अनन्त आनन्द का स्रोत आध्यात्मिक जीवन

August 1968

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आज हम उस आध्यात्मिक मार्ग को- जिस पर आगे चल कर शाश्वत सुख, अक्षय शाँति और अनिवर्चनीय संतोष का साक्षात्कार होता है- छोड़ कर भौतिकता के उस मार्ग पर दौड़ पड़े हैं, जिस पर अशाँति और असंतोष के सिवाय कुछ भी मिल सकने की सम्भावना नहीं। यही कारण है कि आजीवन सुख-शाँति के लिये लालायित तथा प्रयत्नशील रहने पर भी दुखी और अशाँत रहते हैं। विपरीत मार्ग पर अनुकूलता के मिलने का प्रश्न ही नहीं।

मनुष्यों के स्थायी सुख की समस्या हल करने के लिये समय-समय पर मार्ग-दर्शन कराने वाले अनेक लोग आते रहे और अपने-अपने ढंग से संसार का निर्देश तथा उपदेश करते रहे। उनके मानने वाले भी हुए और शीघ्र ही उस एक वर्ग का एक सम्प्रदाय बन गया। इस प्रकार धार्मिक वर्गों अथवा सम्प्रदायों, मत-मतान्तरों की संख्या तो बढ़ती गई किन्तु मूल समस्या जहाँ की तहाँ बनी रही।

सारे मत-मतान्तरों और सम्प्रदायों का दावा है कि उनका मार्ग और उनके उपदेश सच्चे हैं। मनुष्य को शाश्वत सुख की ओर ले जाने वाले हैं। जो उनका अनुसरण करेगा, स्वर्ग, मुक्ति अथवा मोक्ष का अधिकारी बनेगा, परमात्मा के सान्निध्य में पहुंच कर अमृत-पद प्राप्त करेगा। किन्तु सत्य उनके दावे के बिल्कुल विपरीत दृष्टिगोचर होता है। अन्य लोगों की बात तो दूर स्वयं उन सम्प्रदायों को मानने वाले, उनके उपदेशों और सिद्धांतों पर ईमान लाने वाले कष्टों के बीच यातना पूर्ण जीवन बिताते देखे जाते हैं। वर्तमान में तो वे सुखी नहीं हैं, भविष्य में भी सम्भावना नहीं दीखती।

इन विभिन्न सम्प्रदायों का प्रचार करने वालों का भले ही यह मन्तव्य न रहा हो किन्तु प्रत्यक्ष में देखा यह जाता है कि वे मनुष्य के लिये सुख के हेतु न बन कर विरोध एवं विद्वेष के कारण बन गये। उनके अनुयायी असमान सम्प्रदाय वालों से ही नहीं अपनी शाखाओं, प्रशाखाओं से लड़ने-झगड़ने और घृणा करने लगे। ऐसी प्रतिकूल अवस्था में सुख-शाँति कहाँ?

निश्चय ही सभी धर्मों, मजहबों, सम्प्रदायों और मतों का मूल मन्तव्य और आधारभूत सिद्धांत सुखदायक ही हैं, और यदि उनका ईमानदारी से पालन किया जाये तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य दुखी बना रहे। किन्तु कठिनाई तो यह है कि लोग धर्म के सच्चे स्वरूप और वास्तविक तत्व को भूल कर बाह्य क्रियाओं, रूढ़ियों तथा परम्पराओं के अन्ध-पालन को ही सर्वाधिक महत्व देने लगते हैं, आन्तरिक पवित्रता और सत्याचरण की ओर ध्यान नहीं देते। परमात्मा को सर्वव्यापी और सर्वाधार मानते हुए भी अपने भिन्न अस्तित्व की ही भावना रखते हैं। सारे मनुष्यों को उसी का अंश कहते हुए भी किसी से भ्रातृत्व-भाव रखने को तैयार नहीं। सबमें समानता की मान्यता रखते हुए भी जिस प्रकार अपने लिये सुख-सुविधा, न्याय और उदारता आदि की अपेक्षा करते हैं, उस प्रकार दूसरों के लिए उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करते। वास्तविकता यह है कि उनके यह सब आदर्श केवल मुख से कहने भर के लिये ही होते हैं, आचरण में उनका अस्तित्व शून्य ही रहता है।

व्यक्तिगत स्वार्थ के सम्मुख उन्हें मानवता, एकता, बन्धुत्व, एकात्मता, सत्य अथवा न्याय के आधारभूत सिद्धांतों को तिलाँजलि देते देर नहीं लगती। जहाँ हृदयों में विषमता और स्वार्थपरता का विष भरा हो वहाँ धर्म के सिद्धांतों का मौखिक प्रतिपादन क्या काम आ सकता है? मनुष्य धर्म अथवा आध्यात्मिकता का सत्यस्वरूप समझें और उन्हें नित्याचरण में प्रस्फुटित करने लगे तो सुख-शाँति के लिये नित्य नये सम्प्रदायों तथा सिद्धांतों की आवश्यकता ही न रह जाये। यदि आज हम सब विविध मतमतान्तरों के भ्रमजाल में न पड़ कर इस एक सत्य को अन्तःकरण में धारण करके तदनुरूप आचरण करने लगें कि सृष्टि के सारे प्राणी ईश्वर से प्रवाहित एक ही दैवी तत्व के भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं, हम सबमें एक ही आत्मा ओत-प्रोत है और हम सबके सुख-दुख समान हैं तो निश्चय ही संसार के संकटों तथा दुख से मुक्त होकर शाश्वत सुख-शाँति के अधिकारी बन जायें। एकात्मता का यह भाव कोई कठिन बात नहीं है, आवश्यकता केवल उदारतापूर्वक विचार और विश्वास करने की है। सत्य को एक बार साहसपूर्वक स्वीकार कर लेने से मनुष्य का मस्तिष्क मुक्त होकर संकीर्ण सीमाओं के बाहर निकल कर सर्वव्यापी अनुभूति से ओतप्रोत हो जाता है।

यह अखिल विश्व एक ही अनन्त चैतन्य सत्ता से ओत-प्रोत है, जिसे परमात्म-तत्व भी कहा जाता है। न तो वह किसी से भिन्न है और न कोई उससे ही। सम्पूर्ण सृष्टि वस्तुतः उसी एक अगोचर परमात्म-तत्व की दृश्यमान अभिव्यक्ति है। हम सब उसी से उत्पन्न होते हैं, उसी में रहते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं, उससे भिन्न हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। हमारा जीवन उसी दिव्य प्रवाह की एक तरंग है, जो उसी से उठती और उसी में रमण करती रहती है। अन्तर केवल इतना है कि परम प्रवाह अनन्त, असीम और अगाध है और हम सब उस अपरिमेय कल्लोल की छोटी-छोटी कलायें हैं। भिन्न दीखते हुए हम और हमारा मूल, मूलरूप में उसी प्रकार एक हैं, जिस प्रकार एक किरण और किरणमाली सूर्य।

इस एक सत्य को स्वीकार कर लेने पर, कि अनन्त-जीवन रूप परमात्मा के साथ हमारी एकात्मता है, मनुष्य का मन बन्धन रहित होकर निष्पक्ष बन जाता है। तदनुसार ही उसका जीवन ढल जाता है। क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसकी चिन्ता उसे नहीं करनी पड़ती, वह अनन्त एवं चेतन शक्ति स्वयं ही उसकी जीवन गति को नियन्त्रित एवं निर्देशित करने लगती है। जो दिव्य प्रवाह सारी सृष्टि में एक रस व्याप्त है, उसी में प्रवाहित होने लगने से यह भार स्वरूप संसार आनन्द का अगाध भण्डार अनुभव होने लगता है। जैसे-जैसे मनुष्य उस अनन्त जीवन के साथ अपने अंश रूप जीवन का ऐक्य अनुभव करता जाता है, वह वैसे-वैसे स्वर्गीय वातावरण में पहुँचता जाता है। उसकी समस्त आवश्यकतायें अपने आप पूरी होने लगती हैं- उसकी दुर्बलता-सबलता, निस्तेजता-तेजस्विता, भय-निर्भयता, शंका-समाधान, दुख-सुख और शोक-संताप में बदलने लगते हैं। उसे शाँति, शक्ति और समष्टि का साक्षात्कार होने लगता है।

मनुष्य के लिये दुखों का कोई कारण नहीं है। वह तो स्वयं ही सुख का स्वरूप है। दुख का कारण उसका स्वयं का अहंभाव है, जिसके आधार पर वह पिता-पुत्र, स्वजन, सम्बन्धियों के संकीर्ण घेरे में घिरा अपना सत्यस्वरूप नहीं पहचान पाता। अपना सम्बन्ध आत्मा से स्थापित करने के बजाय मोहवश संसार के असत्य नाते-रिश्तों में फँसा रहता है। आत्मा ही हमारा सच्चा बन्धु और हितैषी है- ऐसा विश्वास लेकर चलने वाले संकीर्णता से निकल कर व्यापकता की ओर अग्रसर होने लगते हैं, तब उस दशा में उनकी मनुष्य ही नहीं प्राणी मात्र अपने बन्धु और हितैषी दिखलाई देने लगते हैं। पशु-पक्षी और पेड़-पौधों में मित्र भाव उत्पन्न हो जाता है। सम्पूर्ण जगत् के अपने हो जाते हैं। इस विभुत्वपूर्ण स्थिति में आनन्द के अतिरिक्त और कौन-सी अनुभूति हो सकती है?

लोगों की यह धारणा भ्रांतिमूलक है कि परमात्मा किसी को सुखी अथवा समृद्धिशाली बनाता है। परमात्मा स्वयं अपने हाथ से किसी को वैसा नहीं बनाता। मनुष्य स्वयं ही अपने आचरणों से वैसा बन जाता है। जो जितना ही सर्वमूल परमात्म-तत्व की ओर अभिमुख होकर उसके आदेशों का पालन करता जायेगा, वह उतना ही आपसे आप सुखी और समृद्धिशाली बनता जायेगा। इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् ने गीता में कहा है- ‘‘आत्मा ही आत्मा का बन्धु और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। अर्थात् हम स्वयं ही अपने मित्र और स्वयं ही अपने शत्रु हैं और कोई दूसरा हमारा मित्र अथवा शत्रु नहीं है। जितने ही हम अपने अन्दर प्रवाहमान परमतत्व के प्रति अनुकूल होते जायेंगे, जगत् में हमारा और हमारे प्रति मित्र-भाव बढ़ता जायेगा और जितना ही हम इसके विपरीत डडडड में आचरण करेंगे, शत्रु-भाव की वृद्धि करते जायेंगे। जितना ही हम अपने आदर्शों को उन्नत और अपने हृदय को दिव्य-शक्ति की ओर उन्मुख होने का अवसर देंगे उतना ही एकात्मता से उद्भूत आनन्द के अधिकारी बन जायेंगे।

अहंकार जन्य भौतिक भावना ही दुखों का मूल कारण है। हमारी आत्मा की परिधि जितनी संकीर्ण होती जाती है, व्यक्तित्व का दायरा जितना छोटा होता जाता है उतनी ही घुटन हमें अनुभव होती है। इसके विपरीत ज्यों-ज्यों हम अध्यात्मवाद की ओर, आत्मा एवं परमात्मा के ऐक्य की ओर प्रसार करते जायेंगे, हम उन्मुक्त पक्षी की भाँति अनन्त के आनन्द-प्रवाह में बहने लगेंगे। अध्यात्मवाद का सारा तत्व केवल इस एक मान्यता में सन्निहित है कि हम सब एक ही दिव्य-प्रवाह की तरंगें हैं, जो एक साथ उसमें रमण कर रही हैं। हम सब न तो एक दूसरे से भिन्न हैं और न असमान। सर्वसाम्य ही हमारा व्यापक और वास्तविक स्वरूप है। हम सबको अपने समान समझें। दूसरों के सुख-दुख को अपना अनुभव करें। दूसरों की कठिनाइयों को अपनी कठिनाई और दूसरों की सुविधाओं को अपनी सुविधा मान कर चलें तो अन्याय अथवा स्वार्थ की कोई परिस्थिति ही न उत्पन्न हो। सभी भाई-भाई की तरह एक दूसरे से प्रेम और सहयोग करने लगें। ऐसी दशा में आत्म-संतोष और आन्तरिक उल्लास की अभिवृद्धि निरन्तर होती रहना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार विषम तत्व शरीर को व्याधियों को अधिकार में दे देते हैं, उसी प्रकार विषम भाव हमारे अन्तःकरण को मलीन कर दुखानुभूति के अनुकूल बना देते हैं। अन्यथा परम-तत्व के पावन प्रवाह से ओत-प्रोत सृष्टि में दुख-क्लेश हैं कहाँ?

जिन भौतिक विभूतियों के लिये हम अपने को स्वार्थी और संकीर्ण बना लेते हैं, सुख का निवास उनमें नहीं है। दुख का निवास स्वयं अपनी आत्मा में है, जिसका प्रस्फुटन आत्म-प्रसार के साथ ही होता जाता है। सब प्राणियों में भगवान् है, एक ही आत्मा सबमें समाया हुआ है, अपने ही समान सबको सुख-दुख होता है। अपमान और अन्याय सबको बुरा लगता है। इन तथ्यों को हृदयंगम कर लेना ही अध्यात्मवाद है, जो उस वास्तविक सुख-शाँति का आधार आदिकाल से मनुष्य जिसके लिये लालायित और प्रयत्नशील होता आ रहा है।

हमें इस बात को समझने और हृदयंगम करने में क्या कठिनाई हो सकती है कि जिस जगत् में हम रह रहे हैं, उसके पीछे एक ऐसी अनन्त एवं सामर्थ्यशाली सत्ता अवस्थित है, जो सबमें व्याप्त है, सबको जीवन प्रदान करती है और सबमें प्रकट होती है। वही इस संसार या विश्व का सर्वोच्च सत्य है। उस स्वयंभू तत्व में से ही यह सब कुछ आया है और सदा-सर्वदा आता रहेगा। हम सब उसी के अंश अथवा कलायें हैं। उसी से प्रकट हुए हैं और उसी में स्थित हैं। अन्य विषयों में भले ही कोई मतभेद रहे पर इस चिरन्तन सत्य के विषय में सारे धर्म, सम्प्रदाय और मत-मतान्तर एकमत हैं कि हमारे सबके पीछे, संसार के प्रत्येक पदार्थ के पीछे एक चैतन्य स्वरूप परमात्मा की सत्ता ही काम कर रही है। उसी में से प्रत्येक जीवन प्रकट होता है, फिर वह चाहे अपना हो या किसी दूसरे का। सारे व्यक्तिगत जीवन इसी समष्टि रूपी इस अनन्त प्रवाह से ही उद्भूत होते हैं।

जिसने संसार के इस सर्वोच्च सत्य को समझ लिया और आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से स्थापित कर लिया। उसे सारा संसार आत्मरूप ही अनुभव होने लगता है। उसके सारे बन्धन और सारी सीमायें टूट जाती हैं और वह आनन्द के अनन्त सागर में निमग्न हो जाता है। फिर उसके लिये न कोई कष्ट रह जाता है और न दुख। उसके रोम-रोम से इस प्रकार का अनिवर्चनीय संगीत मुखर होने लगता है-

“अहो, मैं अनन्त काल के लिये अनन्त जीवन में विद्यमान हूँ। अब मुझे सब वस्तुयें दिव्य जान पड़ती हैं। मैं स्वर्ग के योग्य पदार्थ ग्रहण करता हूँ और स्वर्गीय अमृत का पान करता हूँ। जब मैं इन्द्रधनुष में चमके हुए रंग देखता हूँ, तब मुझे उसमें अपनी ही आत्मा की सुन्दरता दिखाई देती है। जब मैं पक्षियों को आनन्दपूर्वक गाते हुए सुनता हूँ, तब ऐसा लगता है मानो मेरी आत्मा ही पक्षियों के रूप में गाती फिरती है। जब मैं फूलों को हँसते हुए देखता हूँ तब ऐसा अनुभव होता है, मानो मैं स्वयं ही उनमें सुन्दरता बन कर हँस रहा हूँ और सुगन्ध बन कर बिखर रहा हूँ”

स्वार्थ एवं संकीर्णता के बन्धन तोड़ो, अपने अनन्त रूप को पहचानो और आत्मा द्वारा परमात्मा से सामंजस्य स्थापित कर संसार के व्याप्त आनन्द तरंग के साथ प्रवाहित रहो, तुममें आनन्द और सुख-संतोष का आविर्भाव स्वयं होने लगेगा।


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