‘हमारा चित्त अशुद्ध है’—प्रायः लोगों को यह शिकायत रहा करती है। शिकायत ठीक है। यदि उनका चित्त अशुद्ध न हो, वह दोषः रहित हो तो उनको दुःख-द्वन्दों का सामना न करना पड़े। चिन्ता, क्षोभ तथा असंतोष का ताप जब किसी को संतप्त करने लगता है और वह उसका कारण बाह्य परिस्थितियों में नहीं खोज पाता, क्योंकि वह वहाँ होता ही नहीं, तो उसे यही मानना पड़ता है कि उसकी इस यातना का कारण उसका चित्त-दोष ही है। निर्दोष चित्त व्यक्ति की प्रसन्नता कभी भंग नहीं होती। चित्त की निर्दोषिता ही वह प्रसन्नता है जिसकी आकाँक्षा मनुष्य किया करता है और जो कि जीवन की सबसे सच्ची एवं सार्थक उपलब्धि है।
मनुष्य की इच्छा रहती है कि उसका चित्त उसके वश में रहे। वह जिस प्रकार चाहे उसका संचालन करे। चित्त गति के अनुसार ही मनुष्य कर्मों में नियुक्त होता है। सत्कर्मों को करने की इच्छा हर मनुष्य में होती है। वह सत्कर्म करना भी चाहता है किन्तु चित्त की उच्छृंखलता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। चित्त-दोष के कारण न चाहता हुआ भी वह असत् कर्मों में प्रेरित हो जाता है और फलस्वरूप दुःख, क्षोभ अथवा पश्चाताप का भागी बनाता है।
जिस प्रकार चित्त की उच्छृंखलता दुःख का कारण है उसी प्रकार उसकी स्ववशता, सत्कर्मों अथवा शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु होती है। इसी कारण हर मनुष्य अपने चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है। चित्त स्ववश तभी हो सकता है जब वह निर्दोष हो। सदोष अथवा अशुद्ध चित्त उपद्रवी होता है। विपरीत-गति-गामी होने से वह मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर ही लिये भागता रहता है। अन्धकार से मनुष्य को स्वाभाविक घृणा तथा भय से वितृष्णा ही होती है क्योंकि यह दोनों आनन्द के घोर शत्रु हैं।
स्वाधीन-चित्त केवल शाँति दाता ही नहीं, शक्ति-दाता भी होता है। शक्ति सुख की जननी है। उससे आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से निर्भयता का आविर्भाव होता है। अनुशासित चित्त का शक्ति भण्डार मनुष्य को इतना कार्य सक्षम बना देता है कि वह बड़े-बड़े विस्मयकारक कार्य कर सकता है। जीवन की सार्थकता एवं सफलता इस एक बात पर ही निर्भर रहती है कि वह कुछ ऐसे सत्कर्म कर सके जिससे उसका तथा संसार का उपकार हो और उसकी आत्मा को एक शाश्वत सन्तोष मिले। उसे जीवन अथवा मृत्यु दोनों स्थितियों में हर्ष की उपलब्धि हो। मनुष्य का चित्त सच्ची शक्तियों का आगार है। इस शक्ति -कोष का उद्घाटन तब ही होता है जब चित्त अनुशासित तथा स्ववश होता है। चित्त की स्वाधीनता उसकी निर्दोषिता पर ही निर्भर है।
मनुष्य के लिये अब यह बात अनजान नहीं रह गई है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए क्या करने में उसका कल्याण है और क्या करने में अकल्याण है। अशुद्ध चित्त के कारण बहुधा यह होता रहता है कि मनुष्य कल्याणकारी कार्य करना चाहता है किन्तु नहीं कर पाता प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं जो अमाँगलिक तथा अकल्याणकारी होते हैं। ऐसी दशा में पश्चाताप होना स्वाभाविक है। मनुष्य मन ही-मन रोता-खीजता और अपने को कोसता है। वह जानता है कि इस प्रकार के अवाँछनीय कार्य उसको प्रगति पथ पर, सुख-शाँति के महान् मार्ग पर न बढ़ने देंगे। जिससे उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर व्यर्थ चला जायेगा और तब उसे आत्मोन्नति, आत्मकल्याण करने का अवसर न जाने कभी मिलेगा या नहीं। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अति दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग करके आत्मकल्याण का अधिकारी बन जाये। किन्तु खेद है कि चित्त की अशुद्धता के कारण वह अपने इस महत् उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता।
बहुधा लोग चित्त को चंचलता का ही वह दोष मान लेते हैं जिसके कारण हम उसे स्ववश नहीं कर पाये चित्त की चंचलता वस्तुतः उसका दोष नहीं है बल्कि यह असकी विकलता है, छटपटाहट है जो शुद्धि प्राप्त करने की लालसा एवं प्रयास से उत्पन्न होती है। नैसर्गिक नियम के अधीन चित्त स्वभावतः शुद्धि की ओर स्वयं गतिशील रहा करता है और जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिल जाती है एक ओर से दूसरी और को भागता रहता है। ज्यों ही उसे अभीष्ट शुद्धता जो कि प्रसन्नता के रूप में होती है,मिल जाती है वह स्थिर, शाँत एवं सन्तुष्ट हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है और न चंचल। अभीष्ट केन्द्र बिन्दु पर पहुँच कर वह एकरस शुभ संकल्पों तथा सत्कर्मों में लग कर मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बना देता है। चित्त की चंचलता इस बात का प्रमाण है कि वह अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए वह लालायित होकर भागा-भागा फिर रहा है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी सहायता करे। एक बार ऐसे अपने केन्द्र बिन्दु पर पहुँच जाने में मदद करे, जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर मनुष्य को उसी प्रकार सहायक तथा सुखदाता बन सके जिस प्रकार पिता द्वारा पाला-पोषा पुत्र उसका अवलम्ब बन जाता है। चित्त द्वारा शुद्धि का प्रयत्न और कुछ नहीं मनुष्य को कल्याण पथ पर पहुँचाने की सामर्थ्य प्राप्त करने का प्रयास ही है चित्त में अस्वाभाविकता आ जाना ही उसकी अशुद्धि है जिसके कारण हम उसे अपने वश में नहीं रख पाते। वासनाओं की उत्पत्ति और उनकी पूर्ति को ही जीवन मान लेना वह अस्वाभाविकता है जो चित्त की अशुद्धि का कारण बनता है। जब कि स्वाभाविक जीवन वासनाओं से परे है। वासनाओं से परे जो एक सत्य, शिव और सुन्दर जीवन है वही वास्तविक जीवन है। उस जीवन की अनुभूति कर लेने पर मनुष्य का चित्त शान्त, सन्तुष्ट एवं स्थिर हो जाता है। वासनायें जीवन की अविराम विकृतियाँ है। एक बार जब इनका क्रम प्रारम्भ हो जाता तो फिर खत्म होने का नाम नहीं लेता। एक वासना की पूर्ति से दूसरी वासना का जन्म होता है। वासनाओं का जाल इतना सधन तथा सुदृढ़ हो जाता है कि एक बार फँस जाने पर उसमें से निकल जाना कठिन हो जाता है। मनुष्य मछली की तरह छटपटाता हुआ तड़प-तड़प कर जीवन खो देता है। वासनाओं की उत्पत्ति एवं पूर्ति स्वयं में कोई प्रक्रिया नहीं है। इनको जन्म और पूर्ति का सुख देने वाली एक चेतन सत्ता है उसी चेतना सत्ता के प्राप्त करने का प्रयास ही वह स्वाभाविक जीवन है जो चित्त की शुद्धि में सहायक होता है। आत्म प्रकाशक मूल सत्ता को जीवन न मान कर वासनाओं की उत्पत्ति एवं पूर्ति को जीवन मान लेना ही अस्वाभाविकता है, जिसको अपनों लेने से चित्त अशुद्ध एवं विकृत हो जाता है। वासना प्रधान चित्त सदैव ही किसी न किसी प्रकार का अभाव अनुभव करता है। वासनाओं एवं तृप्ति में स्वाभाविक विरोध है। जिस समय तक वासनाओं की उपस्थिति रहेगी, अभाव बना रहेगा। वासनाओं से निवृत्त चित्त में एक शाश्वत तृप्ति का समावेश हो जाता है और यही तृप्ति उसकी वह निर्विकारता है जिसकी मनुष्य को अपेक्षा है, आवश्यकता है।
वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण ही वासनाओं को जन्म देता है। इस आकर्षण का कारण है वस्तुओं को बहुत महत्व देना। जब मानव जीवन की सुख शाँति का हेतु वस्तुओं की प्राप्ति मान लिया जाता है तब उनका महत्व अनावश्यक रूप से बढ़ जाता है। मनुष्य अपनी भ्राँत मान्यता के वशीभूत होकर वस्तुओं के संग्रह में निरत हो जाता है। वह उन्हें पाने में कर्तव्य का भी बोध खो देता है। एक वस्तु पाने के बाद दूसरी पाने की लालसा में प्रयत्न करता हुआ स्वाभाविक जीवन से भटक कर अस्वाभाविक जीवन की ओर चला जाता है, जिससे संघर्ष अशांति तथा अतृप्ति की वृद्धि हो जाती है। ऐसी दशा में चित्त का शुद्ध रहना सम्भव नहीं हो सकता ।
जिनको पाने और इकट्ठा करने में मनुष्य अपना सारा जीवन ही यापन कर डालता है, यदि उन वस्तुओं में सुख एवं सन्तुष्टि होती तो कोई एक वस्तु की कामना न रहती । सुख में खण्ड नहीं होते वह अखण्ड एवं पूर्ण होता है। वह जिसमें रहता है पूर्ण एवं अखण्ड रूप में रहता है अन्यथा बिल्कुल नहीं रहता। एक वस्तु से तृप्त न होकर दूसरी के लिए लालायित रहना इस बात का प्रमाण है कि सच्चा सुख, सन्तुष्टि वस्तुओं में नहीं है। इस लिए उसके लिए उनका संग करना असंगत एवं अस्वाभाविक है जो कि चित्त की अशुद्धि का विशेष कारण बनती है।
चित्त की शुद्धि के लिये वस्तुओं से असंग रहना आवश्यक है। वह हर चीज इन अर्थों में वस्तु ही कही जायेगी जो नश्वर एवं परिवर्तनशील है। आवश्यकतानुसार निर्मोह के साथ संसार की वस्तुओं का उपयोग करते हुए अवनिश्वर आत्मा के प्रति आकर्षित रहना ही वस्तुओं का असंग कहा गया है। वस्तुओं के साथ असंग रहने की स्थिति में मनुष्य में माया, मोह, ममता, लोभ तथा अहंकार की वे विकृतियाँ उत्पन्न नहीं होने पाती जो कि चित्त की अशुद्धता अथवा मल कही गई है। इन विकृतियों के अभाव में चित्त शुद्ध, शान्त एवं स्थिर रहता है जिससे एक शाश्वत, सात्विक तथा अनिवर्चनीय प्रसन्नता प्राप्त होती है और यही प्रसन्नता मानव जीवन का लक्ष्य एवं उद्देश्य है।
निःसन्देह इस नश्वर संसार में रहते हुए और नश्वर वस्तुओं की आवश्यकता होने पर उनसे संग होना असम्भव नहीं, किन्तु आवश्यकता जन्य संग व्यवहारिक है, स्थायी अथवा सार्वजनिक नहीं है। मनुष्य का सार्वजनिक सम्बन्ध तो उसकी अपनी उस आत्मा से है जिसका कभी न तो नाश होता है और न जिसमें कभी कोई विकार ही उत्पन्न होता है। संग करते हुये भी वस्तुओं से असंग रहने की कला का अभ्यास कर लेने वाले अपने चित्त को शुद्ध करके शाश्वत सुख शान्ति एवं सन्तोष के अधिकारी बनते हैं।