मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार

November 1966

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संसार की हर वस्तु नाशवान है—मनुष्य का शरीर भी। किन्तु इन नाश होने वाली वस्तुओं में मनुष्य-जीवन सबसे अधिक मूल्यवान् वस्तु है। संसार की हर वस्तु का अपना-अपना कुछ उपयोग है। उपयोगिता के आधार पर नगण्य वस्तु का भी मूल्य बढ़ जाता है। जो पेड़ जंगल में सूख जाता है। वह वर्षा के पानी में भीग-भीगकर एक दिन गलकर नष्ट हो जाता है। उसका कुछ भी मूल्याँकन नहीं हो पाता। किन्तु जब वही सूखा वृक्ष इधन बनकर उपयोगी हो जाता है तब उसका मूल्य बढ़ जाता है। लोग उसे जंगल से काटकर बाजार में बेचते हैं। जरूरत मन्द खरीद ले जाते और घरों में ठीक से रखते हैं। यदि उसी वृक्ष को और अधिक उपयोगिता का अवसर मिल जाता है तो उसका मूल्य,महत्व और भी बढ़ जाता है। अलमारी शहतीर, कपाट, मेज, कुर्सी अथवा इसी प्रकार की उपयोगिता में आकर उसी सूखे वृक्ष का मूल्य बहुत बढ़ जाता है।

जो वस्तु किसी प्रकार के सुविधा-साधन अथवा सौंदर्य-सुख बढ़ाने में जितनी सहायक होती है वह उतनी ही उपयोगी मानी जा सकती है और उसी उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्य बढ़ जाता है।

मानव-शरीर संसार की बहुत महत्वपूर्ण तथा चरम उपयोगिता की वस्तु है। इसके आधार पर संसार में बड़े-बड़े विलक्षण कार्य किये जाते हैं। इसी के सदुपयोग से मनुष्य धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, यश, ऐश्वर्य और यहाँ तक कि मुक्ति-मोक्ष का अमृत पद प्राप्त कर लेता है। संसार की सारी सुन्दरता, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं साधना इसी शरीर के आधार पर ही सम्भव होती तभी है। किन्तु यह सम्भव होती है जब मनुष्य सत्कर्मों द्वारा शरीर का सदुपयोग करता है।

मानव-शरीर के मूल्य एवं महत्व की अभिव्यक्ति इसकी सदुपयोगिता के पुण्य से ही होती है। वैसे यह पंचभौतिक शरीर भी मिट्टी है। एक दिन नष्ट होकर मिट्टी में मिल जायेगा। इसके परमाणु बिखर जायेंगे, पाँचों तत्व अपने विराट रूप में मिल जायेंगे। फिर यह चलती-फिरती हँसती-बोलती और काम-काज करने वाली तस्वीर कभी देखी न जा सकेगी। इसीलिए बुद्धिमान जीवन के अणु क्षण का सदुपयोग करके नश्वर शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अविनश्वर होकर वर्तमान रहते हैं।

जीवन का पारमार्थिक यापन ही वह विधि है जो मनुष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करती है। निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा, परोपकार तथा जीव-मात्र के प्रति प्रेम भाव रखना पारमार्थिक जीवन के लक्षण हैं। मनुष्य में इस प्रकार की सद्वृत्तियाँ केवल आध्यात्मिक मनोभूमि पर ही अंकुरित एवं पल्लवित हो सकती हैं। जीवन को आध्यात्मिक साँचे में ढाल लेने से पारमार्थिकता की सिद्धि सहज ही हो जाती है।

आध्यात्मिक जीवन ही शुद्ध, प्रबुद्ध एवं सफल जीवन है और इसी जीवन में मनुष्य को सुख-शाँति भी मिलती है। पारमार्थिक जीवन-यापन के रूप में किये जाने वाले परोपकार आदि सत्कर्म भी मनुष्य को वास्तविक सुख-शाँति नहीं दे पाते और वह कहने के लिये सत्कर्म करता हुआ भी अशाँत एवं असन्तुष्ट अन्त को प्राप्त होता है। लोग दान करते, दीन-दुखियों की सहायता करते, स्मारक तथा इमारतें बनवाते, भजन-पूजन तथा जप-जोग भी करते हैं, किन्तु फिर भी उनका जीवन सुख-शाँति की आशा में समाप्त हो जाता है।

वास्तविक सुख-शाँति केवल ऊपरी दान-पुण्य करते रहने से नहीं मिल सकती। उसके लिये आध्यात्मिक स्थिति का मूलाधार अन्तःकरण को निर्मल एवं शुद्ध करना होगा। ऊपर से दिखाई देने वाले सत्कर्म भी अन्तःकरण की शुद्धता के अभाव में निष्फल चले जाते हैं। दान देते समय यदि यह विचार रहता है कि मैं कोई एक विशेष कार्य कर रहा हूँ और इसके उपलक्ष में हमको सम्मान एवं प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए तो निश्चय ही वह दान-पुण्य के फल से वंचित रह जायेगा। किसी की कुछ भलाई करते समय यदि यह विचार रहता है कि मैं किसी पर आभार कर रहा हूँ तो वह उपकार कार्य परमार्थ की परिधि में नहीं आ सकता। किसी परमार्थ कार्य में निरहंकारिता का समावेश तभी सम्भव हो सकता है जब कि मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल एवं शुद्ध होगा। अशुद्ध अन्तःकरण की स्थिति में लोभ, मोह, स्वार्थ एवं अहंकार आदि विकारों का आना स्वाभाविक है।

वह मनुष्य निश्चय ही सौभाग्यवान है जिसने अपने अन्तःकरण को निर्मल बना लिया है और जिसका जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख हो रहा है। अध्यात्म जीवन का वह तत्वज्ञान है, जिसके आधार पर मनुष्य विश्व ही नहीं अखण्ड ब्रह्माण्ड के सारे ऐश्वर्य को उपलब्ध कर सकता है। अध्यात्म ज्ञान के बिना सारा वैभव—सारा ऐश्वर्य और सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं। जो भाग्यवान अपने परिश्रम, पुरुषार्थ एवं परमार्थ से थोड़ा बहुत भी अध्यात्म लाभ कर लेता है वह एक शाश्वत सुख का अधिकारी बन जाता है। व्यवहार जगत में अनेक सीखने योग्य ज्ञानों की कमी नहीं है। लोग इन्हें सीखते हैं, उन्नति करते हैं, सुख−सुविधा के अनेक साधन जुटा लेते हैं। किन्तु इस पर भी जब तक वे अध्यात्म की ओर उन्मुख नहीं होते वास्तविक सुख-शाँति नहीं पा सकते।

संसार में पग-पग पर दुःख, क्षोभ और कलह, कलेश की परिस्थितियों में आना पड़ता है। इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियाँ, सुख-सुविधा के अनन्त साधन होने पर भी दुखी किए रहती हैं। मनुष्य के उपार्जित साधन उसकी कोई सहायता नहीं कर पाते। संसार में जिससे सामान्य प्रतिकूलताओं की यातना से तो सहज ही बचा जा सकता है, वह है आध्यात्मिक दृष्टिकोण एवं आचरण। आध्यात्मिकता के अभाव में सुख-शाँति सम्भव नहीं और उसके अभाव में दुःख अथवा अशाँति असम्भव है!

मनुष्य के अन्तःकरण का निर्माण चार वृत्तियों से मिल कर हुआ है। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार। मन संकल्प विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय देती है, चित्त, स्मृति तथा संस्कारों को ग्रहण करता और बनाए रखता है, अहंकार मनुष्य को आत्मिक न बनने देकर शरीर भाव बनाए रहता है। इन वृत्तियों के अशुद्ध रहने पर अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। इन वृत्तियों को सात्विक बनाना ही अन्तःकरण को शुद्ध करना माना जाएगा।

वृत्तियों को शुद्ध करने का प्रयत्न करने से पूर्व उनकी अशुद्धता के लक्षण जान लेना आवश्यक हैं—”अशुद्ध काम संकल्पम् — शुद्ध काम विवर्जितम्”—मन में जब तमोगुण पूर्ण स्वार्थ एवं काम पूर्ण संकल्प विकल्प होते रहें समझना चाहिए कि मनोवृत्ति अशुद्ध है। इसका मोटा-सा एक लक्षण यह भी है कि जब मन निराश, निरुत्साह अथवा क्षुब्ध रहे समझना चाहिये कि वह अशुद्ध है। मन की शुद्धता का प्रमुख लक्षण है निष्कामता एवं प्रसाद। कर्मों की सफलता असफलता पर मन का समान रूप से प्रसन्न बना रहना उसकी शुद्धता का प्रमुख लक्षण है। अधिक, असंगत अथवा असात्विक कामनायें करने से मन निर्बल एवं मलीन हो जाता है। संतोष न रहने से सदा क्षुब्ध, चंचल और दुखी रहता है। मन की प्रसन्नता अपनी स्थिति के अनुसार शुभ संकल्प एवं निष्काम भाव से कर्म करने से ही सुरक्षित रह सकती है।

बुद्धि जब किसी विषय में स्पष्ट निर्णय देने में असमर्थ रहे, कोई भी प्रसंग उपस्थित होने पर असमंजस अथवा ऊहापोह में पड़ जाए तब समझना चाहिए कि वह प्रबुद्ध अथवा शुद्ध नहीं है। करने अथवा न करने योग्य कर्मों का शीघ्र एवं समीचीन निर्णय दे सकने में समर्थ बुद्धि ही सात्विक अथवा शुद्ध कही जायेगी। देखने में भयप्रद लगने वाले ठीक कर्तव्य के प्रति स्वीकृति दे देने वाली साहस की बुद्धि शुद्ध ही हो सकती है। सन्देह अथवा संशयशील बुद्धि अशुद्ध है।

चित्त की शुद्धता का मुख्य लक्षण है उन स्मृतियों तथा संस्कारों का रहना जो शुभ एवं शिव हों। मलीन, दुःखद अथवा ग्लानिपूर्ण स्मृतियों तथा संस्कारों का प्रदर्शन करने वाला चित्त अशुद्ध ही माना जायेगा। स्मृतियों के सद और संस्कारों के शुद्ध होने से मनुष्य का चिन्तन एवं आचरण कल्याणकारी दिशा में ही चला करता है। जिसे शुभम् का ज्ञान ही नहीं, शिवत्व की पहचान नहीं वह न तो सत्कर्मों की ओर बढ़ सकता है और न चिन्तन में माँगलिक संस्थान ही चित्त की शुद्धता के लक्षण हैं।

शरीर तथा संसार के प्रति अहंकार अशुद्ध है और यही अहंकार तब शुद्ध ही कहा जाएगा जब यह आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति हो। अपने को शरीर समझना और क्षणभंगुर साँसारिक भोगों का भोक्ता भर समझना अशुद्ध अहंकार है। अपने को शुद्ध-बुद्ध चेतना, आत्मा और परमात्मा का प्रतिनिधि मान कर साँसारिक भोगों के प्रति मोक्ष की भावना न रख कर कर्तव्यवान की भावना रखना अहंकार की शुद्धता की द्योतक है।

इस प्रकार इन वृत्तियों की शुद्धता अशुद्धता के लक्षण समझ कर निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका अन्तःकरण किस सीमा तक शुद्ध अथवा अशुद्ध है और फिर उसी अनुपात से चिन्तन, मनन तथा सत्कर्मों के द्वारा उसे अधिकाधिक शुद्ध बनाने में लग जाना चाहिये। स्वार्थ रहित सात्विक आहार-विहार तथा आचार-विचार का अभ्यास अपना लेने से मनुष्य की चारों वृत्तियाँ आप से आप शुद्ध होने लगती हैं। मन को प्रसन्न रखिये, बुद्धि को विकृतियों से बचाइये, चित्त पर शिव संस्कारों की छाप डालिये और अहंकार को शरीर से आत्मा अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख करिये, आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जायेगा। इस प्रकार का सकर्मक अभ्यास ही आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे पाकर मनुष्य जीवन शाश्वत सुख का अधिकारी बन कर सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि संसार की सारी उपलब्धियों का मूल तथा सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे हर प्रयत्न पर प्राप्त कर मनुष्य को अपने नश्वर जीवन को अनश्वर बनाना ही चाहिए।


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