ज्ञान से बढ़ कर इस संसार में और कुछ नहीं

August 1968

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मानवाकार शरीर पाकर ही कोई मनुष्य नहीं बन जाता। मनुष्य बनने के लिए विद्या की नितान्त आवश्यकता है। बिना विद्या के कोई भी मनुष्य को अच्छाई-बुराई, कर्म-अकर्म, सद्-असद् और पाप-पुण्य का ज्ञान न हो तो उसमें और एक ज्ञानहीन पशु में क्या अन्तर रह जाता है? पशुओं की तरह आचरण करने वाला, उन्हीं की तरह अनबूझ जीवन जीने वाला और उन्हीं की तरह सहसा प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर क्रियाशील हो उठने वाला मनुष्य, मनुष्य की तरह महान उपाधि का अधिकारी किस प्रकार हो सकता है? भले ही वह आकार में मनुष्य जैसा हो, मनुष्यों के बीच रहता हो और उन्हीं की तरह बोली बोलता हो पर होता वह वास्तव में पशु प्राणी ही। उसे केवल पशु न कह कर मानव-पशु कहा जा सकता है। तथापि इससे मूल सत्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी तभी है, जब उसका हर काम समझा और शोधा हुआ हो। उसका हर कदम कल्याण की दिशा में पड़ता हो। उसे क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये, इसका स्पष्ट निर्णय कर सकने की क्षमता हो। अपने समान अन्य प्राणियों की सुख-सुविधा का ध्यान रखने वाला। देशकाल के अनुसार व्यवहार करने वाला और समष्टि में व्यष्टि को विलीन कर देने वाला ही सच्चा मनुष्य हो सकता है। सहानुभूति, सम्वेदना, प्रेम, दया और प्रगतिशीलता मनुष्य के आवश्यक लक्षण माने गये हैं। जो इन गुणों और लक्षणों से सर्वथा रहित है, वह अभी मनुष्य की कोटि में नहीं आया है। उसे चाहिये कि वह अपने में मानवीय गुणों और लक्षणों का विकास करे और अपनी ‘मानव’ उपाधि को चरितार्थ कर दिखाये।

मानवीय विशेषताओं की प्राप्ति ज्ञान द्वार ही संभव है। जो अपने को अज्ञान के अन्धकार में डाले हुए है और ज्ञान द्वारा उस नरक से निकलने का प्रयत्न नहीं करता वह इस सुरदुर्लभ अवसर को मिट्टी मोल खो रहा है। अपनी ऐसी क्षति कर रहा है, जिसकी पूर्ति सम्भव नहीं। चौरासी लाख योनियों में मनुष्य एक अन्धकारपूर्ण पाशविक जीवन ही तो बिता कर मनुष्य शरीर में आता है। अब यदि इसमें भी वही पाशविक क्रम जारी रक्खा जाये, तो इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है।

मनुष्य शरीर मिला ही इसलिये है कि तम से ज्योति की ओर, मृत्यु से अमृत की ओर और अज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जाये। जो इस मानव जीवन का मूल्य समझते हैं वे हर सम्भव उपाय से अज्ञान के गर्त से निकलने का प्रयत्न करते हैं और निकल-निकल कर प्रकाश में प्रतिष्ठित होते हैं।

ऐसा नहीं कि यह उन्नति, यह प्रगति किन्हीं विशेष मनुष्यों के लिए सम्भव हो। यह सब समान रूप से हर मनुष्य के लिए सम्भव है और हर मनुष्य इसका पूरा अधिकारी है। किंतु यह अधिकार मूर्तिमान तभी हो सकता है, यह सम्भावना तभी चरितार्थ हो सकती है, जब उसके लिए अक्षय जिज्ञासापूर्वक उचित दिशा में प्रयत्न किया जाये।

संसार में सारे बीज समान विशेषताओं वाले होते हैं। वह यह कि सभी वृक्ष बन सकने की सम्भावना निहित रहती है। तथापि सभी बीज वृक्ष नहीं बन पाते। वृक्ष वे ही बीज बन पाते हैं जिनको खाद, पानी आदि की सुविधा होती है, उन्हें वे उपयुक्त साधन प्राप्त होते हैं, जो उसकी विशेषता को विकसित करने में सहायक होते हैं। अन्यथा, जो बीज इनसे वंचित रह जाते हैं, वे बीज रह कर ही अपनी सम्भावना और क्षमता का उपयोग नहीं कर पाते।

मनुष्य जीवन में उन्नति करने की एक से एक बढ़कर सम्भावनायें छिपी हुई हैं। उसकी अन्तरात्मा अद्भुत शक्तियों का भण्डार है। किन्तु यह प्रस्फुटित, पल्लवित और प्रकट तभी होती हैं, जब उन्हें उपयुक्त साधन प्रदान किये जाते हैं। जिस प्रकार बीज के विकास के साधन खाद पानी आदि हैं, उसी प्रकार मानवीय विकास के लिए ज्ञान और विद्या रूपी साधन की आवश्यकता है। ज्ञान द्वारा ही मनुष्य को अपनी शक्तियों का आभास होता है। जब तक अविद्या अथवा अज्ञान का अन्धकार उसे घेरे रहता है, वह न तो अपनी शक्तियों को देख पाता है और न समझ पाता है। फिर उनके उपयोग की तो बात ही क्या हो सकती है। राम सेवक हनुमान में इस विस्मृति एवं स्मृति का अच्छा उदाहरण मिलता है।

देवी सीता की खोज चल रही थी। उसी क्रम में समुद्र पार लंका में उनके खोजने की बात चली। किन्तु समुद्र को पार कर लंका जाये कौन? लोगों ने हनुमान का नाम प्रस्तावित किया। वे थे भी सेना में सबसे बलवान एवं स्फूर्तिवान। समुद्र के किनारे जाकर उन्हें ऐसा लगा कि वे उसके पार न जा सकेंगे। साहस टूटने लगा। मन्त्री जामवन्त ने वस्तुस्थिति पर विचार कर समझ लिया कि यद्यपि महावीर के लिए समुद्र पार जाना सम्भव है, किन्तु इस समय वे अपनी शक्ति का ज्ञान न होने से आने को असमर्थ मान रहे हैं। उन्होंने तत्काल उनको उनकी शक्ति का ज्ञान कराया। सम्बोध पाते ही उन्हें अपनी अन्तःशक्ति का स्मरण हो आया और वह समुद्र जो आत्मबोध के अभाव में दुस्तर दिख रहा था साधारण गड्ढा-सा विदित होने लगा। बस फिर क्या था? उन्होंने अपनी शक्ति का उपयोग किया और कर्तव्य में सफल हो गये।

इसी स्थान पर यदि हनुमान पहले ही समुद्र पार करने को उद्यत हो जाते और कोई व्यक्ति उनको उनकी शक्ति के प्रति शंका उत्पन्न कर देता अथवा आत्म-विश्वास का विस्मरण करा देता तो वह सुन कर कार्य भी उनके लिए दुस्कर हो जाता और वे अपने इस कर्तव्य में असफल होकर वह उत्कर्ष न पा सकते, जो उनके चरित्र के इतिहास में मिला है। मनुष्य की अंतरात्मा में अनंत शक्तियां विद्यमान हैं। किन्तु उनका स्फुरण तभी सम्भव है, जब उनका ज्ञान भी हो।

जिन मनुष्यों को अपनी जिन शक्तियों का स्मरण होता जाता है, वे उसी के अनुरूप अपना विकास करते जाते हैं। जिन्हें अपनी शिल्प शक्ति का स्मरण हो जाता है, वे शिल्पी, जिन्हें काव्य-शक्ति का स्मरण हो जाता है, वे कवि और जिन्हें कलात्मक-शक्ति का स्मरण हो जाता है, वे जीवन में कलाकार बन जाते हैं। इसी प्रकार जिन महात्माओं को यह याद आ जाता है कि वे शुद्ध-बुद्ध परमात्मा के ही अंश हैं, वे निश्चय ही उसी स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। जिनको जिस वस्तु का पता ही नहीं, वह उसका उपयोग कर ही नहीं सकता। जिसको अपनी शक्तियों का आभास ही नहीं है, वह उनका उपयोग कर किस प्रकार उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है? इसलिये जीवन के उत्कर्ष और और उसकी प्रगति के लिये शक्तियों का स्मरण होना नितान्त आवश्यक है।

निश्चय ही शक्तियों का स्मरण ज्ञान द्वारा ही सम्भव है और ज्ञान की उपलब्धि का उपाय स्वाध्याय और सत्संग के सिवाय और क्या हो सकता है? स्वाध्याय और सत्संग मानवीय जीवनाकाश में सूर्य और चन्द्रमा के समान चमकने वाले दो प्रकाश-केन्द्र हैं। जिस जीवन में इनका उदय हो जाता है, वहाँ अविद्या का अन्धकार रह ही नहीं सकता। इसके विपरीत जिस जीवन में इनको उदय करने का प्रयत्न न किया जायेगा, वहाँ अज्ञान के अन्धकार के सिवाय और किसी माँगलिक स्थिति की आशा ही नहीं की जा सकती।

यह बात सही है कि आज के युग में सत्संग की सुविधा कठिन है। एक तो सत्संग के योग्य उपयुक्त विद्वानों एवं महात्माओं की विरलता है। दूसरे यदि उनका कहीं पता भी चल जाता है, तो उनके पास जाने और रहने के लिए समय और धन दोनों की कमी पड़ती है। फिर जो महात्मा जन सत्संग के योग्य होते हैं उनका भी अपना एक जीवन का कार्यक्रम होता है। आत्मोत्कर्ष और आत्म-मुक्ति के लिये उन्हें भी जप-तप, पूजा-पाठ और भजन-कीर्तन अथवा चिन्तन-मनन करने के लिए समय की बहुत आवश्यकता रहती है।

वे तो अपनी साधना से निकाल कर कुछ सीमित समय ही तो किसी जिज्ञासु को दे सकते हैं। और उतने सीमित अथवा यदा-कदा समय से कुछ काम बनता नहीं। ज्ञान प्राप्ति के लिये तो निरन्तर नित्य सत्संग की आवश्यकता होती है, जो सहज रूप से सम्भव नहीं। तथापि लोग महात्माओं को खोजते और उनके सत्संग का लाभ उठाते हैं।

इस प्रकार की कृपण स्थिति में अच्छा यही है कि स्वाध्याय को ही स्वाध्याय एवं सत्संग दोनों मान लिया जाये। स्वाध्याय तो वह कि जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ा जाये उसको अपने अन्दर ठीक तरह से मनन और आत्मसात् किया जाये। और सत्संग वह कि योग्य व्यक्तियों की पुस्तकों को ही उनका स्वरूप और उसके विषय को ही उनका प्रवचन मान लिया जाये। निःसन्देह ऐसी निष्ठा एवं आस्था रखने वालों को पुस्तक का सान्निध्य भी विद्वान के संपर्क की तरह ही फलीभूत होता है। पुस्तकों के माध्यम से वर्तमान एवं दूरस्थ व्यक्तियों का ही नहीं सुदूर भूतकाल में चले गये, विद्वानों, चिन्तकों, मनीषियों तथा महात्माओं का सत्संग प्राप्त किया जा सकता है।

आप अपने घर पर ही अपने संचय से पुस्तक उठाते जाइये और व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, अरस्तू, सुकरात, ईसा, विवेकानन्द, रामतीर्थ, महात्मा गाँधी जिसे चाहिये मिल लीजिये। उनके विचार जान लीजिये और मनमाना ज्ञान प्राप्त कर लीजिये। किसी वाचनालय में चले जाइये और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा संसार के किसी भी महापुरुष, राजनेता अथवा महात्मा से संपर्क स्थापित कर लीजिये। वाचनालय की तिपाई पर बैठे हुए संसार का घटनाचक्र जान लीजिये। अस्तु आज के व्यस्त और संकुल जीवन में ज्ञान प्राप्त करने का स्वाध्याय से बढ़ कर कोई उपाय नहीं है।

हम, आज सब मनुष्य हैं। वास्तविक मनुष्यता की उपलब्धि करना ही हम सबका लक्ष्य है, जोकि ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है। ज्ञान की उपलब्धि सबसे सुगम एवं साध्य साधन आज स्वाध्याय ही है। पुस्तकालयों से माँग कर अथवा खरीद कर जिस प्रकार हो सके खोज-खोज कर सत्साहित्य का स्वाध्याय, चिन्तन और मनन करते रहना ही चाहिये और सत्साहित्य वही हो सकता है, जो हमें ज्ञान का ऐसा प्रकाश प्रदान करे, जिसमें हम अपने को अपनी आत्मा को और अपनी शक्तियों को ठीक से पहचान सकें।

सत्साहित्य वही है, जो हमें उन सत्कर्मों, विचारों, गुणों और विशेषताओं की सिद्धि के लिये अग्रसर करे। जिन्हें पाकर हम मानव और वास्तविक मानव बन कर इस जीवन को सार्थक तथा सफल बना सकें। जिस प्रकार पारस को छू कर लोहा सोना बन जाता है, उसी प्रकार ज्ञान पाकर साधारण मनुष्य असाधारण, जीवात्मा, परमात्मा और भवबन्धन टूट कर मुक्ति में परिणत हो जाते हैं। ज्ञान सर्वोत्तम तत्व है, उसे प्राप्त ही करना चाहिये।


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