ज्ञान और श्रम का संयोग आवश्यक

August 1968

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मनुष्य जीवन की परिपूर्णता के लिये तप आवश्यक डडडड ज्ञान-साधना + श्रम-साधना = तप। ज्ञान और श्रम दोनों का व्यक्तित्व अपने आप में अपरिपूर्ण है इसलिये बौद्धिक वाणी को श्रमशील होना चाहिए और श्रमिक को स्वाध्यायशील भी। इस बात को वेद में यों व्यक्त किया है-

संज्ञपनं वा मनसोऽथो संज्ञपनं हृदः। अथो भगस्य यच्छ्रान्तं तेन संज्ञपयामि वः॥ -अथर्व 6।74।2

अर्थात्- हे शिष्य! तू मन और हृदय के ज्ञान से सम्पन्न बन, वैसे ही ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये परिश्रमी भी बन।

मनुष्य जीवन के विकास के लिये ज्ञान की, शिक्षा की कितनी आवश्यकता है यह कोई कहने की बात नहीं। सार्वजनिक, लोक सेवाओं से लेकर वैयक्तिक जीवन की सुख सुविधाओं के लिये भी ज्ञान परमावश्यक है। बुद्धिमान व्यक्तियों के जीवन में अधिक आकर्षण और सुभीता प्रतीत होता है। जब कि अशिक्षित व्यक्तियों को पग-पग पर औरों का आश्रित लेना पड़ता है फिर भी काम नहीं बनता। शिक्षित व्यक्ति कहीं भी चले जाते हैं। अशिक्षित व्यक्ति बिना सहारे के रेल की टिकट भी खरीद नहीं सकते। मनुष्य समाज में जो सुविधायें और श्रेष्ठतायें हैं उनका अधिकाँश उपभोग चतुर व्यक्ति करते हैं। अनपढ़ और गंवार लोग उनसे जो कुछ बचता है उतने में ही विवश होकर सन्तोष करते हैं।

शिक्षा या बौद्धिक चतुराई यद्यपि ज्ञान की सीमा में नहीं आते तथापि वे उसके अंश मात्र होने से भी इतने लाभदायक हैं। परिपूर्ण ज्ञान की परिभाषा, वेद ने बताई। उसे विद्या कहते हैं। वह केवल बुद्धि विकास को ही ज्ञान नहीं मानते। मन का ज्ञान अर्थात् मानसिक शक्तियों का विकास। दोनों का संयोग ही ज्ञान है। एक शब्द में उसे विद्या या अध्यात्म कहा जा सकता है।

मन का विकास इतिहास, भूगोल, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान, कृषि विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, शरीर शास्त्र, नागरिक शास्त्र आदि से होता है। साँसारिक वस्तुओं के विश्लेषण की जितनी अधिक दक्षता बढ़ती जाती है यह माना जाता है कि वह व्यक्ति उतना ही अधिक बुद्धिमान है आरे साँसारिक कर्त्तव्यों को उतनी ही सफलता और सरलता से पूरा कर सकता है इसीलिये उसे बड़ी जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं और उसी परिणाम में सेवा का लाभ और पारिश्रमिक भी।

मनोबल का विकास ही साहस, सूझ-बूझ, कुशलता, कलाकारिता, योग्यता का प्रतीक है। किन्तु केवल बौद्धिक योग्यता ही मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर पाती। हृदय और उसके उद्गार भी ऐसे हैं जिनकी आवश्यकता मनुष्य ही नहीं, साधारण जीवधारियों को भी होती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, सौजन्य, श्रद्धा, निष्ठा, आस्था का स्थान मनुष्य जीवन में मानसिक शक्तियों से भी अधिक है। पढ़े-लिखे व्यक्ति यदि हृदय हीन हैं तो अपार सम्पत्ति और सफलता होने पर भी उनका व्यक्तिगत जीवन दुःखी रहता है पर जिन लोगों के जीवन में प्रेम, ममत्व, आत्मीयता, विश्वास की भावनायें होती हैं वे अनपढ़ होने पर भी बड़े प्यारे लगते हैं। बहुत से अशिक्षित व्यक्तियों के कौटुम्बिक दांपत्ति और सामाजिक सम्बन्ध बड़े मधुर होते हैं यह सब हृदय का ज्ञान कहलाता है। उसकी आवश्यकता बौद्धिक ज्ञान ने अधिक है। पर साँसारिक दृष्टि से दोनों ही आवश्यक हैं इसको उनका एक सम्मिलित रूप दिया गया है। शास्त्रकार उसे ‘संज्ञान’ या ‘विद्या’ कहते हैं।

आधुनिक शिक्षा केवल शिक्षा ही विद्या नहीं जबकि जीवन में अधिकतम विकास और सन्तुष्टि के लिये उभयनिष्ठ स्थिति आवश्यक है। हम जो ज्ञान प्राप्त करें वह बुद्धि विकास के साथ-साथ आत्म-विकास का भी माध्यम होना चाहिये। व्यक्ति को यह भी जानना चाहिये कि यह संसार, संसार के पदार्थ, पदार्थों से उत्पन्न परिस्थितियाँ ही सब कुछ नहीं हैं वरन् एक चेतन तत्वात्मा भी है, उसके सोचने, विचारने, व्यवहार करने का अपना तरीका भी है। उसके गुण संस्कार और आवश्यकतायें पृथक हैं। इसी तरह उसके विकास की प्रक्रिया भी भिन्न है। इन सब बातों का ज्ञान अध्यात्म कहलाता है। जब शिक्षा के साथ अध्यात्म का समावेश हो जाता है तो वह पूर्ण विद्या बन जाती है। शास्त्रकार ऐसे ही ज्ञान को ज्ञान मानते हैं। मानवीय समस्याओं के हल की क्षमता और जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति ऐसे ही ज्ञान से सम्भव है।

इन पंक्तियों में जीवन की परिपूर्णता के लिये तप के एक अंश की व्याख्या की गई है। तप का दूसरा भाग है शरीर का तप-परिश्रम। श्रम का संयोग न होना ज्ञानी मनुष्य को भी या तो अवसाद और अभाव की ओर ले जायेगा अथवा उसे भ्रष्टाचार की दिशा में अग्रसर करेगा। आज जो सामाजिक जीवन में विकृति दिखाई दे रही है वह श्रम के सम्मान के अभाव के कारण ही है। ज्ञान एकाँगी है और उसका व्यवहार भी एकाँगी। बुद्धि जीवियों ने यह धारणा बना ली है कि शारीरिक श्रम अनपढ़ों का काम है और अनपढ़ यह कहते हैं कि उनका काम केवल श्रम करना है, पढ़ना-लिखना नहीं। इस भ्रान्त धारणा ने निरक्षरों को तो पशु श्रेणी के श्रम में ला दिया और पढ़े-लिखे लोगों को अज्ञानियों की सी स्थिति में। पढ़े-लिखे आज अधिक भ्रमित हैं उनके जीवन में अधिक भ्रष्टाचार, कलह, कटुता, क्लेश और अशान्ति है। श्रम के प्रति निरादर की भावना में बुद्धि जीवियों को भोगवादी बना कर उनकी रचनात्मक क्रियाशीलता को पंगु कर दिया है। इसीलिये चाहते हुए भी लोग ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं कर पा रहे।

बहुत धन कमा लेना ऐश्वर्य नहीं कहलाता। ईश्वर भौतिक और आध्यात्मिक गुणों के संयोग से बना है, ऐश्वर्य में भी उसी प्रकार आध्यात्मिक उन्नति उतनी ही आवश्यक है जितनी भौतिक। इसके लिये विद्या और श्रम दोनों का सम्मिलित तप आवश्यक है। तप से ही ऐश्वर्य की सिद्धि होती है।

श्रम केवल उपार्जन बढ़ाने के लिये ही नहीं आवश्यक बताया गया, वरन् वह चरित्र का एक स्थायी अंग है। जिस तरह मक्खियाँ केवल वहीं जमा होती हैं जहाँ गन्दगी होती है उसी प्रकार बुराइयाँ, शारीरिक और मानसिक रोग वहीं जन्म लेते हैं जहाँ आलस्य की, परिश्रम से जी चुराने की, गन्दगी जमा होती है। सम्भवतः मनीषियों ने आलस्य हो इसीलिये पापों का जनक कहा है क्योंकि श्रम की गति रुक जाने से ही रोग और शोक पैदा करने वाले विकार उत्पन्न होते हैं?

मनुष्य हर समय पढ़ता नहीं रह सकता। मन की शक्ति की भी एक सीमा है। वह उतना ही पचा सकता है जितना उसका क्षेत्र है। मन को विश्राम देने के लिये बुद्धि जीवियों को तो शारीरिक श्रम की आवश्यकता हो जाती है। जितना समय दिमागी काम से बचे उतने में परिश्रम करना चाहिये। यह कोई आवश्यक नहीं कि फावड़ा ही चलाया जाय। रुचि और सुविधानुकूल कोई भी रचनात्मक और मनोरंजक काम किया जाये। यदि उसमें शारीरिक अवयवों का संचालन होता है तो वह श्रम है। उपज की दृष्टि से ही नहीं विद्या और आचरण की रक्षा के लिये भी ऐसा श्रम आवश्यक है। निरोगिता तो उसका एक स्थूल लाभ मात्र है।

उसी प्रकार शारीरिक श्रम की भी एक सीमा है। शरीर थक जाये तो मन और आत्मा को सजग रख कर अपनी चेतनता को विकारों की ओर जाने से रोका जाता है। उसके लिये स्वाध्याय ही सर्वोत्तम साधन है।

पढ़े-लिखे लोग शारीरिक श्रम किया करें और शारीरिक श्रम करने वाले ज्ञान प्राप्ति का उपक्रम बनाया करें तो मनुष्य जीवन को समृद्ध, ऐश्वर्य युक्त और परिपूर्ण बनाया जा सकता है। इस मन्त्र में ऋषि ने यही तथ्य प्रकट किया है।


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