उपासना का उद्देश्य आत्म-शान्ति

August 1968

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अनेक बार लोग कह उठते हैं कि- ‘‘यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि अधिक उपासना करने वाले लोग बहुधा विपन्न ओर दुखी ही रहा करते हैं।”

संसार का कोई भी सच्चा उपासक इस विपरीत कथन से सहमत नहीं हो सकता। उपासना का परिणाम तो संतोष, शाँति, प्रफुल्लता, आशा, विश्वास तथा आनन्द ही होता है। तब उसको धारण करने वाले को विपन्नता और दुख किस प्रकार हो सकता है? मनुष्य वृक्ष की घनी छाया में बैठे और उसका आतप-ताप दूर न हो, फूलों से भरी वाटिका में बिहार करे और उसका तन-मन न महक उठे, ऐसा किस प्रकार सम्भव हो सकता है? उपासना के माध्यम के परमात्मा के समीप रहने पर आत्मा में आनन्द का सागर न लहराने लगे यह सम्भव नहीं।

प्रेम, करुणा, आत्मीयता और आनन्द की पावन धारायें निरन्तर ही परमात्मा से प्रवाहित होती रहती हैं। इन्हीं अमरत्व तत्वों से ही तो संसार के प्राणियों और पेड़-पौधों का पालन-पोषण होता है। एक क्षण को भी यदि वह परम दयालु परमात्मा अपनी इस कृपा को रोक ले तो इस सुन्दर संसार को नष्ट होते देर न लगे। ऐसे आनन्द-कन्द परमात्मा के संसर्ग में आकर कोई विपन्न और दुःखी रहे, यह तो अत्यन्त आश्चर्य की बात है।

उपासना का परिणाम आत्मानन्द और आत्म-सन्तोष है। उपासना करने से इन्हीं की उपलब्धि होगी। भौतिक विभूति और आर्थिक उपलब्धियों के लिए पुरुषार्थ और परिश्रम का नियम निश्चित है। जो इस नियम का उल्लंघन करते हैं या करेंगे, उन्हें विपन्न रहना ही पड़ेगा। परमात्मा ने जब साधन, शंकित, उपाय एवं बुद्धि की व्यवस्था करके भौतिक उपलब्धियों का मार्ग प्रशस्त कर दिया तब क्या कारण है कि लोग उससे उपासना के पुरस्कार रूप धन-दौलत और सुख-सुविधा चाहते हैं। यह अनाधिकार चेष्टा है, जिसको स्वीकार नहीं किया जा सकता।

उपासना करते हुए भी जो विपन्न और दुःखी रहते हैं, वे सच्चे उपासक नहीं। प्रभु के पास उनका गमन ठीक वैसा ही होता है, जैसे कि कोई बच्चा मन्दिर की प्रार्थना में प्रसाद के लालच से शामिल होने जाता है। ऐसे लालची लोग उपासना का वह आनन्द नहीं पा सकते, जो भक्ति रस में डूबे हुए भावों के साथ प्रभु को आत्म-समर्पण करने वाले उपासकों को मिलता है। प्रभु के चरणों में अपनी अन्तरात्मा को निष्काम-भाव से अर्पण करने वाले भक्ति-विभोर और प्रसाद की मिठाई लेने के उद्देश्य से उपस्थित लोभी में जो अन्तर होता है, वही अन्तर सच्चे तथा वंचक उपासक में होता है।

अस्तु उनकी प्राप्ति भी अपनी-अपनी भावना एवं स्तर के अनुरूप ही होगी। एक उपासना के उसी फल को चाहता है, जो उसके साथ नियत है और दूसरा वह कुछ चाहता है, जिसकी निर्यात किन्हीं अन्य साधनों तथा उपायों से है। ऐसे ना-समझ और नियति विरोधियों की ओर वह परम दयालु परमात्मा भी कुछ अधिक ध्यान नहीं दे पाता। निदान वे विपन्न तथा दुखी बने रहते हैं।

भौतिक विभूतियों के लोभी उपासक का विपन्न रहना स्वाभाविक ही है। वह कुछ देर परमात्मा का चिन्तन अथवा भजन-पूजन करने के बाद अकर्मण्य होकर बैठ रहता है और प्रतीक्षा किया करता है कि अब उसकी उपासना के मूल्यरूप धन-दौलत और सुख-साधन का हेतु परमात्मा का वरदान उस पर बरसने वाला ही है, जिसके परिणामस्वरूप उसके लिए उन्नति, विकास तथा वैभव का द्वार स्वयं खुल जायेगा और वह बैठे बैठाये मुफ्त में ही मालामाल होकर सर्व सुख सम्पन्न हो जायेगा।

कितना गलत विश्वास और कैसी भ्रांत धारण है। पुरुषार्थ तथा परिश्रम के बल पर मिलने वाली भौतिक संपदायें यों बैठे-ही-बैठे किस प्रकार मिल सकती हैं। इसी वंचकता के कारण ही तो बहुत से अवास्तविक उपासक जीवन भर परमात्मा का भजन-पूजन करने के बाद भी विपन्न और दुखी बने रहते हैं और बाद में अपने इस कटु अनुभव को सिद्धांत के रूप में लोगों के सामने रोते हुए कहा करते हैं कि- ‘‘बहुधा देखा जाता है कि अधिक उपासना करने वाले लोग विपन्न तथा दुखी बने रहते हैं।”

उपासना स्वार्थ से नहीं प्रेम से प्रेरित होकर की जानी चाहिये। उपासना के पीछे निहित लक्ष्य भौतिक विभूतियों बाह्य उपलब्धियों तथा आर्थिक उन्नतियों का नहीं बल्कि आत्मिक, शाँति, संतोष तथा आनन्द का ही होना चाहिये। यही अनुकूलता एवं अनुरूपता है। ऐसा सच्चा और अनुकूल उपासक जब परमात्मा की समीपता में आता है तो उसमें दैवी श्रेष्ठताओं की अभिवृद्धि होती है। परमात्मा समस्त श्रेष्ठताओं का उद्गम है, उसका समीप्य आत्मा में अनुदिन श्रेष्ठताओं को ही स्थानांतरित करता चलता है। पर निन्दा, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, लालच आदि के अदैवी दोष उससे दूर होते जाते हैं और शीघ्र ही वह प्रभात कालीन समुद्री वायु की तरह निर्विकार तथा निरुद्विग्न होकर आनन्द में स्थित हो जाता है।

जो प्रेम और समर्पण की श्रेष्ठ भावनाओं को लेकर परमात्मा के पावन चरणों में जाता है, उसे उसका प्रति-पादित प्रेम प्राप्त होते देर नहीं लगती है। परमात्मा की उपासना का प्रतिफल पाने के लिए प्रतीक्षा तो उन्हें करनी पड़ती है, जो दीन-हीन भिक्षुक के समान उसके सामने उन वस्तुओं के लिये रिरियाते रहते हैं, जिनको वह शक्ति, विवेक, उपाय तथा अवसरों के रूप में पहले ही दे चुका है। केवल इन विशेषताओं का प्रयोग ही मनुष्य का काम रह जाता है। जिसने हल, बैल, जल, भूमि और शक्ति रखी है, उससे अब यह आशा करना ही वह खेती भी करे और उससे उत्पन्न फसल उसको दे दे तो एक दुराशा ही नहीं अनाधिकार चेष्टा है, जोकि किसी दशा और किसी मूल्य पर भी स्वीकार नहीं की जा सकती।

परमात्मा की उपासना का जो प्रतिफल नियत है, उसकी इच्छा के साथ उपासना करना समीचीन तथा न्यायसंगत है। जल से आग और आग से जल की आशा करना न केवल असंगत ही है बल्कि अन्यायपूर्ण मूर्खता है। उपासना से कामनाओं का कलुष मिटता है, जिससे मनुष्य के हृदय से याचकता का दोष निकल जाता है। उपासना से वासनाओं का शमन होता है, जिससे आन्तरिक शाँति की वृद्धि होती है। उपासना से तृष्णा का ताप नष्ट होता है, जिससे शाँति और सन्तोष की प्राप्ति होती है। उपासना से चिन्ता, भय, घृणा, अशाँति, दुष्टता तथा द्वेष के दोष मिटते हैं। आत्मा में प्रकाश तथा आनन्द की समाविष्टि होती है। न कि उससे धन-दौलत और सम्पदाओं की उपलब्धि होती है।

उपासना और आत्म-शाँति एक ही बात के दो पक्ष हैं। आत्मा जब अपनी आदि एवं उद्गम सत्ता की ओर उन्मुख होगी तो निश्चय ही आत्म-लोक और आनन्द की प्राप्ति होगी। आत्मा पर परमात्मा का प्रकाश पड़ते ही उसमें सत्-चित् आनन्द के रूप में उसका प्रतिबिम्ब प्रतिफलित हो उठेगा, जिससे साधारण मनुष्य भी परमात्मस्वरूप होकर नर से नारायण और अंश से अंशी बन जाता है। उपासना की इतनी बड़ी उपलब्धि छोड़ कर जो व्यक्ति उसके अन्धकार पर नश्वरता एवं निस्सारता से दूषित बाह्य एवं भौतिक संपत्तियों की कामना करते हैं, अवश्य ही उनकी बुद्धि पर तरस खाने को जी चाहता है।

मनुष्य धन-दौलत अथवा भौतिक विभूतियाँ क्यों चाहता है? इसीलिये कि उसे सुख-शाँति और संतोष मिले। और बहुत से लोग इसी लक्ष्य को आगे रख कर उपासना में निरत होते हैं। पर सोचने की बात है कि जब निर्लोभ उपासना के आधार पर अहेतुक, अविनश्वर, अक्षय और अनन्त आनन्द की उपलब्धि हो सकती है, तब निकृष्ट सुख को लक्ष्य बना कर उपासना करने में कौन-सा विवेक अथवा दूर दृष्टि है? निर्विकार उपासना द्वारा आत्मानन्द की उपलब्धि हो जाने पर जब किसी सुख की प्राप्ति शेष ही न रह जायेगी, तब धन-दौलत अथवा वैभव भण्डारों की क्या तो महत्ता रह जायेगी और क्या प्रपोज? उद्देश्य जीवन को सुखी बनाना है और जब वह उपासना द्वारा अनायास और अनाधारित रूप से आनन्दित हो सकता है, तब अनावश्यक आडम्बरों का बोझ अपने शिर पर रखना बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती। जिस प्यास को मिटाने के लिये जिस उपाय से अमृत-सागर की उपलब्धि हो सकती है, उसी उपाय के आधार पर तालाब के दो चिल्लू पानी की आशा करना आंतरिक हीनता के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

दरिद्रता की द्योतक भौतिक कामनाओं को साथ लेकर उपासना करने वाले सदा-सर्वदा ही दरिद्र बने रहते हैं। जबकि अवंचक उपासना के पुरुषार्थी निराधार रूप से देवताओं जैसे सुखी और सम्पन्न बने रहते हैं। उनकी कामनायें, तृष्णायें और वासनायें मिट जाती हैं और उनका जीवन मानसरोवर की तरह निर्मल, शाँत, शीतल और प्रसन्न हो जाता है।

उपासना जीवन की सर्वोपरि बुद्धिमता है। किन्तु तब जब वह निर्लोभ और निर्विकार रूप से की जाये। धन-दौलत और भौतिक सुख-साधन पुरुषार्थ और परिश्रम के प्रतिफल हैं। इनको उपासना के प्रतिफलों में जोड़ना क्षीर में क्षार मिलाने के समान असंगत है। इससे सारा रस और सारा उद्देश्य भंग हो जाता है। केवल निष्फलता और निराशा ही हाथ लगती है। आत्म प्रसन्नता के लिये उपासना कीजिये और भौतिक विभूतियों के लिये पुरुषार्थ। इन दोनों का संतुलन बनाये रखने वाला भीतर-बाहर दोनों ओर सुखी, शाँत, सम्पन्न और सन्तुष्ट बन कर लोक, परलोक के सारे पदार्थ पा जाते हैं।


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