अपनों से अपनी बात-

August 1968

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वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रतिपादन की दिशा में बढ़ते कदम

गत अंक में ‘हम अध्यात्म को बुद्धिसंगत एवं वैज्ञानिक स्तर पर प्रतिपादित करेंगे।” लेख के अंतर्गत यह विचार व्यक्त किया गया था कि ‘वर्तमान बुद्धिवादी पीढ़ी के समझ सकने योग्य ढंग एवं आधार पर हमें अध्यात्म की महत्ता एवं उपयोगिता का प्रतिपादन करना चाहिए।’

यह आवश्यकता आज की महती आवश्यकता है। कारण कि पिछले दिनों बुद्धिवाद एवं विज्ञान का जो विकास हुआ है, उसने भौतिक सुविधाओं को भले ही बढ़ाया हो, आध्यात्मिक आस्था को दुर्बल बनाया है। विज्ञान ने जब मनुष्य को एक पेड़-पौधा मात्र बनाकर रख दिया और उसके भीतर किसी आत्मा को मानने से इनकार कर दिया, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत किया, इस सृष्टि को सब कुछ अणुओं की स्वाभाविक गतिविधि के आधार पर स्वसंचालित बताया, तो स्वभावतः विज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर अति प्रामाणिक मानने वाली बुद्धिवादी नई पीढ़ी उसी मान्यता को शिरोधार्य क्यों न करेगी? प्रत्यक्ष है कि विचारशील वर्ग अनास्थावान होता चला जा रहा है और यह एक भयानक परिस्थिति है क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग के पीछे जनता के अन्य वर्गों को चलने के लिये विवश होना पड़ता है। आज के थोड़े-से अनास्थावान बुद्धिजीवी कल परसों अपनी मान्यताओं से समस्त जन-समाज को आच्छादित किये हुए होंगे।

आध्यात्मिक मान्यतायें सदाचार, सहयोग, सद्भाव, सेवा, सद्भावना, पुण्य, संयम एवं त्याग, बलिदान जैसी सत्प्रवृत्तियों की रीढ़ है। आत्म-कल्याण, ईश्वरीय प्रसन्नता, पुण्य-परमार्थ, स्वर्ग-नरक, कर्मफल आदि मान्यताओं के आधार पर ही मनुष्य अपनी चिरसंचित पशुता-पैशाचिकता पर नियन्त्रण करने और लोक-कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक सत्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने में समर्थ होता है। यदि वह आधार ही नष्ट हो गया- यदि उन मान्यताओं को कपोल कल्पित मान लिया गया तो फिर न किसी को संयमी बनने की आवश्यकता अनुभव होगी, न सदाचारी होने की। न पुण्य अभीष्ट होगा, न परमार्थ। न त्याग की बात कोई करेगा, न बलिदान की। फिर मनुष्य “खाओ-पीओ मौज उड़ाओ” के आदर्श को अपना कर हर अनैतिक कार्य करने के लिये तैयार हो जायेगा। ताकि वह अधिक मौज-मजा उड़ाने का अधिक अवसर प्राप्त कर सके।

कानूनी पकड़ एवं दण्ड से बचने का रास्ता अब अतिसरल है। कानून बहुत ही ढीले-पीले हैं। फिर जिन पर कानून पालने के लिए विवश करने की- दण्ड देने-दिलाने की जिम्मेदारी है, वे राज्य कर्मचारी ही कहाँ दूध के धुले हैं? अपराधी से साँठ-गाँठ रखने की कला उन्हें भी आ गई है और उस दुर्बलता से हर भ्रष्टाचारी- हर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला पूरा-पूरा लाभ उठाता है, उठा सकता है। केवल कानून के द्वारा अपराध रोक सकने की बात सोचना उपहासास्पद है। मनुष्य केवल अपनी अन्तरात्मा की पुकार- और ईश्वरीय सत्ता के रोक- अनुग्रह का विचार स्मरण रखकर ही कुमार्ग से बचना और सन्मार्ग अपनाना है। यदि आत्मा और ईश्वर कोई है ही नहीं, कर्मफल देने की कोई अज्ञात और व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर पाप प्रवृत्तियों को अपनाकर शौक-मौज के साधन जुटाने से कोई चूके क्यों? आज यही विचार बुद्धिजीवी पीढ़ी के मस्तिष्क में घूम रहे हैं। और उसका नैतिक स्तर दिन-दिन दुर्बल होता चला जा रहा है।

यह विभीषिका इतनी भयानक है कि इसकी भावी सम्भावनाओं का स्मरण करने मात्र से आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। शुतुरमुर्ग की तरह बालू में मुँह ढक कर खतरा टल गया, ऐसा सोचना मूर्खता है। सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा, ऐसी मान्यता वास्तविकता से दूर है। जहाँ धर्म अध्यात्म का प्रकाश नहीं पहुँचा है वह अफ्रीका आदि प्रदेशों के जंगली लोग अभी भी नर माँस खाते और एक से एक बढ़कर घृणित एवं नृशंस रीति-रिवाज अपनाये बैठे हैं। अपने आप सब कुछ ठीक होने वाला होता तो सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक लाखों वर्षों में वे अपने आपको सभ्यता के उच्च स्तर तक से आने में समर्थ हो गये होते। अपने आप कुछ नहीं होता- सब कुछ करने से होता है। ऋषियों ने लाखों वर्ष तक तप, त्याग, मनन-चिन्तन करके अध्यात्म और धर्म का अति महत्वपूर्ण कलेवर खड़ा किया है। उसे जन-मानस में प्रविष्ट कराने के लिए अगणित साधु ब्राह्मणों ने तिल-तिल करने अपना जीवन जलाया है। अगणित धर्म ग्रंथ लिखे गये हैं और उन्हें पढ़ने, सुनने, समझने तथा हृदयंगम करने की स्थिति उत्पन्न करने के लिये अगणित मानतावादी परम्पराओं या रीति-रिवाजों, प्रक्रियाओं, पूजा-पद्धतियों एवं कर्मकाण्डों का प्रचलन किया है। लगातार उस विचार-धारा से संपर्क बनाये रखने के लिये, उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया है। मन्दिर, तीर्थ, कथा, कीर्तन, पूजा, पाठ, दान-पुण्य, साधन, संयम आदि सारा धर्म प्रकरण इसीलिये है कि मनुष्य की अध्यात्म एवं धर्म के मान्य सिद्धान्तों पर आस्था बनी रहे और वह संयमी, सदाचारी, परमार्थी एवं आदर्शवादी जीवन जीने के लिए- गतिविधियाँ अपनाने के लिये अन्तःप्रेरणा के आधार पर तत्पर हो सके।

यदि ऋषियों द्वारा प्रादुर्भूत धर्म संस्कृति का आविर्भाव न हुआ होता तो वन्य प्रदेशों को उद्धत जंगली जातियों की तरह समस्त जन-समाज पशु प्रवृत्तियां अपनाये होता और उसकी बौद्धिक विशेषता पतनोन्मुख होकर इस संसार पैशाचिक कुकर्मों की आग जला रही होती। ईश्वर अपने आप सब कुछ कर लेगा यह सोचना ठीक नहीं। गत 70 वर्षों में संसार का 70 फीसदी भाग बौद्धिक एवं राजनैतिक स्तर पर साम्यवादी शासन के अंतर्गत आ गया। इसका विवरण गत अंक में दिया जा चुका है। जिस तीव्र गति से अब वह चक्र घूम रहा है उसे देखते हुए अगले 30 वर्ष में शेष 30 प्रतिशत भाग भी उसी मान्यता के क्षेत्र में चला जा सकता है।

बुद्धिवाद और विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित उन मान्यताओं के सम्बन्ध में हमें सतर्क होना होगा जो मनुष्य को अनास्थावान एवं अनैतिक बनने की प्रवृत्ति को बढ़ाती हैं। विचारों को विचारों से- मान्यताओं को मान्यताओं से- प्रतिपादनों को प्रतिपादनों से काटा जाना चाहिए। समय-समय पर यही हुआ भी है। वाममार्गी विचार-धारा को बौद्धों ने हटाया और बौद्ध धर्म के शून्यवाद का समाधान जगद् गुरु शंकराचार्य के प्रबल प्रयत्नों द्वारा हुआ। लोगों को केवल तलवार, बन्दूकों की लड़ाइयाँ ही स्मरण रहती हैं। असली लड़ाइयाँ तो विचारों की लड़ाइयाँ हैं। वे ही जन-समूह के भाग्य का निर्माण करती है। प्रजातंत्र सिद्धान्त के जन्मदाता रूसो और साम्यवाद के प्रवर्तक कार्लमार्क्स की विचारधाराऐं पिछली शताब्दियों से मानव समाज का भाग्य निर्माण करती रही हैं। पूँजीवाद, समाजवाद, अधिनायकवाद की विचारधाराओं ने भी अपने ढंग से अपनी महत्वपूर्ण सूचिकायें प्रस्तुत की हैं। बाह्य संघर्षों की पृष्ठभूमि में मूलतः यह विचारधाराऐं काम करती हैं। देशों और जातियों का उत्थान पतन उनकी आस्थाओं और प्रवृत्तियों के आधार पर ही होता है, होता रहा है, हो सकता है।

उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने वाली आज की बुद्धिवादी और विज्ञानवादी मान्यता जिसे तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती चली जा रही है उसकी भयंकरता को दुर्धर्ष संभावना का मूल्यांकन कम नहीं किया जाना चाहिए। उसका प्रतिरोध करने के लिए तत्परता पूर्वक खड़ा होना चाहिए। युग के प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह महती जिम्मेदारी है। इसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न अवज्ञा। हमें एक ऐसा विचार-मोर्चा खड़ा करना चाहिए जो भौतिकवादी अनास्था से पूरी तरह लोहा ले सकें। यदि यह कार्य सम्पन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानव-जाति के मस्तिष्क को, धर्म संस्कृति और अध्यात्म को अंधकार के गर्त में गिरने से बचा लिया गया। पर यह मोर्चा खड़ा न किया जा सका, उसे सफलता न मिली तो परिणाम प्रत्यक्ष है। कुछ ही दिन बाद हम जंगली संस्कृति के, नास्तिकता के, पशु प्रवृत्तियों के पूरी तरह शिकार हो जायेंगे और लाखों वर्षों की मानवीय संस्कृति आत्मदाह करके अपना करुण अन्त प्रस्तुत करेगी।

समय रहते चेतने में ही बुद्धिमानी है। बुद्धिमत्ता की भूमिका प्रस्तुत करनी चाहिए। वही शुभारम्भ किया भी गया है। गत अंक में ‘अपनों से अपनी बात’ में स्तम्भ में ‘बुद्धि सम्पन्न एवं विज्ञान सम्पन्न अध्यात्म के प्रतिपादन’ की चर्चा इसी दृष्टि से की गई है। यह कहना सही नहीं कि धर्म, अध्यात्म-ईश्वर आत्मा आदि का प्रतिपादन बुद्धि का नहीं श्रद्धा का मिश्रण है। अन्ध-श्रद्धा नहीं- विवेक सम्पन्न श्रद्धा ही स्थिर और समर्थ हो सकती है। प्राचीन काल के ऋषियों ने भी बुद्धि की शक्ति से ही अध्यात्म का सारा कलेवर खड़ा किया गया था। प्राचीन काल में श्रद्धा, शास्त्र और आप्त वचन जन मान्यता के आधार थे। अब यदि दिमाग, तर्क और प्रमाण उसके आधार बन गये हैं तो कोई कारण नहीं कि आज की जन मनोभूमि के अनुसार अध्यात्म सिद्धान्तों का प्रतिपादन और समर्थन न किया जा सके।

कार्य कठिन है। अति विस्तृत और अति श्रम साध्य है। उसके लिए भारी मनोयोग, अध्यात्म और व्युत्पन्न मति की आवश्यकता है पर इस संसार में अभाव तो किसी वस्तु का नहीं। आखिर कठिन काम भी तो मनुष्यों ने ही किये हैं। यह काम भी भी ऐसा नहीं है जो न किया जा सके। सही आधार पर किये गये प्रतिपादन जब मनुष्य के अन्तःकरण में बैठ जाते हैं तो उनके अनुसार वे आचरण भी करते हैं। गान्धी युग में जब लोगों को “स्वतन्त्रता प्राप्ति की उपयोगिता और उसके लिए त्याग बलिदान की आवश्यकता” समझाई गई तो लाखों लोगों ने बड़े से बड़े त्याग, बलिदान उसके लिए किये। हजारों ने फाँसी और गोली खाकर अपने जीवन निछावर कर दिये। ठीक आधार पर पक्की तरह जो आदर्श लोगों सिखा समझा दिया जाता है उसके लिए वे कष्ट सहते हुए भी आगे बढ़ते हैं। प्राचीन काल में धैर्य और आध्यात्म की मान्यताएँ जब लोगों के गले उतर गई थीं तो भारतीय समाज का हर सदस्य देवोपम उत्कृष्ट जीवन जीने में अपनी शान और बहादुरी समझता था भले ही उसे उसमें कितना ही बड़ा कष्ट क्यों न सहना पड़ता रहा हो। आगे भी यही रीति-नीति बरती जीती रहेगी। जब भी कोई आदर्श उस युग की मनोभूमि का आधार लेकर सिखाया समझाया जायेगा तो वस्तु स्थिति को लोग समझेंगे और उस पर आवरण भी करेंगे। यदि हम अध्यात्मवादी मान्यताओं का आज विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सकते हों तो निस्संदेह जन समाज को उसे स्वीकार करने में काई आपत्ति न होगी। और यह भी निश्चित है कि जो बात अन्तःकरण की गहराई में स्वीकार की जाती वह आचरण में भी अवश्य उतरती हैं।

आज अध्यात्म का प्रतिपादन जिन आदर्शों पर जिस ढंग से किया जाता है वे जन मानस में गहराई तक प्रवेश नहीं करते। कथा, पुराणों, धर्म शास्त्रों, किम्वदंतियों एवं परंपराओं की प्रामाणिकता पर अब लोगों के मन में अति संदेह उत्पन्न हो गया है। वे उन्हें किन्हीं व्यक्तियों की ऐसी कल्पनायें मानते हैं जिनकी उपयोगिता एवं वास्तविकता प्रमाणिकता नहीं होती। शंका शंकित और संदिग्ध मन से हम धर्मोपदेश सुना तो लेते हैं पर उसकी यथार्थता एवं व्यवहारिकता पर विश्वास नहीं करते। यही कारण है कि धर्मोपदेशों का विशालकाय कलेवर इतने बड़े आडम्बर के साथ विद्यमान रहते हुए भी उसका जन जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। धर्म के बाह्य आवरणों को एक-एक पक्षपात के रूप से अपना लेते हैं पर आचरण में उन आदर्शों का प्रवेश तनिक भी नहीं होने देते जो धर्म की आत्मा है। इसका एक ही कारण है कि अध्यात्म को उन आदर्शों पर नहीं समझाया जाता जो आज की जन मनोभूमि के अनुरूप हों। आज हर व्यक्ति तर्क, प्रमाण और विज्ञान को आधार मानता है। इस युग में कोई भी मान्यता केवल इन तीन आधारों पर ही प्रामाणिक एवं ग्राह्य बन सकती है।

इस युग में मनीषियों का पवित्र कर्त्तव्य है कि वे अपने समय की आवश्यकता को समझें और उसको एक व्यवस्थित विचार पद्धति विनिर्मित करने में संलग्न हों। युग-निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए पिछले दिनों जीवन जीने की कला का- व्यवहारिक अध्यात्म का- प्रतिपादन किया भी जा रहा है। लगभग दो-ढ़ाई सौ ट्रैक्ट इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए छपे हैं। ‘अखण्ड-ज्योति’ और ‘युग-निर्माण-योजना’ दोनों ही पत्रिकाएं इसी प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न हैं और आवश्यक गोला-बारूद- विचार प्रवाह प्रस्तुत करती चली आ रही हैं। आगे यह प्रयत्न भी इसी गति से और भी अधिक तीव्र गति में आगे बढ़ेंगे।

इसी दिशा में एक नया प्रयत्न गत गायत्री जयन्ती से आरम्भ किया गया है, वह यह है कि उच्चस्तरीय अध्यात्म का आध्यात्मिक दर्शन शास्त्र एवं तत्वज्ञान का प्रतिपादन विज्ञान की वर्तमान धाराओं के अनुरूप करने के लिए विशाल पैमाने पर कार्य आरम्भ किया जायेगा। ‘विचार विज्ञान’ और पदार्थ विज्ञान-फिलासफी और साईंस की लगभग 600 शाखायें हैं। पिछले दिनों संसार भर में इन शाखाओं ने भारी प्रगति की है। आज से बीस वर्ष पूर्व यह कहा जाता था कि- “जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहाँ से अध्यात्म आरम्भ होता है।” “विज्ञान और अध्यात्म का क्षेत्र सर्वथा पृथक् एक दूसरे से सर्वथा असंबद्ध है।” पर अब ऐसी स्थिति नहीं रही। गत बीत वर्षों में विज्ञान ने अति तीव्रगति से प्रगति की है और उसका हर चरण अध्यात्म के समर्थन की ओर बढ़ा है। लगता है कि यह प्रगति क्रम जारी रहा तो अगले पचास वर्षों में अध्यात्म और विज्ञान दोनों इतने समीप आ जायेंगे कि दोनों का एकीकरण एवं समन्वय असम्भव न रहेगा।

सर्व साधारण की जानकारी प्रायः बहुत पिछड़ी हुई बनी रहती है। प्रगति के नवीन चरण उसमें प्रायः अविज्ञात ही बने रहते हैं। डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त अब नयी खोजों के आधार पर उपहासास्पद बनता चला जा रहा है और फ्रायड के कामुकता समर्थक मनोविज्ञान के अब धुर्रे उड़ा दिये गये हैं। नवीन शोधन में विकासवाद और मनोविज्ञान को अध्यात्म की दिशा में काफी आगे तक बढ़ा दिया है और लगता है उनके बढ़ते जाते कदम अध्यात्म के समर्थन की दिशा में ही बढ़ रहे हैं। अणुविज्ञान के आचार्य आइन्स्टाइन की नवीन खोजों ने अणु-सत्ता की पीठ पर एक सचेतन उत्कृष्ट सत्ता के (ईश्वर के) आस्तित्व को स्वीकार किया है। पर वह उतने ऊँचे स्तर के क्षेत्र में है कि सर्व साधारण तक उसकी जानकारी मुद्दतों बाद पहुँचेगी और तब तक अनास्थावादी मान्यताएँ इतनी प्रखर हो जायेंगी कि उन्हें हटाना, मिटाना शक्य न रहेगा। आदिम पशु प्रवृत्तियों को हटाकर दैवी संस्कृति का मनुष्य को अभ्यस्त बनाने में लाखों वर्षों का लम्बा समय लगा है। यदि अनास्था पुनः आदिम युग में जा पहुँची तो उसे फिर नये सिरे से आस्था के रूप में परिणत करना बहुत कठिन हो जायेगा। इसलिये समय की पुकार है कि प्रतिरोध आज से ही, इसी घड़ी से ही आरम्भ किया जाये। चूहे के एक छोटे से बिल से यदि पानी चूने लगे तो थोड़े समय में ही बढ़ते-बढ़ते वह विशालकाय बाँध को ढहा देने में समर्थ होता है। छेद का पानी समय रहते रोका जाना चाहिये। अब तो यह छेद काफी चौड़ा हो चुका है। अब भी इसे न रोका गया तो मानवीय संस्कृति के लिये एक अति दुखदायी संकट उत्पन्न हो जायेगा।

दर्शन और तत्वज्ञान के उद्गम से ही कोई विचार-पद्धति एवं आचरण प्रक्रिया प्रादुर्भूत होती है। अध्यात्म का दर्शन और तत्वज्ञान प्रतिपादन करने के लिये ही वेद, उपनिषद्, दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक आदि का आविर्भाव हुआ। ईश्वर, जीव, प्रकृति के विभिन्न भेद-उपभेदों की चर्चा रही। दर्शन ही विचार और आचरण का मूल आधार है। इसलिये ईश्वर, आत्मा, धर्म, स्वभाव, कर्मफल आदि के दार्शनिक सिद्धाँतों को सही ढंग से प्रतिपादित करना होगा। संसार की दिशा मोड़ने वाले दार्शनिकों ने मानवीय आस्थाओं का मूलभूत विश्लेषण अपने ढंग से किया है और यदि व लोगों को ग्राह्य हुआ तो निस्संदेह जन समूह की गतिविधि भी उसी दिशा में सोचने, करने और बढ़ने के लिये प्रेरित प्रभावित हुई है। अब भी यही किया जाना है। हम अध्यात्म के दार्शनिक सिद्धाँतों का विज्ञान, तर्क यह प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सके तो निस्संदेह जन-मानस को पुनः उसी प्रकार सोचने और करने को तत्पर किया जा सकता है, जिस पर कि भारतीय जनता लाखों वर्षों तक आरूढ़ रहकर समस्त विश्व का प्रकाशपूर्ण मार्ग-दर्शन करती रही है।

कार्य जितना महत्वपूर्ण है उतना ही विशाल भी है। इसे सम्पन्न करने की प्रेरणा मिली है तो किया यह भी जायेगा। इस दिशा में निम्न कदम उठाये गये हैं-

(1) विचार-विज्ञान और पदार्थ-विज्ञान को लगभग 600 शाखा-प्रशाखायें अब तक विकसित हुई हैं। उनकी आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के लिये आवश्यक अध्ययन एक विद्यार्थी के रूप में हमने आरम्भ कर दिया है। इस सम्बन्ध में जो साहित्य उपलब्ध हैं सो देश से तथा विदेशों से मंगाया है। ग्रेजुएट स्तर के लोगों से उनके जाने समझे हुये विषयों पर नोट तैयार कराये जा रहे हैं ताकि जो विषय अनेक पुस्तकें पढ़ने पर समझा जा सकता है, उसे नोटों के आधार पर कम समय में समझा जा सके।

(2) अध्यात्म को बुद्धिवादी एवं वैज्ञानिक आधार पर प्रतिपादित करने के लिये यत्र-तत्र कतिपय विद्वानों ने भी छुट-पुट कार्य किया है। इस सबको जानना, समझना एवं ढूंढ़ना भी एक बड़ा कार्य है। विदेशों में भी जब-तब कोई-कोई विचारक इस दिशा में सोचते और प्रयत्न करते रहे हैं। किन्हीं-किन्हीं प्रकाशकों ने एकाध पुस्तक जहाँ-तहों से छापी भी हैं। किन्हीं पत्र-पत्रिकाओं में भी जब-तब इस सम्बन्ध में कुछ लेख छपते रहते हैं। इस सामग्री को एकत्रित करना, पढ़ना और समझना भी आजकल हमारे अध्ययन का एक प्रिय विषय है।

(3) संस्कृत साहित्य में- शास्त्रों में अध्यात्म विषयों का विवेचन बहुत हुआ है उसमें से बहुत-सा एक दूसरे से भिन्न ही नहीं विरोधी भी है। इस संदर्भ में हमें सभी कुछ पढ़ना, समझना होगा और उन परस्पर विरोधी मान्यताओं में से वह तथ्य निकालना पड़ेगा जिनके आधार पर अध्यात्म की एक सुव्यवस्थित रूप-रेखा बन सके और किसी जिज्ञासु के सामने क्रमबद्ध रूप से एक मान्य प्रक्रिया की तरह रखा जा सके।

(4) अध्यात्म द्वारा कितने ही व्यक्ति अपने निजी जीवन में कितने ही प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर चुके हैं। जिन अष्ट सिद्धियों और नव-निद्धियों का वर्णन योग-शास्त्रों में मिलता है। उनको प्रत्यक्ष प्रदर्शित करने वाले एवं दूसरों को उन विशेषताओं से लाभान्वित करने वाले एवं विश्वास परिपक्व करने वाले कितने ही व्यक्ति हुये हैं। उनके प्रामाणिक विवरण उपलब्ध करने का भी शोध कार्य चल रहा है। यों किंवदंतियों के रूप में तो हर बाबाजी के कितने ही चमत्कारों की दन्त कथायें प्रचलित हैं, पर उनसे कुछ काम चलता नहीं। विवरण प्रामाणिक हों और उनकी सचाई सिद्ध की जा सकती हो तभी कोई बुद्धिवादी उस पर भरोसा करेगा। इस सम्बन्ध में शोध इसलिये हो रहा है कि लोग यह जान सकें कि अणु एवं तत्व ही सब कुछ नहीं है। इसके ऊपर भी कोई ऐसी सत्ता है जो साइन्स के मोटे नियमों को झुठला देती है और ऐसे कार्य कर दिखाती है जिसका समाधान साइंस के सिद्धांतों से किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। यह चमत्कार अध्यात्म विद्या की पुष्टि में बहुत सहायक हो सकते हैं।

(5) नई या पुरानी पत्र-पत्रिकाओं में छपे उपरोक्त संदर्भ के लेखों एवं समाचारों में से अपने काम की वस्तु तलाशी जा रही है।

जब यह अध्ययन एवं संकलन समुचित मात्रा में जमा हो जायेगा तब एक-एक अध्यात्म सिद्धाँत का प्रतिपादन विज्ञान एवं तत्व-ज्ञान की अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं द्वारा करने के लिये कलम उठाई जायेगी। कुछ लिखा तभी जायेगा जब प्रतिपादित विषयों की पुष्टि के लिये अनेकों आधारों द्वारा प्रमाणित कर सकने लायक प्रचुर सामग्री जमा हो जाये। यों इस सम्बन्ध में सामान्य चर्चा एवं जानकारी “अखण्ड-ज्योति” के अक्टूबर अंक में प्रारम्भ कर दी जायेगी, पर उसका ठोस प्रतिपादन समग्र आधार इकट्ठे हो जाने पर ही किया जायेगा।

हमारा कार्य काल अब अति स्वल्प- मात्र तीन वर्ष शेष है। इसलिये इस कार्य की प्रगति संतोष जनक स्तर तक पहुँचाने के लिये हमें अत्यधिक कार्य भार सहन करना पड़ेगा। अतएव सुविधा की दृष्टि से इस प्रयोजन के लिये कुछ साथी सहगामियों की आवश्यकता पड़ेगी। हम चाहते हैं “अखण्ड-ज्योति” परिवार के सदस्यों में से कुछ ऐसे लोग इस कार्य में हाथ बंटाने के लिये आगे आवें। (1) जिनकी शिक्षा ग्रेजुएट स्तर की हो (2) जो अध्ययनशील प्रकृति के हों। जिनको पढ़ने में मन लगता हो और समझ आता हो (3) जिनका जीवन-क्रम अति व्याप्त न हो और जो नियमित रूप से कुछ समय बिना किसी अर्थ या डडडड लाभ की आकांक्षा किये लगाते रह सकें।

ऐसे व्यक्ति दो प्रकार के हो सकते हैं (1) जो अपनी निजी कार्य करते जायें इस कार्य में थोड़ा समय अपने घर रहते हुये ही लगाते रह सकें। (2) वे जिनके ऊपर आर्थिक उपार्जन की जिम्मेदारी नहीं है। परिवार के उत्तरदायित्व से जो निवृत्त हो चुके हैं या जिन पर हैं ही नहीं। ऐसे व्यक्ति मथुरा आकर रह सकते हैं, उनके भोजन आदि का खर्च तो हमारे चौके में चलता रहेगा। जो यहाँ रहेंगे वे अध्ययन कार्य यहीं रहकर करते रहेंगे और हमारे कार्य में सहयोग करते रहेंगे। पर जो अपने घर रहकर काम करना चाहें उनके लिये लिखित क्रिया-पद्धति रहेगी। ऐसे महानुभाव कार्य आरम्भ करने से पूर्व एक बार मथुरा आकर मिल लें तो उनकी मनोभूमि और परिस्थिति के अनुरूप कार्य करने की पद्धति और भी अच्छी तरह बताई समझाई जा सकती है।

(1) विचार-विज्ञान और पदार्थ-विज्ञान की जो शाखायें पढ़ी हों उनका सामान्य ज्ञान एवं परिचय प्रमाण और उदाहरणार्थ समेत संक्षिप्त एवं सरल रीति से इस प्रकार नोट्स बनाकर लिख भेजें, जिन्हें पढ़कर उस विषय को शाखा-प्रशाखाओं समेत भली प्रकार समझा जा सकता है। विचार-विज्ञान के अंतर्गत- मनोविज्ञान, भारतीय तथा विदेशी दर्शन, तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षा-विज्ञान, नीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, नागरिक शास्त्र, समाज शास्त्र, मानवीय संस्कृति का इतिहास, अन्तर्राष्ट्रीयता, भाषा शास्त्र, संगीत शास्त्र इत्यादि-इत्यादि। और पदार्थ विज्ञान के अंतर्गत भौतिकी, रसायन, जीव-विज्ञान, शरीर-विज्ञान, प्रजनन-विज्ञान, वंश-विज्ञान, कीटाणु विज्ञान, भू-विज्ञान, खनिज-विज्ञान, खगोल-विज्ञान, गणित, अंकशास्त्र (स्टेस्टिक्स) इत्यादि-इत्यादि।

इन सभी विषयों का जितना अंश स्कूल, कालेजों में पढ़ाया जाता है उतना सामान्य ज्ञान इस विषयों के अध्यापकों द्वारा नोट्स लिख कर संकलित किया जाना है। इन विषयों पर जो उच्च स्तरीय शीघ्र कार्य हो रहा है उसके लिये देशी और विदेशी विश्व विद्यालयों में अलग ढूंढ़-खोज का क्रम चलाया जायेगा। उन विषयों पर पी.एच.डी. करने वालों ने जो “थीसिस” लिखे होंगे, उन्हें ढूंढ़ा पढ़ा जायेगा और उनमें जो अपने काम के विषय होंगे उन्हें इकट्ठा किया जायेगा।

(2) अध्यात्म नीति, सदाचार आदि विषयों पर जिन पुस्तकों में वैज्ञानिक एवं बुद्धिवादी ढंग से विचार किया गया है उन्हें अपनी समीपवर्ती लायब्रेरियों में ढूंढ़ना, उनकी लिस्ट बनाना। उन लिस्टों को देखकर यह सोचा जायेगा कि उनमें से किस का कौन अंश अपने लिये संग्राह्य एवं उपयोगी है। ऐसी पुस्तकें विश्व विद्यालयों, कालेजों की लायब्रेरियों तथा बड़े पुस्तकालयों में, थियोसोफिकल सोसायटी आदि के स्वाध्याय कक्षों में, बड़े बुकसेलरों के यहाँ ढूंढ़ी जा सकती है। जहाँ पढ़ने को मिल सकती हों वहाँ उस तरह और जहाँ खरीदनी पड़े वहाँ खरीदा जा सकता है। इन पुस्तकों में से अनेक काम के साराँश नोट किये जायें।

(3) अध्यात्म की विभिन्न साधना पद्धतियों के बारे में जो विधान हों उनका भी संग्रह किया जाय। चमत्कारों, सिद्धियों एवं अलौकिक संदर्भों को इकट्ठा किया जाय। चमत्कारों, सिद्धियों एवं ऐसे अलौकिक संदर्भों को इकट्ठा किया जाय जिनसे आत्मा की स्थिति और शक्ति का परिचय मिलता है। पुस्तकों के अतिरिक्त ऐसे विषय पत्र-पत्रिकाओं में भी ढूंढ़े जा सकते हैं।

(4) ऐसे लोगों से संपर्क स्थापित करना जो विषय में दिलचस्पी रखते हों, उनसे उपरोक्त विषय की जानकारियाँ तथा पुस्तकों के बारे में पूछताछ करना, यदि उनके पास कुछ उपयोगी पुस्तकें हों तो पढ़ने के लिए लेना।

(5) अपने मन से तथा अपने संपर्क क्षेत्र के किन्हीं मनीषियों के मन से अपने विषय की कुछ संगतियां, जानकारियाँ उपलब्ध हों उन्हें नोट करते रहना और यहां भेजना। अपने विषय में उपयोगी सिद्ध हो सकने वाली पुस्तकों के लेखकों तथा प्रकाशकों के पूरे पते मालूम करना और उनसे पत्र-व्यवहार करके अभीष्ट वस्तुयें उपलब्ध करने की तैयारी करना।

चेष्टा यह की जानी चाहिए कि अपने विषय का साहित्य पढ़ने के लिये उधार मिल जाय, पर जहाँ ऐसा सम्भव न हो वहाँ आवश्यक पुस्तकें खरीदी भी जायेंगी। जिनके पास समय हो उन्हें यदि वे अपने यहाँ ऐसी पुस्तकें ढूंढ़ न सकेंगे तो अन्यत्र से उपलब्ध करके पुस्तकें उनके पास भेजी जाती रहेंगी और उनमें से काम के संदर्भ एकत्रित किये जाते रहेंगे।

जिन्हें इस संदर्भ से कुछ जानकारी हो, कोई सुझाव या परामर्श देने हों, जो कुछ समय लगा सकते हों, मथुरा आकर रह सकते हों, उन सभी स्वजनों का सहयोग इन पंक्तियों द्वारा सादर आमन्त्रित किया जा रहा है। कार्य की विशालता और महानता को देखते हुये परिवार के प्रबुद्ध परिजन इस दिशा में हमारा हाथ बंटायेंगे ऐसी आशा है।


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