आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है।

November 1966

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‘आलस्य एक घोर पाप है’—ऐसा सुनकर कितने ही आश्चर्य में पड़कर सोच सकते हैं क्या अजीब-सी बात है! भला आलस्य किस प्रकार पाप हो सकता है? पाप तो चोरी, डकैती, लूट-खसोट, विश्वासघात, हत्या, व्यभिचार आदि कुकर्म ही होते हैं। इनसे मनुष्य का नैतिक पतन होता है और वह धर्म से गिर जाता है। आलस्य किस प्रकार पाप माना जा सकता है? आलसी व्यक्ति तो चुपचाप एक स्थान पर पड़ा-पड़ा जिन्दगी के दिन काटा करता है। वह न तो अधिक काम ही करता है और न समाज में घुलता-मिलता है, इसलिये उससे पाप हो सकने की सम्भावना नहीं के समान ही नगण्य रहती है।

पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?

आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।

शरीर की सुरक्षा श्रम द्वारा ही की जा सकती है। आलस्य में निष्क्रिय पड़े रहने से इसके सारे कल-पुर्जे ढीले तथा अशक्त हो जाते हैं, अनेक व्याधियाँ घेर लेती हैं। आरोग्य चला जाता है। अस्वस्थ शरीर आत्मा को भी अस्वस्थ कर डालता है। आत्मा चेतनास्वरूप परमात्मा का पावन अंश है, उसे इस प्रकार निस्तेज, निश्चेष्ट अथवा अपावन बनाने का अधिकार किसी जीव को नहीं है। और जो अबुद्धिमान ऐसा करता है वह नास्तिक जैसा ही माना जायेगा। आलसी निश्चय ही इस पाप का दोषी होता है।

परमात्मा ने शरीर दिया, शक्ति दी, चेतना दी और बोध दिया। इसलिये कि मनुष्य अपनी उन्नति करें और जीवन-पथ पर आगे बढ़े। स्वयं सुख पाये और उसके प्यारे अन्य प्राणियों को सुखी होने में सहयोग दे। मनुष्य का कर्तव्य है कि ईश्वर की इस अनुकम्पा को सार्थक करे और अपने उपकारी के प्रति भक्ति- भावना से कृतज्ञता प्रकट करे। पर क्या आलसी अपने इस कर्तव्य को पूरा करता है? निश्चय ही नहीं। वह दिन-रात प्रमाद में पड़ा ऊँघता रहता है। औरों को सुखी करना तो दूर, उल्टा उन्हें दुःख ही देता रहता है और स्वयं भी दीनता, दरिद्रता, रोग तथा निस्तेजता का दुःख भोगा करते हैं। क्या इस प्रकार की अकर्तव्य शालीनता पाप नहीं कही जायेगी? जो अभागा आलसी अपने साधारण जीवन-क्रम का निर्वाह प्रसन्नता, तत्परता तथा कुशलता से नहीं कर पाता वह स्वस्थ तन, प्रसन्न मन एवं उज्ज्वल आत्मा द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन रूप, पूजा-पाठ, जप-तप, सेवा-उपासना, भजन-कीर्तन का नियमित आयोजन कहाँ निभा सकता है? दोपहर तक सोते रहने, दिन में खाकर पड़े रहने और कष्टपूर्वक कोई आवश्यक कार्य कर सकने वाला प्रमाद उन्मादी भगवत्-भक्ति करता अथवा कर सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। नियमित रूप से, भक्ति-भावना से भरी उपासना न करना उस अनुग्राहक ईश्वर के प्रति कृतघ्नता है। कृतघ्नता का पाप जघन्यता की कोटि का पाप है जिसका सबसे पहले अपराधी आलसी ही होता है। जिसके पास समय ही समय रहता हो वह परमात्मा की उपासना न करे उससे बढ़कर पापी और कौन हो सकता है जबकि व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल कर प्रभु की याद न करने वाले आत्मधारी तक आलोचना एवं निन्दा के पात्र बनते हैं।

आलसी का हठ रहता है कि शरीर उसका अपना है। मान लो उसका है तब भी तो उसे नष्ट करने का अधिकार उसे नहीं हो सकता है। शरीर उसका है तो शरीर जन्य सन्तानें भी तो उसकी ही होती हैं और उनका भी उसके शरीर पर कुछ अधिकार होता है। शरीर नष्ट कर वह उनके शरीर का हनन तो नहीं कर सकता। शरीर से उपार्जन होता है और उपार्जन से बच्चों का पालन-पोषण। शिथिल एवं अशक्त शरीर आलसी उपार्जन से ऐसे घबराता है जैसे भेड़ भेड़िये से दूर भागती है। धन तो परिश्रम का मीठा फल है आलसी जिसे लाकर परिवार को नहीं दे पाता और रो-झींक कर, मर-खप कर विवश हो कर लाता भी है वह अपर्याप्त तो होता ही है साथ ही उसकी कुढ़न उसके साथ जुड़ी रहती है जो कि बच्चों के संस्कारों एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है। इस प्रकार आलसी बच्चों का पालन करने के स्थान पर परोक्ष रूप से उनका भावनात्मक हनन ही किया करता है, जो एक अक्षम्य अपराध तथा पाप है। यदि बच्चों का सम्बन्ध न भी जोड़ा जाये तो भी अपने कर्मों से शरीर का सत्यानाश करना आत्महत्या के समान है जो उसी तरह पाप ही माना जायेगा।

आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता। उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।

दरिद्रता भयानक अभिशाप है। इससे मनुष्य के शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर का पतन हो जाता है। कहने को कोई कितना भी सन्तोषी, त्यागी एवं निस्पृह क्यों न बने किन्तु जब दरिद्रता जन्य अभावों के थपेड़े लगते हैं तब कदाचित् ही कोई ऐसा धीर-गम्भीर निकले जिसका अस्तित्व काँप न उठता हो। यह दरिद्रता की स्थिति का जन्म मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक आलस्य से ही होता है। गरीबी, दीनता, हीनता आदि कुफल आलस्यरूपी विषबेलि पर ही फला करते हैं।

आलसी व्यक्ति परावलम्बी एवं पर भाग भोगी ही होता है। इस धरती पर परिश्रम करके ही अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सकती है। यदि परमात्मा को मनुष्य की परिश्रमशीलता वाँछनीय न होती तो वह मनुष्य का आहार रोटी वृक्षों पर उगाता। बने बनाए वस्त्रों को घास-फूस की तरह पैदा कर देता। मनुष्य को पेट भरने और शरीर ढकने के लिये भोजन-वस्त्र कड़ी मेहनत करके ही पैदा करना होता है। नियम है कि जब सब खाते-पहनते हैं तो सबको ही मेहनत तथा काम करना चाहिए। इसका कोई अर्थ नहीं कि एक कमाये और दूसरा बैठा-बैठा खाये। कोई काम किये बिना भोजन-वस्त्र का उपयोग करने वाला दूसरे के परिश्रम का चोर कहा गया है। अवश्य ही उसने हराम की तोड़कर संसार के किसी कोने में श्रम करते हुए किसी व्यक्ति का भाग हरण किया है। दूसरे का भाग चुराना नैतिक, सामाजिक तथा आत्मिक रूप से पाप है और अकर्मण्य आलसी इस पाप को निर्लज्ज होकर करते ही रहते हैं।

जो खाली ठाली रहकर निठल्ला बैठा रहता है उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक पतन भी हो जाता है। “खाली आदमी शैतान का साथी” वाली कहावत आलसी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। जो निठल्ला बैठा रहता है उसे तरह-तराह की खुराफातें सूझती रहती हैं। यह विशेषता परिश्रमशीलता में ही है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में विकारपूर्ण विचार नहीं आने देती पुरुषार्थी व्यक्ति को इतना समय ही नहीं रहता कि वह काम से फुरसत पाकर बेकार के ऊहापोह में लगा रहेगा और अकर्मण्य आलसी के पास इसके सिवाय कोई काम नहीं रहता, निदान उसे अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ तथा दुर्गुण घेर लेते हैं जिससे उसके चरित्र का अधःपतन हो जाता है। लोग इस अभिशाप से दुराचारी तथा अपराधी बन जाया करते हैं। निठल्ले और निष्क्रिय बैठे रहने वाले व्यक्तियों का विचार-सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे उन्हें ऐसी-ऐसी अनेक सनकें सूझा करती हैं जो व्यवहार-जगत में पागलपन की संज्ञा पा सकती हैं। शेखचिल्ली की तरह वह न जानें किस प्रकार के मानस-महल बनाया और गिराया करता है। प्रमाद पूर्ण ऊहापोह ने संसार में जाने कितने उन्मादी पैदा कर दिये हैं। प्रमाद तथा आलस्य को उन्माद तथा पागलपन का प्रारम्भिक रूप समझकर उससे दूर ही रहना चाहिए। क्या आर्थिक क्या सामाजिक, क्या आत्मिक अथवा क्या आध्यात्मिक कोई भी उन्नति चाहने वाले को आलस्य के पाप का परित्याग कर श्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य करना चाहिए तभी वे अपनी वाँछित स्थिति पा सकेंगे, अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे अन्य कोई नहीं।


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