मनुष्य जब एक बार पाप के नागपाश में फँसता है, तब वह उसी में और भी लिपटता जाता है, उसी के गाढ़ आलिंगन में सुखी होने लगता है। पापों की शृंखला बन जाती है। उसी के नये रूपों पर आसक्त होना पड़ता है। मानवों के समस्त पाप उनके स्वभाव जन्य या पूर्व संस्कारों के परिणामस्वरूप एक बीमारी की तरह होते हैं। ऐसे पापी क्रोध और दण्ड के बजाय दया के पात्र अधिक होते हैं। इसीलिये कहा गया है कि पाप में पड़ना मानव-स्वभाव है और उसमें जान-बूझकर डूबे रहना शैतान का स्वभाव है।
-विक्टर ह्यूगो