प्रेम और उसका वास्तविक स्वरूप

August 1968

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समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो एक इसी चिन्ता में व्यस्त रहते हैं कि उनकी जीवन की प्रगति नहीं हो रही है। उनका सारा चिन्तन इस अवरोध के कारण खोजने में ही लगा रहता है। किन्तु कारण मिलता ही नहीं।

कभी उन्हें ऐसा लगता है कि उनकी प्रगति का अवरोध अर्थाभाव है। यदि उनके पास पैसा होता तो वे भी कोई व्यापार व्यवसाय करते। उससे और अधिक पैसा कमाते और उसके द्वारा और आगे बढ़ जाते और इस प्रकार धन से धन कमाते हुए बड़े आदमी बन जाते। उनके पास भी कोठी हो जाती, कार हो जाती, समाज में प्रतिष्ठा हो जाती और बस उनकी प्रगति की साध पूरी हो जाती।

कभी कोई सोचता है कि समाज ही उनकी प्रगति में बाधा उत्पन्न करता है। यदि समाज उन्हें रास्ता देता, उन्हें अवसर और अवकाश देता तो वे अब तक जीवन में बहुत दूर तक चल कर दिखला सकते थे। समाज ने उनका पथ अवरुद्ध किया, उनके साथ असहयोग किया, गति में रोड़े अटकाये। बस इसी से उनकी प्रगति न हो सकी और वे यथा स्थान पड़े रहे।

अनेक लोग स्वास्थ्य का रोना लेकर बैठे रहते हैं। जब तब कहते सुने जाते हैं- ‘‘क्या बतलायें प्रगति करने का जी तो बहुत करता है। उसकी योग्यता और क्षमता ड़ड़ड़ड़ है, साधन और सुविधा भी, अवसर भी आते रहते हैं। ड़ड़ड़ड़ मेरा स्वास्थ्य साथ नहीं देता। रोज ही कोई न कोई ड़ड़ड़ड़ जुकाम, खाँसी-खुर्रा अथवा ज्वर आदि लगा रहता है। जरा-सा काम किया नहीं कि रोग का जोर बढ़ जाता है, शरीर निढाल हो जाता है। मजबूरन आराम करना पड़ता है। अब बताओ कि स्वास्थ्य के इस असहयोग की स्थिति में प्रगति किस प्रकार हो सकती है।”

बहुत से लोग अपनी अप्रगति का दोष ईश्वर या प्रारब्ध को दिया करते हैं। कहते रहते हैं- ‘‘ईश्वर की इच्छा ही नहीं है कि मैं प्रगति करूं। जब कभी कोई कदम उठाता हूँ, वह कोई न कोई बाधा खड़ी कर देता है। भाग्य ही खराब है। जो काम करते हैं कुछ लाभ ही नहीं होता। कभी एक बार लाभ होता है तो दो बार घाटा आ पड़ता है। भाग्य की अनुकूलता या ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी उन्नति नहीं कर सकता। संसार में जिनके पास जो भी वैभव-विभव दिखलाई देता है वह सब भाग्य का खेल है। बिना भाग्य के कुछ भी तो नहीं होता है।

निस्सन्देह इस प्रकार विचार करने वाले बड़े दयनीय होते हैं। उनको यह ज्ञान नहीं होता कि प्रगति के रोकने वाले रोड़े अपने ही अन्दर होते हैं बाहर नहीं, और संसार में केवल एक आर्थिक प्रगति ही नहीं है और भी अनेक प्रकार की प्रगतियाँ हैं।

सबसे पहले ऐसे लोगों को यह समझ लेना चाहिये कि मनुष्य की इच्छा शक्ति में बड़ी शक्ति और बड़ा वेग होता है। ऐसी शक्ति जो परास्त नहीं की जा सकती और ऐसा वेग जो रोका नहीं जा सकता। ऐसे लोग उन लोगों के पास जायें और अध्ययन करें कि उनकी उस प्रगति के पीछे उनकी इच्छा शक्ति का कितना सहयोग रहा है।

उन्नतिशील व्यक्तियों के संपर्क में आने पर पता चलेगा कि उन्होंने जिस प्रगति के लिए इच्छा की, फिर उसको कभी बदला नहीं। एक बार खूब अच्छी तरह से सोच समझ कर इच्छा स्थिर कर लेने के बाद फिर वह उनका जीवन ध्येय बन जाती रही है। उनकी वह इच्छा केवल कोई प्रतिक्रिया अथवा उद्भावना न होकर एक संकल्प, दृढ़ संकल्प रही है। इच्छा में शक्ति ही तब आती है, जब उसका आन्दोलन समाप्त हो जाता है और संकल्प के रूप में परिपक्व हो जाती है।

संकल्प की तीव्रता, पवित्रता और सत्यता के प्रभाव से मनुष्य के आँतरिक शक्ति कोष्ठ खुल जाते हैं। उसमें इतना उत्साह, साहस और कर्मण्यता का उद्बोधन हो जाता है कि उसे अपने लक्ष्य के सिवाय न तो कोई बाधा दिखलाई देती है और न कोई अवरोध दृष्टिगोचर होता है। वह तन, मन को एकाग्र किये अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता रहता है। पथ पर बाधायें आती हैं, उनका आना चिर स्वाभाविक है। किन्तु उनके आने पर उसकी गति उसका प्रवाह कुण्ठित नहीं होने पाता। या तो वह अपनी गति शक्ति से उन बाधाओं को पीछे ढकेल देता है अथवा तीव्रता से रास्ता बचा कर निकल जाता है। वह बाधाओं को पकड़ कर बैठ नहीं जाता और न उनके विषय में चिन्ता करता हुआ अपनी शक्ति और समय खराब किया करता है।

संकल्पशील व्यक्ति की गति पहाड़ी नदी की तरह होती है। अपने लक्ष्य-सागर की ओर एकनिष्ठ भाव से अपनी पूरी शक्ति के साथ जाती हुई नदी या दो बीच के पत्थरों को ढकेलती अवहेलती चली जाती है अथवा उसकी उपेक्षा कर आस-पास से मार्ग बना लेती है। वह किसी प्रकार अपनी गति में व्यवधान नहीं आने देती। यही तो वह विशेषता है, जिसके रोड़े तो दूर पहाड़ और जंगल ऊँचाई और निचाई उसके प्रवाह को रोकने में समर्थ नहीं हो पाते। और वह अपने लक्ष्य सागर को पा ही लेती है।

प्रगति की कामना करने और अप्रगति का दोष दूसरों को देने वालों को अपने अन्दर झाँक कर देखना चाहिये कि क्या जिस प्रगति को वे करना चाहते हैं, उसके लिये उनके अन्तःकरण में शत-प्रतिशत सच्ची इच्छा है या नहीं। निश्चय ही वे वहाँ उसका अभाव पायेंगे। जिस दिन वे इस अभाव को पूरा कर लेंगे उनमें पहाड़ी नदी की गतिशीलता आ जायेगी और वे अपना अभीष्ट अवश्य प्राप्त कर लेंगे।

समाज, ईश्वर अथवा प्रारब्ध को दोष देने वालों को भी अपने भीतर ही झाँक कर देखना चाहिये और खोज करनी चाहिये कि वे जिस प्रगति की आकाँक्षा करते हैं, वह प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में समाज विरोधी अथवा अहितकर तो नहीं है। यदि ऐसा है तो उन्हें समाज का विरोध उठाना ही पड़ेगा और समाज निश्चय ही उनका विरोध करने का अधिकारी है। असामाजिक तत्वों का विरोध करना समाज का नैतिक धर्म है, जिसका निर्वाह किया ही जाना चाहिये।

यदि ऐसा नहीं है तो उन्हें देखना चाहिये कि कहीं वे अपने हाथ-पाँव छोड़ कर पूर्ण रूप से, अपनी प्रगति के लिए समाज पर ही तो निर्भर नहीं हैं। यदि ऐसा है तो भी वे अपनी मनोकामना में कृतकृत्य न होंगे। समाज का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अवसरों को थाली में रख कर आपके सामने ले आये। अवसर तो इस व्यस्त और संघर्ष पूर्ण समाज की गति तथा कोलाहल में बिखरे रहते हैं। जिन्हें आवश्यकता होती है, जो प्रगति करना चाहते हैं, वे अपनी बुद्धि, विवेक तथा सूक्ष्म दृष्टि लगा कर उनकी खोज करते हैं और फिर उन्हें पकड़ कर अपने लक्ष्य-पथ की ओर चल निकलते हैं।

अप्रगति का दोष ईश्वर अथवा प्रारब्ध को देने वालों को यदि नास्तिक मान लिया जाये तो भी अनुचित न होगा। सीधी-सी बात है, जो ईश्वर को मानता है उसमें विश्वास रखता है, वह उसकी दया, करुणा और समदर्शिता में आक्षेप नहीं कर सकता। उस पर दयालु पिता ने अपने सभी पुत्रों के लिये उन्नति तथा प्रगति के द्वार समान रूप से खोल रक्खे हैं, ऐसी दशा में यह मानना या कहना कि ईश्वर की इच्छा नहीं है कि मैं तरक्की करूं। उस सर्वशक्तिमान की प्रतिष्ठा में धृष्टता है। ऐसे नास्तिक की सारी शक्तियाँ और सारी विशेषतायें नकारात्मक होकर कुण्ठित हो जाती हैं।

हाँ प्रारब्ध को एक बार कुछ आरोप अवश्य दिया जा सकता है। तथापि यह अवश्य मानना होगा कि उसकी निषेधात्मक शक्ति में भी हम स्वयं ही दोषी होते हैं। प्रारब्ध इस जन्म में पूर्वजन्म के कर्मों का परिपाक होता है। हो सकता है हमने उस जन्म में दूसरों की प्रगति में बाधा डाली हो, अपनी प्रगति तथा उन्नति को समाज के लिए कष्टदायक बनाया हो और उसी के अनुसार हमारे प्रारब्ध की इस प्रकार निषेधात्मक रचना हुई हो। प्रारब्ध मनुष्य के पूर्ण कर्मों के फलों का ही दूसरा नाम है।

तथापि मनीषियों ने मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता आप बतलाया है। जिस प्रकार किसी ने असत् अथवा निषेधनीय कर्मों द्वारा अपने अभाग्य का निर्माण किया है, उसी प्रकार वह सत् तथा स्वीकार्य कर्मों द्वारा सौभाग्य का निर्माण कर सकता है।

अस्तु, अपनी अप्रगति का दोष किसी दूसरे को देना अथवा उसका कारण कहीं बाहर देखना खोजना गलत है। मनुष्य अपने विचारों, भावनाओं तथा आन्तरिक स्थितियों के अनुसार ही प्रगति अथवा अप्रगति का भागी बनता है। उन्नत उपकारी तथा सामंजस्यपूर्ण लक्ष्य का निर्धारण करिये, अपनी पूरी इच्छा शक्ति के साथ शारीरिक, मानसिक जो भी क्षमतायें हैं पूर्णरूप से लगाइये ओर देखिये कि आपको समाज, ईश्वर, स्वास्थ्य तथा प्रारब्ध का सहयोग मिलता है या नहीं। लक्ष्य जितना ही व्यापक, उन्नत और लोभ रहित होगा यह सारा सहयोग भी उसी अनुपात से मिलेगा और उसी अनुपात से प्रगति होती जायेगी।

साथ ही यह न केवल खेद ही बल्कि आश्चर्य का भी विषय है कि अधिकाँश मनुष्य आर्थिक अथवा भौतिक प्रगति को प्रगति मानते हैं और उसी के लिये लालायित तथा प्रयत्नशील होते हैं। जब कि इससे कहीं ज्यादा सुन्दर और महत्वपूर्ण प्रगतियाँ मानव-जीवन में पड़ी हुई हैं।

चारित्रिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगतियाँ उसी महत्वपूर्ण कोटि की प्रगतियाँ हैं। यदि इन्हें ही मनुष्य जीवन की वास्तविक प्रगतियाँ मान लिया जाये तो भी अत्यधिक उपयुक्त होगा। यदि मनुष्य आर्थिक प्रगति के लिए अपनी शक्ति का व्यय न करके उनका उपयोग इन पुण्य प्रगतियों में लगाये तो निस्संदेह उस सुख, उस आन्तरिक महत्व को पा सकता है, जिसके सन्मुख भौतिक सम्पदायें कोई मोल की भी न रह जायें।

कितना अच्छा हो कि मनुष्य आर्थिक प्रगति के लिये डडडड और पाप, पश्चाताप कमाने के स्थान पर अपने शारीरिक तथा मानसिक विकास की ओर अग्रसर हो संतोषपूर्ण जो ईमानदारी से मिलता है उसी में आवश्यकताओं को पूरा करता हुआ परोपकारी, परसेवी और परमार्थी बने तो समाज ही नहीं सारे संसार का सहयोग उसके लिये झुक पड़े और सारे खजाने उसके लिये खोल दिए जायें। तब भी उसे अपनी मन-शाँति और आत्मिक संतोष के सन्मुख उनकी न तो आवश्यकता रहे और न उसके प्रति आकर्षण। महात्माओं के पास एक कानी-कौड़ी भी नहीं होती पर बड़े-बड़े धनाढ्य तथा राज्याधिकारी भी उनके पैरों पर झुका करते हैं। यह चमत्कार उस आध्यात्मिक चरित्र का ही तो होता है, जिसका विकास वे साँसारिक लिप्साओं से दूर रह कर किया करते हैं।

भौतिकता को छोड़ कर आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर चलने वालों को न तो समाज के सहयोग की अपेक्षा रहती है और न उसके विरोध की शिकायत। इसके लिये न तो धन की आवश्यकता होती है और न अवसर की आवश्यकता। यह तो केवल वह प्रगति है, जो बिना किन्हीं साधनों के स्वयं अपने आप अकेले की जा सकती है। इस प्रगति का विरोधी भी कोई नहीं होता है। यदि कोई होता है तो अपनी ही वृत्तियाँ। मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी वृत्तियों पर नियन्त्रण रखता हुआ, संतोषपूर्वक अपने नैतिक तथा शारीरिक चरित्र का विकास करते हुए आध्यात्मिक प्रगति करे, उसी की कामना करे और उसी के लिये पुरुषार्थ। इसी प्रगति में संसार की सारी प्रगतियाँ और सारे सुख-वैभव सन्निहित हैं। जिसने आध्यात्मिक प्रगति कर ली, उसने मानो सारी प्रगति एक साथ ही कर ली, इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं।


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