वासना-त्याग के बिना चैन कहाँ?

November 1966

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अनादि काल से मनुष्य सुख शाँति की कामना करता और उसको प्राप्त करने का प्रयत्न एवं उपाय करता आ रहा है। मनुष्य का शारीरिक मानसिक तथा बौद्धिक प्रत्येक कर्म एकमात्र सुख और शाँति प्राप्त करने का ही प्रयत्न है। वह धन-दौलत कमाता है सुख-शाँति के लिये। मकान-महल बनाता है सुख-शाँति के लिए। स्त्री-बच्चों को करता है सुख-शाँति के लिये। दान-पुण्य,तप-योग जो कुछ करता है, सुख-शाँति के लिए।

जंगली युग से लेकर आज के उन्नत एवं वैज्ञानिक युग तक मनुष्य लगातार सुख-शाँति के साधनों को उन्नत करता, बढ़ाता तथा संचय करता आया है। सुख-शाँति की खोज में उसने आकाश-पाताल एक कर दिए हैं। किन्तु क्या उसे अब तक सुख-शाँति की प्राप्ति हो सकी है? यदि विचार पूर्वक देखा जाये तो विपरीत निष्कर्ष ही सामने आयेगा। पूर्व काल की अपेक्षा आज का मनुष्य कहीं अधिक उन्नत व समृद्ध है। उसने अपरिमित साधन एवं सुविधाएँ एकत्र कर ली है। किन्तु अपने साध्य सुख और शाँति को तब भी नहीं पा सका है। बल्कि सत्य यह है कि वह पूर्वकाल की अपेक्षा आज कहीं अधिक व्यस्त एवं उल्टा दुःख और अशाँति के अन्धकार में भटक गया है। सुख-शाँति की खोज करता-करता मनुष्य आखिर दुःख एवं अशाँति का ग्रास क्यों बनता जा रहा है, इस खेदपूर्ण आश्चर्य का स्पष्टीकरण बहुत आवश्यक है।

मनुष्य की इस विपरित गति का एक कारण तो यह है कि मनुष्य की सुख-लिप्सा बहुत बढ़ गई है। जिस वस्तु में बहुत स्पृहा अपनी सीमा को लाँघ जाती है तब वह दुःख का कारण बन जाती है। मनुष्य को सुख मिलते हैं तो वह और सुख चाहता है। जब वह और सुख पाता है तब और अधिक पाने के लिये लालायित हो उठता है। इस प्रकार उसकी स्पृहा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अतृप्ति अथवा असन्तोष का रूप धारण कर लेती है। असन्तुष्ट कामनाओं की पूर्ति असम्भव है। जहाँ असन्तोष है, अतृप्ति है, वहाँ सुख और शाँति कहाँ? असन्तोष में बदली हुई अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए कामनाओं से प्रेरित किया हुआ मनुष्य उचित-अनुचित, युक्त -अयुक्त सभी प्रकार के काम करने में प्रवृत्त हो जाता है। अत्यधिक सुख का कामी पुरुष दूसरों की सुख-सुविधा का भी विचार नहीं करता जिससे दुःख तथा अशाँति के परिणाम वाले संघर्ष प्रारम्भ हो जाते हैं। जहाँ संघर्षों की चिनगारियाँ दहक रही हों वहाँ और अधिक सुख-शाँति तो दूर जो कुछ रही-बची शाँति होती है वह भी भस्म हो जाती है।

दुःख एवं अशाँति का एक कारण अत्याग अथवा संग्रह वृति भी है। मनुष्य ने कुछ इस प्रकार की गलत धारणा बना ली है कि वह जितने भी अधिक-से-अधिक पदार्थ एवं वस्तुयें अपने पास इकट्ठी कर सकेगा, उतनी ही अधिक सुख-शाँति उसे मिल सकेगी। इसी आधार पर लोग अपने पास वस्तुओं का भंडार इकट्ठा करने का प्रयत्न करते रहते हैं। इस प्रकार की संग्रह-वृत्ति लोभ को जन्म देती है। वह जो भी वस्तु किसी के पास देखता है उसे पाने के लिये ललचा उठता है। जिस चाही वस्तु को वह सरल मार्ग से प्राप्त कर सकता है उसे सरल मार्ग से पाने का प्रयत्न करता है अन्यथा उसके लिये छल-कपट तथा कुटिलता करने में भी नहीं चूकता। लोभ होती ही ऐसी बुरी बला है। यह जिसे लग जाती है उसे बुराई की ओर ही प्रेरित करती है। लोभ से ही ईर्ष्या-द्वेष का जन्म होता है। ईर्ष्या एवं द्वेष दो ऐसे विषधर हैं जिनका अशन मनुष्य के हृदय की सुख-शाँति ही हुआ करता है। जिनकी मन-बुद्धि और आत्मा इन विषधरों के विष से व्याकुल रहते हैं वे स्वप्न में भी सुख-शाँति की अनुभूति नहीं कर सकते।

सुख-शाँति की सम्भावना से मनुष्य पदार्थों का संग्रह किया करता है और एक दिन उसके यही संग्रहित उपादान दुःख और अशाँति के हेतु बन जाते हैं। वस्तुओं की अधिकता होने से उनकी साज-सम्भाल में व्यस्त रहना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाये तो वे विकृति एवं विकारों से अभिभूत होकर नष्ट होने लगेंगे और तब उनमें भ्रामक सुख का हेतु आकर्षण भी होने लगेगा जिससे न केवल दुःख ही होगा बल्कि वे चीजें एक बोझ बनकर सिर दर्द बन जायेगी। संग्रह को चोरी क भी भय बना रहता है। उसकी रक्षा की चिन्ता चिता की तरह जलाती हुई नींद तक हर लेती है। यदि इस प्रकार की सम्भावना न भी रहें तब भी संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। सारी चीजें धीरे-धीरे स्वयं ही नष्ट होने लगती हैं। ऐसी दशा में दुःख होना स्वाभाविक है। बहुधा जड़ पदार्थों की आयु मनुष्य की आयु से अधिक होती है। चीजें बनी रहती हैं किन्तु मनुष्य चल देता है। ऐसी कल्पना आते ही लोभी पुरुष को यह भाव सताने लगता है कि ‘हाय! जिन चीजों को मैंने यत्नपूर्वक इकट्ठा किया है उन्हें छोड़कर मुझे इस संसार से चला जाना पड़ेगा’। यह मोह मय चिन्तन मनुष्य को कितनी पीड़ा दे सकता है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

तर्क अथवा अनुमान-प्रमाण के अतिरिक्त इस बात के अनेक प्रमाण पाये जा सकते हैं कि पदार्थों के संग्रह में सुख की कल्पना करना मरु-मरीचिका में जल की सम्भावना करना है। यदि वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में सुख-शाँति रही होती तो संसार में एक से एक बढ़कर धनकुबेर तथा साधन-सम्पन्न व्यक्ति विद्यमान हैं वे सब पराकाष्ठा तक सुखी तथा सन्तुष्ट होते। दुःख अथवा अशाँति उनके पास-पड़ोस में होकर भी नहीं गुजरते—किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। संसार के धन कुबेर, साधन-सम्पन्न तथा वस्तुओं के भंडारी एक साधारण व्यक्ति से भी अधिक व्यग्र, चिन्तित, दुःखी तथा अशाँत देखे जाते हैं। पदार्थों के अनावश्यक संग्रह में सुख-शाँति की सम्भावना देखना एक भारी भूल है।

इसके विपरीत सुख-शाँति के हेतु सन्तोष निस्पृहता एवं त्याग ही है। त्याग वृत्ति वाले व्यक्ति को लोभ तथा मोह जैसे शत्रु नहीं घेर पाते। उसका अबोझिल मन, कम से कम सन्तुष्ट रहकर सुख भोगा करता है। मनुष्य पुरुषार्थ करता है। उसकी इन्द्रियाँ पुरुषार्थ करती हैं। उसका पुरुषार्थ अनन्त धन तथा प्रचुर साधनों में फलीभूत हो सकता है। इस पर प्रतिबन्ध लगाना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है। कि मनुष्य अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ से होने वाले अपरिमित लाभों को न उठाये। उसे अपने पुरुषार्थ के फल दोनों हाथों से लूटने चाहिए। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनुष्य लाभ लूटने के लिये ही पुरुषार्थ करे। उसे पुरुषार्थ, पुरुषार्थ के लिये ही करना चाहिए और तब भी यदि उसके पास प्रचुर मात्रा में विभूतियाँ इकट्ठी हो जायें तो उसे उन्हें आवश्यक रूप से अपने पास ही ढेर नहीं लगाते जाना चाहिए। उसे चाहिए कि अपनी आवश्यकताओं को तुष्ट करते हुए उसे अपनी उपलब्धियों का त्याग उनके लिये भी करना चाहिए जो कष्ट में है, आवश्यकता में है। अपने संग्रह का त्याग परोपकार तथा परमार्थ में करने से हृदय को सच्ची सुख-शाँति मिलती है। त्याग के लिये किया हुआ संग्रह ही सुख-शाँति का हेतु है नहीं तो वह लोभ, दम्भ तथा अहंकार का प्रतीक मात्र है जिससे वास्तविक सुख-शाँति की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

मनुष्य की भोगेच्छा भी दुःख एवं अशाँति का बहुत बड़ा कारण है। मनुष्य इस भ्राँत विश्वास का भी शिकार बना हुआ है कि सुख का निवास साँसारिक भोगों में है। अपने इसी विकृत विश्वास के कारण मनुष्य भोगों में लिप्त रहकर अपनी सुख-शाँति की सम्भावना नष्ट किया करते हैं। यदि संसार के भोग-विलास में सुख-शाँति का निवास रहा होता तो संसार का प्रत्येक प्राणी सुखी होता क्योंकि संसार का कदाचित ही कोई प्राणी ऐसा हो जिसे थोड़ा बहुत भोग विलास का अवसर न मिलता हो। किन्तु देखा यह गया है कि अधिक भोग-विलास में लिप्त व्यक्ति दैविक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों तापों से त्रस्त रहा करते हैं। उनका शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है मन मलीन हो जाता है, आत्मा का पतन हो जाता है जो इन त्रिविधि तापों का पात्र बना है यदि वह जीवन में सुख और शाँति की कामना करता है तो अनधिकार चेष्टा का अपराधी माना जायेगा।

भोगों की तृष्णा एक ऐसी अक्षय प्यास है जो कभी शाँत ही नहीं होती। लोग सुख के भ्रम में जवानी में भोगों के प्रति आकर्षित रहते हैं। उसके परिणाम पर विचार नहीं करते कि आज शक्ति होने पर जो वे अपनी वृत्तियों को भोगों का गुलाम बनाये दे रहे हैं इसका फल आगे चलकर बुढ़ापे में क्या होगा? उस अशक्त एवं जर्जर अवस्था में भोगों की प्यासी वृत्तियाँ क्या शत्रु की तरह त्रास न देंगी? भोग एक प्रज्वलित अग्नि के समान है, इनको जितना ही भोगा जाता है इनकी ज्वाला उतनी ही बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे एक दिन मनुष्य की सारी सुख-शाँति की सम्भावनाओं को सदा के लिए भस्म कर देती हैं।

भोगों की भयंकरता समझने के लिये महाराज ययाति का उदाहरण पर्याप्त है—राजा ययाति भोगों में आनन्द की कल्पना कर बैठे। निदान आनन्द पाने के लिए वे पूरी तरह से भोगों में डूबे रहने लगे। इसका फल यह हुआ कि उन्हें शीघ्र ही जठरता ने घेर लिया। उनकी शक्ति समाप्त हो गई किन्तु भोगेच्छा और भी बढ़ गई। राजा ययाति अपनी विकृत वृत्तियों से दिन और रात दुःखी रहने लगे। उनका दिन का चैन और रात्रि की नींद गायब हो गई। उनकी अतृप्त वासनायें उन्हें पल-पल पर त्रास देने लगी। विषय-वासनाओं के बन्दी राजा ने कोई उपाय न देखकर अपने को याचक बनाया, सो भी अपने पुत्र से—और वह भी यौवन का। उन्होंने अपने छोटे पुत्र से एक हजार वर्ष तक के लिए जवानी की भीख इसलिये माँगी कि वे अपनी अतृप्त वासनाओं को पुनः भोग सकें। पुत्र को अपने पिता की दशा पर बड़ा तरस आया उसने अपना यौवन उन्हें दे दिया। ययाति की वासना-कलुषित बुद्धि यह न सोच सकी कि पुत्र पर कितना बड़ा अन्याय होगा। किन्तु भोगों का भूखा मनुष्य भेड़िये से कम निर्दयी नहीं होता।

पुत्र से यौवन लेकर राजा ययाति पुनः भोगों में डूब गये और पूरे एक सहस्र वर्षों तक डूबे रहे। उन्हें पूरी आशा थी कि वे विषय-वासना के माध्यम से सच्ची सुख-शाँति पा लेंगे। किन्तु एक सहस्र वर्ष बीतने पर जब पुत्र को यौवन वापिस करने का अवसर आया तो उन्होंने देखा कि उनकी भोग-लिप्सा और अधिक बढ़ गई है। विवशता वश उन्हें पुत्र का यौवन लौटाना पड़ा और एक अशाँत मृत्यु मरने के पश्चात शायद गिरगिट की योनि भोगनी पड़ी। भोगों तथा विषय-वासना में सुख-शाँति का स्वप्न देखने वालों की यही दशा होना सम्भाव्य है।

मनुष्य के साध्य—सुख और शाँति का निवास कामनाओं, उपादानों अथवा भोग-विलासों में नहीं है। वह कम से कम कामनाओं, अधिक से अधिक त्याग और विषय-वासनाओं के विष से बचने में ही पाया जा सकता है। जो निःस्वार्थी, निष्काम, पुरुषार्थी, परोपकारी, सन्तोषी तथा परमार्थी है, सच्ची सुख-शाँति का अधिकारी वही है। साँसारिक स्वार्थों एवं लिप्साओं के बन्दी मनुष्य को सुख शाँति की कामना नहीं करनी चाहिए।


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