेकानन्द जी का कथन है- “भारत की संस्कृति अक्षय-अमर इसलिये रह सकी है कि उसने नीति को नहीं धर्म को ही अपने जीवन में अनुप्राणित किया है। नीति ऐसा कन्या है, जो वरमाला लेकर प्रेय के मण्डप में खड़ी पति की प्रतीक्षा करती रहती है किन्तु धर्म प्राणि मात्र को अपने गन्तव्य पर पहुँचाने वाला अविफल महायान है, वह धारण करता है, किसी के सहारे का भिखारी नहीं।’’

प्रश्न यह है कि धर्म-शास्त्र मनुष्य के लिये है या मनुष्य धर्म शास्त्र के लिये? हमारा उत्तर स्पष्ट है। हम किसी परम्परा के अन्ध-भक्त नहीं, किसी नियम के सेवक नहीं। अनेक दवाओं में जो सही होती है, जो डाक्टर स्वास्थ्य-कारक बताता है उसे ग्रहण कर लेते हैं, शेष उससे बढ़िया और कीमती होने पर भी हम नहीं खाते। जो सबके लिए हानि रहित और स्वास्थ्यकारी हो वही औषधि ग्रहणीय है। एक दूसरे के साथ न्याय के आधार पर काम करना, औरों की सहायता करना, सब पर दयादृष्टि रखना, शाश्वत-सत्य की उपासना करना, सर्व-मैत्री, सबसे प्रेम की भावना रखना यह बातें सबके लिये संतोषदायक, हितकर और आनन्ददायी है। इन्हें स्वीकार करने में कभी किसी भी मनुष्य को आपत्ति नहीं हो सकती। इन्हीं का नाम- धर्म-जीवन। जब ऐसे मानव जीवन का प्रवर्तन होगा, तभी सच्ची सुख-शाँति के दर्शन उपलब्ध होंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118