सरल किन्तु शानदार जीवन जिएँ

August 1968

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मानव जीवन श्रेष्ठतम उपलब्धि मानी गई है। मनुष्य को मनुष्य रूप में श्रेष्ठता पूर्वक ही जीवन यापन करना चाहिये। ऊँचा आचार-विचार, ऊँची भावनायें, उन्नत आदर्श और उदात्त व्यवहार ही मनुष्य की शोभा है। जीवन को सार्थक और समृद्ध बनाने के लिए श्रेष्ठता की सिद्धि करना बहुत आवश्यक है। मनुष्य होकर भी जो श्रेष्ठ जीवन का सुख न ले सका उसको असफल ही माना जायेगा।

जिसको सिद्धि वाँछित है उसे श्रेष्ठता का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। श्रेष्ठता क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जायेगा कि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता, बौद्धिक गरिमा और आत्मिक-बोध का भाव मिलकर ही किसी मनुष्य को श्रेष्ठ बनाते हैं। पद-प्रतिष्ठा, आदर-सम्मान, विभव-ऐश्वर्य, शक्ति, बल और बहुत कुछ क्षमतायें होने पर भी यदि मनुष्य में उपरिकथित चातुर्य का अभाव है तो उसे पूर्ण श्रेष्ठ मनुष्य नहीं माना जा सकता। पूर्ण श्रेष्ठता की सिद्धि के लिए उपर्युक्त चार विशेषताओं का होना अनिवार्य माना जायेगा।

शारीरिक स्वास्थ्य क्या है? मोटा-तगड़ा और भारी-भरकम होना स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। स्वास्थ्य का लक्षण है शरीर की सुडौलता। अवयवों का गठन, पेशियों का संतुलन, दृढ़ता और आवश्यक माँसलता सुडौलता की शर्तें हैं। शरीर से सुडौल और सन्तुलित होने पर भी जिस में स्फूर्ति और कार्य क्षमता की कमी है उसे पूर्ण स्वस्थ नहीं माना जा सकता। और लोग हों चाहे न हों किन्तु पहलवान वर्ग के प्रायः सभी लोग शरीर से सुडौल और सुन्दर होते हैं। किन्तु उनमें स्फूर्ति और कार्य क्षमता की कमी होती है। कुश्ती और कसरत के अभ्यस्त काम को छोड़कर पहलवान कदाचित ही स्फूर्ति और कार्य क्षमता का प्रमाण दे पाते हैं। अपने उन दो कामों को छोड़कर दिन भर अलसाने अथवा सोने के सिवाय और कोई काम उनके वश का नहीं होता।

जो मनुष्य शारीरिक सौष्ठव के साथ-साथ स्फूर्ति और कार्य क्षमता से भी संपन्न है, वही वास्तव में पूर्ण स्वस्थ माना जायेगा। ऐसे लोगों के पास आलस्य, सुस्ती तथा थकान नहीं आती। जितनी देर उन्हें जो कार्य करना होता है एक भाव से अविचलित हुए करते रहते हैं। काम करने, दौड़ने, खेलने, बोलने आदि क्रियाओं तक में उनकी स्फूर्ति प्रकट होती रहती है। अवयवों, पेशियों और अंगों से पुष्ट स्फूर्ति और श्रम सम्पत्ति से सम्पन्न व्यक्ति के सम्बन्ध में व्याधियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती- और प्रकृति, परिस्थिति अथवा संयोग से उसके सम्मुख ऐसी परिस्थिति आ भी जाती है तो वह अपनी सुरक्षित क्षमता से जल्दी ही उस पर नियन्त्रण पा लेता है।

मानसिक प्रसन्नता का लक्षण है- मनोबल, दृढ़ता, अचंचलता, उत्साह, साहस, निर्भीकता, निष्ठा, कर्त्तव्य परायणता और सद्भावना आदि गुण जो मानवजीवन की सुख-शांति और सफलता के विधायक तत्व होते हैं, जिसका मन निर्बल, चंचल, निरुत्साही, भीत तथा निष्ठाहीन होगा, निश्चित है कि उसका मन मलीन और विपरीत दशा वाला होगा। मलीन और निर्बल मन का शंकाओं, संदेहों, विक्षेपों आदि कि असद् तत्वों से भरा रहना स्वाभाविक है। जिसके मन की दशा ऐसी दयनीय होगी वह श्रेष्ठता की साधना में सफल हो सकेगा ऐसा नहीं माना जा सकता। जिसका मन निरोग, निर्विकार और निर्मल होगा उसका मन न केवल प्रसन्न ही रहेगा बल्कि प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा आदि की सद्भावनाओं से भरा रहेगा। जिसे गुणों की यह सम्पत्ति प्राप्त हो जाये उसे श्रेष्ठता की ओर बढ़ने से कौन रोक सकता है?

बौद्धिक गरिमा के अंतर्गत बुद्धि की निर्णायक शक्ति, सन्तुलित चिन्तन, उच्चविचार, शान्ति और शासन आदि के ऐसे गुण आते हैं जो किसी भी विषम परिस्थिति में मनुष्य को सहायक होते हैं। जो अच्छाई-बुराई, कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्य-असत्य, पथ और विपथ में निर्णय कर सकने वाली बुद्धि से रहित हैं, जिसकी बुद्धि चंचल, अशान्त और असंतुलित होगी, जिसमें इन्द्रियों और मन पर शासन करने की योग्यता न होगी वह व्यक्ति श्रेष्ठता की दिशा में आवश्यक प्रगति कर सकने की आशा नहीं कर सकता। जिसकी बुद्धि योग्यता पूर्वक निर्णय दे सकती है, ऊहापोह को समय नष्ट करने से वारित रख सकती है। इन्द्रियों तथा मानसिक वृत्तियों पर शासन रखकर उन्हें कर्तव्य पर चला और अकर्तव्य से रोक सकती है वह किसी भी श्रेष्ठता को प्राप्त कर सकने के लिए योग्य मानी जा सकती है।

श्रेष्ठता की सिद्धि के लिए सबसे महान शक्तिशाली और महत्वपूर्ण गुण है आत्मबोध। जिसमें आत्मबोध की कमी है, आत्मा की शक्तियों की प्रतीति नहीं है, आत्म-विश्वास का अभाव है और जो यह अनुभव नहीं करता कि आत्मा परमात्मा का अंश है, जो मानव देह में जीव को वह दिव्य-चेतना और दिव्य-प्रकाश देने के लिए अवतरित हुई है जिसको अपनाकर मनुष्य किसी भी उन्नत ही नहीं उन्नततम शिखर पर चढ़ सकता है। वह मनुष्य सब कुछ गुणी, बली और विपुलता पूर्ण होने पर भी प्रगति के नाम पर एक कदम भी नहीं बढ़ सकता। जिसने जीवन के मूलतत्व को ही नहीं जाना उसने अन्य सब बातें जान भी लीं तब भी वह अनजाना ही माना जाएगा। आत्म-बोध सम्पन्न व्यक्ति निरन्तर अपने अन्दर एक अलौकिक सम्बल, एक अविच्छिन्न साथी और एक शक्तिशाली सहायक का अनुभव करता है। आत्म-बोध से आत्म-विश्वास और परमात्मनिष्ठा की पुष्टि होती है। इतने बल सम्बल के साथ श्रेष्ठता की ओर बढ़ने वाले का लक्ष्य पूरा न हो, यह सम्भव नहीं।

किन्तु ये चतुर्वर्गीय गुण आप से आप प्राप्त नहीं होते। इन्हें उपाय, युक्ति और साधना द्वारा उपार्जित किया जाता है। इन गुणों की सिद्धि के लिए बहुत कुछ छोड़ना और बहुत कुछ ग्रहण करना पड़ता है। उन परिस्थितियों में रहना अथवा वैसी परिस्थितियाँ बनानी पड़ती हैं जो इनकी साधना में सहायक हो सकें।

इन गुणों को विकसित करने का उपाय है- संक्षिप्त जीवन-विधि। जिसका आशय है बहुवाद का परित्याग। जो लोग जीवन के विविध क्षेत्रों अथवा विषयों का अनावश्यक फैलाव कर लेते हैं वे श्रेष्ठता के संराधक गुणों का न तो विकास कर पाते हैं और न उनकी रक्षा। आवश्यकताओं, संपर्कों, साधनों, सुविधाओं, सुखों, मनोरंजनों, सम्बन्धों तथा परिवार आदिक बातों में आधिक्य तथा विस्तार का समावेश कर लेते हैं वे प्रायः श्रेष्ठता की रक्षा में असफल ही रहते हैं। अधिकता के पालन में अधिक हाथ-पाँव मारने और भाग-दौड़ करनी होती है। ऐसी विवश व्यग्रता में श्रेष्ठता सम्बन्धी आदर्शों, नीतियों और मर्यादाओं का पालन कर सकना कठिन होता है। जब-तब और जहाँ-तहाँ स्खलन होता ही रहता है।

यह समझने के लिये कि विस्तार अथवा फैलाव से श्रेष्ठता विरोधी अनेक दोष और परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रहती हैं- किन्हीं दो-एक प्रसंगों पर विचार कर लिया जाय। यदि कोई व्यक्ति जीवन में आवश्यकताओं का विस्तार कर लेता है तो वह वाँछनीय श्रेष्ठता की रक्षा न कर पायेगा। मनुष्य की मूल आवश्यकताएं हैं भोजन, वस्त्र और आवास। यदि मनुष्य परिश्रमी है और उसने इन मूल आवश्यकताओं को सामान्यता से आगे नहीं बढ़ाया है तो वह मान्य-मर्यादाओं और आदर्शों के साथ जीवनयापन कर सकता है। वह ईमानदार, सच्चा और सरल रह सकता है। उसे श्रेष्ठता विरोधी दुर्गुण ग्रहण करने का पाप न करना पड़ेगा। यदि वह अपनी सामान्य आवश्यकताओं को असामान्य बना लेता है अथवा अन्य बहुत-सी कृत्रिम आवश्यकताओं का विस्तार कर लेता है तो उसे उनकी पूर्ति के लिए अनुचित गतिविधि अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अनौचित्य की पूर्ति अनौचित्य द्वारा ही करनी पड़ती है।

सामान्य आवश्यकता है भोजन। दिन में दो बार कुछ ऐसा खाद्य-पदार्थ मिल जाए जिससे उदरपूर्ति होती रहे और अस्वास्थ्य की भी सम्भावना न हो। बस इसके अतिरिक्त और भोजन की आवश्यकता नहीं है। ऐसा सामान्य भोजन पूरी ईमानदारी और सत्य के साथ परिश्रम पूर्वक कहीं भी सरलता से पाया जा सकता है। अब यदि विस्तार करके इस आवश्यकता का अर्थ- मेवा, मिष्ठान, पकवान, दूध, दही, लस्सी, रबड़ी, चाय, काफी, माँस, मछली, अंडा आदि विविध व्यंजन और प्रकार मान लिया जाये, दो समय से चार छः समय तक बढ़ा दिया जाए तो इसकी पूर्ति सरल साधनों द्वारा सम्भव नहीं। इसके लिए अतिरिक्त धन और साधनों की आवश्यकता होगी जिन्हें उपलब्ध करने में उन उपायों और युक्तियों का सहारा लेना पड़ेगा जो श्रेष्ठता के विरोधी होंगे।

सामान्य वस्त्रों की आवश्यकता पर यदि परिधान, रेशम, नायलोन और वस्त्रों के प्रकार तथा परिमाण का अनावश्यक विस्तार कर दिया जायेगा तो इस अनुचित आवश्यकता के लिये अनुचित उपाय ही काम में लाने होंगे। आवास की आवश्यकता एक साफ-सुथरे, साधारण मकान से पूरी हो सकती है। किन्तु यदि इसे कोठी, महल, हवेली और बंगले तक बढ़ा दिया जाये और रहन-सहन के साधनों का अर्थ शाही शान-शौकत मान लिया जाये तो निश्चय ही उसकी पूर्ति में उन आदर्शों और मर्यादाओं का बलिदान करना होगा जो मानवीय श्रेष्ठता के आधार होते हैं।

सुख-सुविधाओं का अर्थ होता है थोड़े से साधन जो परिश्रम के बाद मनुष्य को उतना आराम दे सकें जितने से उसकी थकान दूर हो जाए और वह दूसरे दिन परिश्रम करने के लिये ताजा बन सके। यदि इसी साधारण सी आवश्यकता को ऐशो-इशरत और लास-विलास के साधनों तक बढ़ा दिया जाए तो उनकी पूर्ति में अनुचित उपायों की आवश्यकता से किस प्रकार बचा जा सकता है? इसी प्रकार अनौचित्य की पूर्ति के लिये अनौचित्य का अवलम्बन वाला नियम हर अनावश्यक विस्तार पर लागू होता है। कामनाओं-वासनाओं का विस्तार पाप के लिये, सम्पन्न और सम्बन्धों का विस्तार उलझनों, परिवार और प्रियतम का विस्तार अशान्ति तथा चिन्ता के लिये विवश करेगा। किसी भी विषय, प्रसंग अथवा क्षेत्र में क्यों न हो विस्तारवाद से मनुष्य का विस्तार नहीं हो पाता।

श्रेष्ठता के लक्षण हैं- शान्ति, सन्तोष, सन्तुलन सद्भावना, सदाशयता, सदाचरण, सत्य, सरलता आदि सद्गुण। किन्तु इनकी रक्षा विस्तारवाद ने नहीं हो सकती। इन दिव्य गुण-रत्नों को तभी सुरक्षित रखा जा सकता है, जब मनुष्य अपनी जीवन-विधि में संक्षिप्तता का समावेश करे। उसके साथ जिस दिशा में जो भी अनावश्यक विस्तार लग गया हो उसे काट कर फेंक दे। थोड़ी आवश्यकताएं, थोड़ी कामनाएं, थोड़ा संपर्क, थोड़ा मनोरंजन, थोड़ा परिवार, थोड़े साधन, थोड़ी सुविधा और सुख रखने वाला ही इस संसार में सरलता, सत्य और आदर्श पूर्वक जीवनयापन कर सकता है। वही उन मर्यादाओं, नीतियों और रीतियों का पालन कर सकता है जो श्रेष्ठता की संराधिका होती हैं। संक्षेप से रहने वाला हर विशेष रूप से बच रहता है और विस्तारवादी दिन-दिन माया-जालों में फंसता हुआ निकृष्टता की ओर गिरता जाता है।


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