सन्तोष सदृश शान्ति-स्थल नहीं

August 1968

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कहा जाता है कि आत्म-दर्शन, जीवन लक्ष्य की प्राप्ति सुख, धन, यश वैभव का विकास, ईश्वर दर्शन यह सब सौभाग्य, संयोग मनुष्य जीवन में पुण्य के प्रतिफल होते हैं। जो जितना पुण्य करता है, उसी अनुपात में सुख-शान्ति मिलती है। जिसके पुण्यों की मात्रा अधिक होती है वह धरती और स्वर्ग सर्वत्र आल्हाद और आनन्द का जीवन-यापन करता है।

इसी संदर्भ में यह भी है कि पुण्य सत्कर्मों से प्राप्त होते हैं। ऐसे कार्य जिनमें दूसरों का उपकार होता हो, दूसरों को सुख मिलता हो, उन्नति होती हो, प्रसन्नता, प्रेरणा और प्रकाश मिलता हो, वह सभी कार्य पुण्यार्जन के पाथेय माने जाते हैं। यह कहना चाहिये कि सुख, शान्ति, सौभाग्य के आधार सद्गुण और सत्कर्म हैं।

व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो सत्कर्म सदैव घाटे का ही सौदा जान पड़ेगा। अपनी कमाई का एक अंश निकाल का दूसरों को देने के उपकार में अपना घाटा है, किसी के रुके हुए काम को पूरा करो तो अपना समय जाता है, श्रम खर्च होता है और कई बार तो कटुता, उपहास और अपमान के क्षण भी केवल इसी कारण आते हैं। अच्छे काम करते हुये भी लोगों के ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध का भाजन बनना पड़ता है। तात्पर्य यह कि परमार्थ पथ अपने आपको खाली करने- अपना कमाया लुटाने का पथ है। भौतिक दृष्टि से उसमें हानियाँ ही हानियाँ हैं।

किन्तु इन सब परिस्थितियों में एक गुण ऐसा भी है जो इन समस्त विषमताओं, त्याग और तपश्चर्याओं को पुण्य में बदल देता है वह है सन्तोष। सन्तोष आत्मा की सन्निकटता प्राप्त करने का अमोघ उपाय है। जहाँ सन्तोष है, वहीं सच्चा पुण्य है और जहां पुण्य है वहाँ परमात्मा का प्रकाश विद्यमान है, इसलिये सन्तोषी व्यक्ति अपना जीवन लक्ष्य बड़ी आसानी से प्राप्त कर लेते हैं।

मनुष्य-जीवन में जो अशान्ति है वह तृष्णाओं की बाढ़, कामनाओं के अनियन्त्रण और असन्तुलित भोग की आकाँक्षा के कारण है। छोटे-छोटे जीवन-जन्तु अल्प क्षमता और स्वल्प साधन होते हुये भी दिन-भर इधर से उधर चहकते-फुदकते और नित्य नवीनता का दर्शन करते हुये आनन्द लाभ किया करते हैं। उनकी स्वाधीनता के मूल में सन्तोष की ही वृत्ति काम करती है। मनुष्य के जीवन की भी आवश्यकतायें बहुत थोड़ी हैं। पेट भरने के लिये थोड़ा-सा भोजन और तन ढाँपने को थोड़ा-सा कपड़ा। वर्षा, धूप, शीत से बचाव के लिये मिट्टी के झोपड़े से काम चल जाता है। इतनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कोई बड़ी लम्बी-चौड़ी दौड़-धूप की आवश्यकता नहीं। साधारण-सी आवश्यकतायें साधारण प्रयास से ही दूर हो जाती हैं। यदि मनुष्य उतने से संतोष कर लिया करे तो शक्ति, ज्ञान और नवीनता के दर्शन का आनन्द वह हर घड़ी प्राप्त कर सकता है। उसके लिये उसे कहीं बाहर न भटकना पड़े।

सन्तोष की चाह सबको होती है, पर ऐसा लगता है कि आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति को ही लोग संतोष मानते हैं। क्षणिक तृप्ति में सन्तोष की अभिव्यक्ति नहीं होती। सन्तोष एक विशाल भावना है जो कुछ न होने पर भी अनन्त भण्डार के स्वामित्व का आनन्द अनुभव कराती है। सन्तोष वह प्रकाश है जो आत्मा के पथ को आलोकित करता है और आत्मा जैसी विशाल एवं व्यापक सत्ता की महत्ता के द्वार खोल देती है, फिर मनुष्य को सांसारिक और तात्कालिक भोग नहीं भाते फिर सद्गुणों का अधिक से अधिक विकास ही लक्ष्य रह जाता है, उसमें मनुष्य की असीम तृप्ति का अनुभव और आनन्द मिलता है।

“तत्वामृत” सुभाषित-ग्रन्थ में कहा गया है-

संतोषामृत तृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च, न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम्।

अर्थात्- जिस व्यक्ति ने सन्तोष का अमृतपान कर लिया। जिसके जीवन में सन्तोष नहीं वह तृष्णाओं के पीछे भागता फिरता और दुःख पाता है।

यैः संतोषोदकं पीतं निर्ममत्वेन वासितम्। त्यंक्तं तैर्मासं दुःखं दुर्जनेनेव सौहृदम॥

जो लोग ममता रहित होकर सन्तोष रूपी जल का पान करते हैं उन्हें किसी प्रकार मानसिक कष्ट नहीं होता। सन्तोष का परित्याग कर देने वाले सज्जन व्यक्ति भी बुरे हो जाते हैं।

आध्यात्मिक जीवन का तो सोपान ही है- संतोष। सन्तोष मनुष्य को अल्प में तृप्ति दिलाता है, जबकि आध्यात्म का भी उद्देश्य यही है कि मनुष्य शरीर किसी बहुत बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिये हुआ है। यह उद्देश्य आत्मानुभूति या ईश्वर दर्शन है। पर यदि देखा जाये तो साँसारिक बखेड़े ही इतने बगर गये हैं, फैल गये हैं कि लोगों को उन्हीं से अवकाश नहीं मिलता। बाह्य जीवन की सफलता और समृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मान लिया गया है। इसीलिये वास्तविक लक्ष्य की ओर ध्यान भी नहीं जाता। बहिर्मुखी परिस्थितियों से बचकर अंतर्मुखी जीवन का लक्ष्य और आनन्द प्राप्त करने का एक ही तरीका है और वह है- सन्तोष। हमें जो कुछ रूखा-सूखा खाने को मिल जाये उसी पर संतोष करना चाहिये और यह मानना चाहिये कि भोजन शरीर धारण किये रहने की आवश्यकता है भोजन के लिये शरीर नहीं धारण किया। थोड़े से धन से अपना काम चल सकता है। जीवन आवश्यकतायें बढ़ाने के लिये नहीं। बढ़ाई जायें तो वह कोई पाप नहीं किन्तु इसमें पाप होने की संभावनायें बढ़ जाती हैं। ईमानदारी से अपने लिये साधन जुटाये ही कितने जा सकते हैं। यदि इतनी कर्मठता और परिश्रमशीलता आ जाय कि मनुष्य अथाह साधन-सम्पत्तियों का स्वामित्व प्राप्त कर ले तो भी शरीर के भीतर वाली और महाकाल के बीच बार-बार जन्मने और मृत्यु होने वाली परिस्थितियों के अध्ययन, ज्ञान और तदनुकूल आचरण का अवसर ही नहीं बन पाता। इसलिये जब कभी आध्यात्मिक विकास का क्षण उपस्थित होता है, तो वहीं तुरंत ही यह प्रश्न पैदा होता है क्या आप कम से कम में गुजर कर सकते हैं? क्या आप थोड़े में संतुष्ट रह सकते हैं? व्रत कराने का उद्देश्य भी यही होता है कि सन्तोष की भावना चिरस्थायी बन जाये। यदि संतोष की प्राप्ति हो जाये तो आध्यात्मिकता की मंजिल बहुत आसान हो जाती है।

पूर्व पुरुषों के जीवन से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनमें जो शक्ति और ज्ञान था, उससे वह आज की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक संपत्ति का स्वामित्व बना सकते थे। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ पैदा कर सकते थे। तब जनसंख्या अधिक न थी इसलिये साधन और सुविधायें भी अब की अपेक्षा सैकड़ों गुनी अधिक थीं पर उन लोगों ने भौतिक सम्पत्ति को महत्व नहीं दिया। वह यह जानते थे कि मनुष्य जितनी आवश्यकतायें बढ़ायेगा सुखों की तृष्णा और आकर्षण उतना ही बढ़ेगा, उतना ही जीवन जटिल, अस्त-व्यस्त, संघर्षमय, दुःखी और अपावन बनेगा। असन्तुष्ट व्यक्ति को मिला हुआ शरीर सुख भी तृप्ति नहीं दे सकता, इसलिये सन्तोष को ही उन्होंने पुण्य का आध्यात्मिक उन्नति का प्रमुख आधार माना और उसके लिये सम्पूर्ण भौतिक सुखों को तिलाँजलि दे दी। यह कोई कहने की बात नहीं कि इस कारण उस जमाने में कितनी महत् आध्यात्मिक उन्नति हुई उसका एक कण आज भी विद्यमान है जो उसे ढूंढ़ लेते हैं वे उतने से ही अक्षय सुख और अनन्त आनन्द की अनुभूति पाया करते हैं।

सन्तोष इस दृष्टि से धन ही नहीं महान् पुण्य है, जो व्यक्ति को आत्मा की सन्निकटता की ओर ले चले उसे पुण्य ही कहना चाहिये। इसका दूसरा एक पहलू और भी है और वह यह कि जहाँ संतोष है वहाँ अभाव दिखाई देने पर भी लौकिक दृष्टि से किसी सुख का अभाव न होगा। शान्ति, सुख और स्वात्मानुभूति ही नहीं स्वास्थ्य, साधनों का विकास और शक्ति का आधार भी सन्तोष ही है, इसलिये वह सब गुणों का राजा है। जहाँ सन्तोष है वहाँ सब कुछ है।


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