आत्म-हनन एक महान पातक

August 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह सुर दुर्लभ मानव-जीवन संसार को अनमोल उपलब्धि है। जिसको यह मिल गया उसे मानो सब कुछ मिल गया। वह इसलिये कि संसार की सारी संपदाएँ और सारी उपलब्धियाँ उसके अनुरूप पुरुषार्थ पर निर्भर हैं। और प्रभु ने हर प्रकार के पुरुषार्थ के योग्य उसे शक्ति, साहस, बुद्धि और विवेक दिया हुआ है। अब यह और बात है कि यह सब होते हुए भी कोई आलस्य, प्रमाद और अज्ञान के वशीभूत रह कर लक्ष्य पूर्ण पुरुषार्थ न करे और असफलता के साथ संसार से मर कर चला जाए।

ऐसे बहुमूल्य जीवन को संसार के तुच्छ विकारों और विषयों में लगा कर मिटा डालना पाप है। निरुद्देश्य रूप से जीवन की शक्तियों का विनाश करना आत्म-घात के पातक के समान है। उदाहरण के लिए यदि कोई धन की लिप्सा में असत्य और बेईमानी का आश्रय लेता है। चोरी, डकैती अथवा ठगी, मक्कारी से भरे काम करता है तो वह आत्म-हत्या ही करता है। यों तो शास्त्रों में आत्मा को निर्विकार, अजर और अमर बताया गया है। गीता में उसके लिए कहा गया है-

“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयत्यापो न शोषयति मारुतः॥’’

-इस प्रकार आत्मा को शस्त्र छेदन नहीं कर सकते, अग्नि भस्म नहीं कर सकता, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकता।

किन्तु इस स्थूल हत्या के अतिरिक्त एक सूक्ष्म हत्या भी होती है। वह किसी वस्तु का अनुपयोग अथवा दुरुपयोग। किसी के पास साधनों की सुविधा हो और वह उनका उपयोग न करे, उन्हें ज्यों का त्यों पड़ा-पड़ा सड़ने गलने दे। न तो अपनी उन्नति में उपयोग करे और न किसी दूसरे के हित में काम लाये तो यह उसकी हत्या ही मानी जायेगी। इसी प्रकार यदि कोई शक्ति अथवा साधन का उपयोग किन्हीं को लजाने, सताने, आतंक जमाने और ऐसे कामों में लगाता है जिससे उसकी स्वयं अथवा समाज की हानि होती है तो वह शक्ति-साधन की हत्या ही है। किसी वस्तु का उसका समुचित उपयोग न करना उसकी हत्या ही है।

स्थूल चीजों को छोड़कर यदि सूक्ष्म अथवा निराकार चीजों को- जैसे ज्ञान ही ले लिया जाय तो उसकी भी हत्या की जाती है। किसी ने अपने पुरुषार्थ से पाया अथवा उसे ईश्वर ने दिया- यदि किसी के पास ज्ञान है और वह उसका उपयोग नहीं करता- अर्थात् न तो स्वयं संसार के बन्धनों और कष्टों से छूटने का प्रयत्न करता है और न उस ज्ञान का उपयोग कर समाज का अन्धकार दूर करता है तो यह अनुपयोगिता उस ज्ञान की हत्या ही होगी। उसका क्या होगा? वह मन मस्तिष्क में बन्द पड़ा नष्ट होता हुआ एक दिन बिल्कुल समाप्त हो जाता है। किसी को हाथ से न मार कर यदि कहीं एकांत में बंद कर दिया जाये और जीवन के साधन-भोजन, जल, आदि न दिये जाएं और वह मर जाए तो क्या बन्द करने वाला व्यक्ति उसकी हत्या के पाप से बच जायेगा? नहीं कदापि नहीं। वह उसका हत्यारा ही माना जायेगा। किसी को मार डालना अथवा किसी के लिए मृत्यु के कारण जुटा देना उसकी हत्या के समान ही है।

इस प्रकार धन की लिप्सा में जब कोई पाप मार्गों का अवलम्बन लेता है तो वह आत्मा का हनन ही करता है। चोरी, डकैती करने अथवा किसी को ठगने अथवा धोखा देने से जो राज-दण्ड अथवा सामाजिक दण्ड मिलेगा उससे मनुष्य की यथार्थ प्रगति रुक जायेगी। प्रगति का अवरोध भी एक प्रकार से आत्म-हत्या ही है। साथ ही उन पापों का जो कुप्रभाव आत्मा पर पड़ेगा उससे उसका तेज नष्ट होगा, मलीनता आएगी वह उस तेजोमयी आत्मा की हत्या ही मानी जायेगी। दीपक को बुझा देना अथवा अग्नि का ताप नष्ट कर देना उसकी हत्या ही तो है।

आनन्द के लोभ में लोग व्यसनों तथा विषय-वासनाओं में संलग्न हो जाते हैं। अज्ञानवश काम सेवन और मद्यपान आदि की अधिकता कर लेते हैं। यह आनन्द पाने का उपाय न होकर एक प्रकार से आत्म-हत्या ही है। अधिक काम सेवन से क्या होगा? सारा भोज, वीर्य और तेज नष्ट हो जायेगा। शरीर खोखला हो जायेगा। प्रतिमा नष्ट हो जायेगी। बुद्धि और विवेक मन्द पड़ जायेंगे। ऐसी स्थिति में मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक तथा मानसिक एवं अध्यात्मिक स्वास्थ्य नष्ट हो जायेंगे। वह संसार के त्रय तापों से ग्रसित रहने लगेगा। कोई उन्नति कर सकना तो उसके लिए असम्भव हो ही जायेगा उल्टे-पतन के गर्त में गिरता चला जायेगा। यह आत्म-हत्या ही है।

लोग सुख, आनन्द, स्वास्थ्य और मनोरंजन के लिए शराब आदि नशे करने लगते हैं। इससे वह अपनी आर्थिक, शारीरिक और सामाजिक तीनों प्रकार की हानि करता है। मद्य का व्यसन मनुष्य को इस हद तक गिरा देता है कि एक समय ऐसा आता है कि वह अपनी जमीन, जायदाद तो दूर पत्नी के गहने-कपड़े तक बेचने लगता है। नशा और दरिद्रता दोनों सगों जैसे साथी हैं, जहाँ नशे का व्यसन होगा वहाँ दरिद्रता का रहना अनिवार्य है। जहाँ दरिद्रता होगी वहाँ कोई न कोई शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक व्यसन जरूर छिपा होगा। नशेबाज ऋणी ही नहीं हो जाते बल्कि वे तरह-तरह के नैतिक तथा सामाजिक अपराध भी करने लगते हैं। जिससे राजदण्ड और सामाजिक निन्दा एवं तिरस्कार की यातना भोगनी पड़ती है। नशेबाजों का शरीर अन्दर-अन्दर गल कर निर्जीव हो ही जाता है। बहुधा अनेक भयंकर रोगों के रूप में भी मद्य का विकार बाहर उभर आता है। नशे तो विष का ही एक रूप होते हैं। विष पान करने का जो परिणाम होना चाहिए वह नशा पीने खाने से होता है। इसे आत्म-हत्या के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?

इनके अतिरिक्त आत्म-हत्या के और भी अनेक रूप एवं प्रकार हैं। ऐसे प्रकारों में निराशा, चिन्ता, उत्तेजना, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष आदि मानसिक विकारों तथा आवेगों को गिनाया जा सकता है। निराश रहने वाला व्यक्ति क्या यह कहने का साहस कर सकता है कि वह अपने को जीवित रखे हुए है। जब वह अपने अन्तर के अन्धकार और बाहर के उदासीनता में अपने को डाले हुए आहें भरता रहेगा, निकम्मा बना पड़ा रहेगा तो किसी प्रकार कह सकता है कि वह अपनी हत्या नहीं कर रहा है। मैं क्या कर सकता हूँ? मेरे पास कोई शक्ति, सामर्थ्य नहीं है। मुझे तो असफलता ही मिलती रहती है। मेरा भाग्य खराब है। ईश्वर मेरे विरुद्ध है। सफलता, प्रगति अथवा उन्नति का प्रकाश देखना मेरे प्रारब्ध में ही नहीं है- इस प्रकार की अनहोनी बातें करने वाला निराश व्यक्ति अपने प्रति आत्म-हत्या का ही अपराधी होता है।

अपने हृदय और आत्मा में चिन्ता की चिता जलाते रहने वाला यदि यह कहे कि वह आत्म-हत्या का उपक्रम नहीं कर रहा है तो ऐसे झूठे आदमी की बात का कौन विश्वास करेगा? यह तो वैसी ही बात हुई कि आग में लकड़ी तो बढ़ाता जाए और कहे यह बुझ जाए कि वह उसे जला थोड़े रहा है। चिन्ता तो प्रत्यक्ष चिता है, आग है, ज्वाला है। जो लोग इसे पाल लेते हैं वे दिन-रात अन्दर ही अन्दर जलते रहते हैं। कुछ समय बाद उनकी उस आन्तरिक जलन के लक्षण बाहर भी दिखाई देने लगते हैं। शरीर सूखने लगता है। मुख पर कालिमा आ जाती है। आहार विकृत हो जाता है। बाल गिर जाते हैं। दाँत कमजोर हो जाते हैं। आँखों की ज्योति मन्द हो जाती है। शरीर निःशक्त और निढाल हो जाता है। इस प्रकार चिन्ता द्वारा अपने को इस दुर्दशा में डाल लेना आत्म-हत्या नहीं तो और क्या है?

इतना ही क्यों? चिन्ता की मात्रा और तारतम्यता अब अधिक हो जाती है तो मनुष्य विक्षिप्त, पागल और उन्मादी तक हो जाता है। वे जहाँ तहाँ बैठे बकते झकते रहते हैं। संसार का कोई काम नहीं कर सकते। किसी मसरफ के नहीं रह जाते। अपने को ऐसी दशा में खींच लाने वाले लोग आत्म-हत्याओं की श्रेणी में ही आते हैं।

उत्तेजना, आवेग अथवा क्रोध आदि विकारों को पोषण देने वाले लोग भी आत्म-हत्यारे ही माने जायेंगे। उत्तेजना प्रधान व्यक्ति जरा-सा कारण उपस्थित होने पर भी विस्फोट जैसे फूट उठते हैं। अपने प्रवाह में वे हित-अनहित की ओर ध्यान नहीं दे पाते। जो कुछ सींग समाते हैं तत्काल कर बैठते हैं। ऐसे ही आदमी दूसरों की ही नहीं अपनी भी स्थूल रूप से हत्या कर डालते हैं। उत्तेजना प्रधान व्यक्ति अपने मस्तिष्क की शाँति और मन की स्थिरता खो देते हैं। उनके पूरे शरीर में एक तनाव बना रहता है। जिससे वे कभी भी शान्ति और सन्तोष अनुभव नहीं करते आवेश में वे दिन में बहुत बार मरते-जीते रहते हैं। उत्तेजना प्रधान व्यक्तियों की विवेक-बुद्धि तथा कार्य-दक्षता न केवल मिट ही जाती है, बल्कि उसे प्राप्त करने की क्षमता भी चली जाती है। वह एक तरह से मूढ़ और जड़ बन जाता है। मूढ़ता और जड़ता को मनुष्य की मृत्यु ही माना गया है। अस्तु उत्तेजना पाते रहने वाले को यदि आत्म-हत्यारा कह दिया जाय तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

क्रोध का उदय होते ही मनुष्य सबसे पहले बौद्धिक रूप में मर जाता है। गीता में कहा ही गया है-

“क्रोधाद् भवति संमोहः संमोहात्स्मृति विभ्रमः। स्मृति भ्रंशाद बुद्धिनाशा बुद्धिनाशा प्रणश्यति।”

- ‘‘क्रोध से संमोह (अविवेक) पैदा होता है, संमोह से स्मृति का भ्रंश होता है और स्मृति भ्रंश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से मनुष्य आप नष्ट हो जाता है।

इस नियम के अनुसार जब मनुष्य क्रोध करता है तो निश्चय ही अपने विनाश की तैयारी करता है यदि वह उसे बलपूर्वक रोक नहीं लेता। क्रोध की बहुतायत से जिसने अपने बुद्धि विवेक का नाश कर डाला वह यदि पागलों की तरह शरीर से जीवित भी रहा तो भी बुद्धिमान लोग उसे जीवित नहीं मान सकते। क्रोधी व्यक्ति अपनी बुद्धिनाश द्वारा ही विनाश के बीज नहीं बोलेता बल्कि अपने रस दोष से शत्रुओं तथा विरोधियों की संख्या भी बढ़ा लेता है। चारों ओर शत्रुओं, विरोधियों, असहयोगियों से घिरा हुआ मनुष्य कब तक अपना मंगल मना सकता है वह किसी के प्रतिशोध अथवा सामाजिक असहयोग की भेंट चढ़कर एक दिन निश्चय ही नष्ट हो जायेगा। इस प्रकार क्रोधी व्यक्ति कुमार्ग से अपनी ही हत्या करके आत्म-हनन का दोषी बनता है।

ईर्ष्या-द्वेष तो मनुष्य जीवन के लिए साक्षात् विष ही माने गये हैं। जो ईर्ष्यालु अथवा दैवी स्वभाव का है वह सुख-शान्ति से सदा के लिए वंचित हो जाता है। यदि वह स्वयं उन्नति करता है तो दूसरों से द्वेष करता है और यदि किसी दूसरे को उन्नति करते देखता है तो ईर्ष्या से जलता रहता है। यह जीवन भी कोई जीवन है। जो एक क्षण के लिए भी सुख-शान्ति अथवा संतोष न पा सके, वह तो जीवन मृत की उस स्थिति में रहता है जो प्राण-हीन मूल्य से भी जघन्य होती है। इस प्रकार ईर्ष्या-दोष का पालन करने वाले भी आत्म-घाती हुआ करते हैं।

स्थूल रूप से अपने प्राण खो देना ही आत्म-हत्या नहीं है। विकारों, व्यसनों तथा दोषों द्वारा अपने को अस्वस्थ, निर्बल, निरातेज, मूढ़ अथवा अविवेक को बनाना अथवा अपने आचरण द्वारा समाज में विरोध, निंदा, अपयश तथा जस-भोग उत्पन्न करना भी अपने लिए आत्म-घात करने के समान ही है। अस्तु अपनी-अपनी क्षमताओं और गुणों की हर प्रकार से रक्षा करते हुए मनुष्य को आत्म-हत्या के पाप से बचे रहकर उन्नति, प्रगति और सुख-शांति के रूप में अपने जीवन को दीप्तमान ही बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। यह सुर-दुर्लभ मानव-जीवन अनमोल है। ईश्वर का उपहार उसकी धरोहर है। इसे व्यर्थ में खोना अथवा इसका दुरुपयोग करना आत्म-हत्या के समान दोषपूर्ण माना गया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118