परहित सरिस पुण्य नहिं भाई

August 1968

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परमात्मा की कृपा और माता-पिता का उपकार ही साकार होकर हम सबको शरीर रूप में मिला है। इस बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मानव-जीवन की आधार-शिला उपकार ही है। इसलिये हमारा यह जीवन परोपकार में ही लगना चाहिये। इसी में इसकी सार्थकता है और इसी में कल्याण।

परोपकार के सदृश इस संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। अपने अस्तित्व को संसार हित में बलिदान कर देने से जिस महान धर्मफल की प्राप्ति होती है, उसकी तुलना अन्य धार्मिक कर्मकांडों से नहीं की जा सकती। प्रसिद्ध सन्त मोओतजे कहा करते थे कि “यदि मेरे शरीर को पीस कर चूर्ण बना लेने में संसार के एक भी प्राणी का भला हो सकता है तो मैं उसके लिये सहर्ष तैयार हूँ।”

परोपकार के समान पुण्यदाता कोई भी दूसरा धर्म नहीं है। यदि ऐसा होता तो तपस्या में निरत महर्षि दधीचि देवों की भलाई के लिये अपना शरीर नहीं दे देते। वे शरीर की रक्षा करते और तपस्या करके बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त और मुक्ति के लिये प्रयत्न करते रहते। किन्तु अवसर पाते ही उन्होंने तुरन्त ही परोपकार में अपना शरीर दान कर दिया। वे जानते थे कि हजारों वर्ष तप करने पर भी जो मुक्ति कठिनता से मिलती है, वह परोपकार में शरीर त्याग देने से तत्काल सरलतापूर्वक मिल जाती है।

परोपकार में सर्वस्व दे देने वाले एक दधीचि ही नहीं हुए। भारत में तो शिवि, हरिश्चंद्र, मोरध्वज, कर्ण, दिलीप आदि न जाने कितने महापुरुष ऐसे हुए हैं, जिन्होंने परोपकार को ही सर्वश्रेष्ठ धर्म माना और अवसर आने पर उसका सहर्ष निर्वाह भी किया। यह सारे मनीषी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि यह शरीर कल्याण का साधन होने पर भी नाशवान है। मानव-जीवन का कोई ठीक नहीं कि किस समय समाप्त हो जाये। यह तब तक भी चल सकता है, जब तक साधना पूरी हो और बीच में भी समाप्त हो सकता है। जीवन का रहना और न रहना सदा संदिग्ध बना रहता है। शरीर से जहाँ पुण्य कर्म बनते हैं वहाँ कभी प्रमादवश इससे कोई त्रुटि भी हो सकती है। यही साधन साधना के बीच में व्यवधान भी खड़ा कर सकता है।

जीवन-प्रवाह तो ऊँचे-नीचे मार्गों के बीच से होकर बहता है। अस्तु इस शरीर, इस जीवन को परोपकार में समर्पित कर देना साधना का, धर्म का सबसे निरापद मार्ग है। इसी विवेचना के आधार पर इन्होंने अवसर पाते ही अपना जीवन परोपकार में लगा दिया और ऐसे ही सत्पुरुष क्षण-क्षण अपना जीवन परोपकार में ही लगाये चलते हैं। परोपकार से बढ़ कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं है।

प्राणिमात्र का हित, उपकार और कल्याण में रत रहना। मन, वचन, कर्म से दूसरे का हित चाहना और करना, किसी के अहित अथवा पीड़ा का विचार न करना और विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित और विस्तृत करते रहना आदि सारी सदाशयतायें परोपकार ही मानी गई हैं। तथापि इनमें आध्यात्मिक शाँति और निष्कलंक धर्मफल का समावेश तभी होता है, जब इनके पीछे कोई स्वार्थ-भाव निहित न हो। अन्यथा यही पुण्य कर्म आत्मा के लिये एक प्रवंचना बन जायेगा।

परोपकार का भाव तो प्रकृति के समान निःस्वार्थ होना चाहिये। सूर्य, चन्द्र, वायु, नदी, वन, पहाड़ नित्य निरन्तर संसार के उपहार में ही लगे रहते हैं किन्तु उसके बदले में न कुछ माँगते हैं और न ही चाहते हैं। चुपचाप अपना सर्वस्व दान करते रहते हैं। सूर्य नित्य नियम से अपना प्रकाश और ऊष्मा संसार को देने के लिये पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं, किन्तु उसके बदले में किसी से कुछ चाहते नहीं। चन्द्रमा नियम से संसार को आलोक और शीतलता दान करते रहते हैं, किन्तु सर्वथा निःस्वार्थ-भाव से। इसी प्रकार वन-वृक्ष, नदी और पर्वत भी सदैव निःस्वार्थ-भाव से ही अपने फल-फूल, काष्ठ, जल और वनस्पतियाँ संसार को देते हुये कभी कोई प्रतिकार नहीं चाहते।

लोग जाते हैं अधिकारपूर्वक उनकी संपत्ति का भाग लेकर चले आते हैं। उनके भण्डार, उनकी सम्पत्ति सदा सर्वदा संसार हित के लिये खुली पड़ी रहती है। वे उसके लिये ना तो किसी का हाथ रोकते हैं और न प्रतिपादन के लिये हाथ फैलाते हैं। धन्य हैं ऐसे निःस्वार्थ, निष्काम और उदार परोपकारी ऐसे ही प्रतिकार रहित परोपकारी परमात्मा की कृपा और आत्मा की सच्ची शाँति के अधिकारी बनते हैं।

जब जड़ प्रकृति संसार का उपकार करने में इस गहरे निष्कामभाव से लगी रहती हैं तो चेतन होकर मनुष्य संसार के कल्याण में नहीं लग सकता? लग सकता है और आवश्यक लग सकता है। उसे लगाना भी चाहिये। परोपकार में निरत होने से केवल संसार का भला नहीं होता प्रत्युत अपना कल्याण भी होता है। मनुष्य के चरित्र की परीक्षा परोपकार की कसौटी पर ही होती है। जो इसमें अपने को उत्तीर्ण कर लेता है, वह सहज रूप से भवसागर से उत्तीर्ण हो जाता है।

परोपकार का पुण्य मनुष्य को सभ्य-सुसंस्कृत, उच्चविचार और भावना वाला बना देता है। परोपकार से मनुष्य का मन निर्मल और विकार रहित बनता है। उसके जीवन में सतोगुण की वृद्धि और आत्मा में आध्यात्मिक आलोक का समावेश होता है। परोपकार की भावना जितनी उच्च-विशाल और निष्काम होती जाती है, मनुष्य उतना ही परमात्मा के सान्निध्य की ओर बढ़ता जाता है। इस आत्मिक उन्नति और विकास का सुख अनिर्वचनीय है। इसका अनुभव तो वही त्यागी पुरुष कर सकता है, जो परोपकार के यज्ञ में अपने सर्वस्व को समिधा मान कर समर्पित कर देता है।

सत्पुरुषों की पहचान का सबसे बड़ा लक्षण है परमार्थ। कोई कितना ही सभ्य, शिष्ट और सुशील क्यों न दिखाई दे। नम्रता और विनय उसके शब्द-शब्द से टपकती चलती हो, मुख्य पर कितनी ही करुणा और कृतज्ञता का भाव विराजमान क्यों न रहे, यदि उसका जीवन परमार्थ पूर्ण नहीं है, उसके जीवन और वैभव को कोई अंश परोपकार एवं परमार्थ में नहीं लगता तो उसके उस प्रकार का वास्तविक मनुष्य नहीं माना जा सकता, जैसा कि वह ऊपर से दीखता है।

धनाढ्यता का लक्षण धन उपार्जन अथवा संचय की मात्रा नहीं है। उसका लक्षण उदारता ही है। जो जितना अधिक उदार और परोपकार है, वह उतना ही अधिक धनवान है। एक पैसे का उपकार करने वाला गरीब कहीं अधिक धनवान है, उस व्यक्ति की तुलना में जो करोड़ों का स्वामी होकर भी परोपकार के विषय में कृपणता करते हैं। जो परमार्थ में लीन है, तन, मन, धन से परोपकार एक परहित में निरत है, वही सज्जन है, वही सत्पुरुष है और वही धनवान है।

परोपकार केवल मानवीय गुण ही नहीं नहीं वह आध्यात्मिक सद्गुण भी है। इसकी आराधना करने से लोक और परलोक दोनों का बनाव बनता है। इसी गुण पर जहाँ आत्मा का उत्थान निर्भर है, वहाँ संसार और समाज का सृजन, व्यवस्था और विकास की धुरी भी इसी पर निर्भर रहती है। आज यदि समाज के सारे लोग केवल स्वार्थी बन जांय और दूसरों के हित का सम्पादन न करें तो कल ही समाज में घोर अनर्थ घटित होने लगे। अराजकता, संघर्ष और छीना-झपटी का बोल-बाला हो जाये, जो उद्दंड, बली और शक्तिशाली हों, वे सारे साधनों और सम्पत्ति पर अपना एकाधिपत्य स्थापित कर लें और जो सामान्य, साधारण अथवा अपेक्षाकृत निर्बल हों, वे बेचारे पिस कर ही रह जायें। परहित और परोपकार के बिना संसार का क्रम एक क्षण भी नहीं चल सकता। अस्तु आत्मा और समाज के कल्याण के लिये यथासाध्य परोपकार के कार्य करते रहना चाहिये।

माता-पिता सन्तान को जन्म देते हैं। उनके पालन-पोषण और विकास के लिये अपार कष्ट उठाते हैं। धन के लिये परिश्रम करते, सुख और सुविधा के के लिये चिन्ता करते, तन-पेट काट कर उन्नति और विकास की व्यवस्था करते, किन्तु वे यह सब करते हैं, निस्वार्थ भावना से ही। किन्तु माता-पिता को पहले से ही यह पता रहता है कि उनका पुत्र बड़ा होकर सेवा करेगा, उनके लिए सुख और आराम के साथ डडडड। तब भी वे बच्चों की सेवा में हर प्रकार का त्याग एवं उत्सर्ग करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं संसार के कुपुत्रों का उदाहरण देख कर भी और स्वयं भी एक से कष्ट पाते हुए भी दूसरे का पालन -पोषण करते ही रहते हैं।

वे अपनी इस सेवा के पीछे किसी प्रकार के प्रतिकार की भावना नहीं रखते। बच्चे की सेवा वे सेवा-भाव से ही करते हैं। बच्चों द्वारा कष्ट पाने के उदाहरणों को देख कर भी वे सेवा से संकोच नहीं करते। उन्हें उसमें एक आनन्द एक सुख की उपलब्धि होती है। वह सुख, वह आनन्द किसी आशा के कारण नहीं होता है। वह सुख उस परमार्थभाव का ही होता है, जो सन्तान की सेवा में उनके अनजाने ही निहित रहता है। परोपकार के सम्बन्ध में इसी प्रकार माता-पिता की तरह ही निःस्वार्थभाव रखने से उसके द्वारा अनिवर्चनीय आनन्द, आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि होती है।

परोपकार एवं परमार्थ से विमुख रहना समाज के साथ विश्वासघात करने के बराबर है। हम आज जो कुछ हैं या हमारे पास जो कुछ धन-संपत्ति, पद-प्रतिष्ठा और अवसर, संयोग है, वह सब समाज द्वारा हमारे ऊपर उपकार किये जाने का ही फल है। यदि समाज ने हमारी उपेक्षा की होती, हमारे हित से सर्वथा मुख मोड़ लिया होता तो हमारा अस्तित्व ही आपत्ति ग्रस्त हो जाता। थोड़ी दूर भी अपना जीवन चल सकना कठिन हो जाता। अस्तु समाज के प्रत्युपकार के लिए कुछ न करना कृतघ्नता ही होगी, उसकी अपेक्षाओं के प्रति विश्वासघात होगा। जो कि न तो लौकिक दृष्टिकोण से शुभ है और न पारलौकिक दृष्टि से कल्याणकारी। लोक और परलोक शरीर और आत्मा, सारे माननीय अनुबन्धों के मंगल के लिए परोपकार एवं परमार्थ में निरत रहना परमावश्यक है। इससे विमुख होना अपना वर्तमान और भविष्य दोनों को बिगाड़ लेना है। इसी तथ्य और अपने अनुभव के आधार पर ही तो महर्षि व्यास ने कहा है-

“जीवितं सफलं तस्य, यः परार्थोद्यतः सदा” -जीवन उसी का सफल एवं सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त रहता है, निश्चय ही, परोपकारी को न पाप का भय रहता है और न पतन का। वह तो लोक अथवा परलोक सब जगह श्रेय का ही अधिकारी बनता है।


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