सद्ज्ञान का संचय एवं प्रसार आवश्यक है।

November 1966

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भारत की जनता स्वभावतः धर्मप्राण जनता है। धर्म के प्रति जितनी आस्था भारतवासियों में पाई जाती है उतनी कदाचित ही किसी अन्य देश की जनता में पाई जाती हो। भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहाँ के अधिकाँश वासियों में आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान पाई जाती हैं। उसका कारण यही है कि आदिकाल से ही भारत के ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों ने जनता में धर्म के बीज बोने के सतत प्रयत्न किये हैं। उन्होंने धर्म के तत्व, महत्व तथा जीवन पर उसके सत्प्रभाव का मूल्य समझा और यह भी जाना कि धर्म की पृष्ठभूमि पर विकसित किया हुआ जीवन ही वह जीवन हो सकता है जिसे यथार्थ रूप में जीवन कहा जा सकता है और जिसको उपलब्ध करना मनुष्य के लिए वाँछनीय हो कर उसका लक्ष्य भी होना चाहिए।

भारतवासियों में आध्यात्मिक जिज्ञासा संस्कार रूप में विद्यमान है। हर व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में आध्यात्मिक प्रगति करने को उत्सुक रहा करता है और जिस उपलब्ध स्रोत अथवा सूत्र से वह जितना ज्ञान प्राप्त कर सकता है करने का प्रयत्न करता है। किन्तु खेद है कि जनसाधारण अपनी इस जिज्ञासा पूर्ति में सफल ही नहीं हो रहे हैं बल्कि पथभ्रष्ट होकर अज्ञान के अन्धकार में भटक रहे हैं।

अनेक लोगों ने जनसाधारण की इस लालसा को समझा और धर्म के प्रति उनकी अडिग आस्था का भी आभास पा लिया। फलस्वरूप अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये जनता की भक्ति -भावना द्वारा प्रतिष्ठित होने के लिए उन्होंने आडम्बर धारण कर धर्म-गुरुओं का रूप बना लिया और धर्म अथवा अध्यात्म-ज्ञान के नाम पर जनता को भ्रमित करते हुए भटकाने और अपना उल्लू सीधा करने में लग गये। निदान ज्ञान के नाम पर समाज में ज्ञान का अन्धकार इतना घनीभूत हो उठा है कि धर्म का सच्चा स्वरूप समझ सकना दुरूह हो गया है। आज इस बात की नितान्त आवश्यकता आ पड़ी है कि समाज में इस प्रकार फैलाये गये अज्ञानान्धकार के विरुद्ध अभियान चलाये जायें सद् एवं सत्ज्ञान का प्रकाश प्रसारित करके अज्ञान रूपी अन्धकार को निर्मूल कर दिया जाये। यह एक बड़ा काम है। किसी एक, दो या दस-बीस अथवा सौ-पचास व्यक्तियों द्वारा पूरा नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो प्रत्येक समझदार सत्पुरुष को अपना योगदान करना होगा। अज्ञान के कल्मष में फँसी जनता का उद्धार करना सर्वोपरि सत्कर्म है, जिसे पूरा करने के लिये अध्यात्मवादी धर्मनिष्ठों को आगे आना ही चाहिए।

ज्ञान ही आध्यात्मिक जीवन की आधारशिला है। ज्ञान के अभाव में आत्मिक उन्नति असम्भव है। ज्ञान रहित मनुष्य अन्य पशुओं की तरह ही मूल प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर अपना जीवन यापन किया करता है और उन्हीं की तरह हांक जाकर किसी ओर भी चल सकता है। अज्ञानी व्यक्ति में अपनी सूझ-बूझ नहीं होती और न वह जीवन प्रगति की किसी भी दिशा में विचार ही कर पाता है। ज्ञान के आधार पर ही मनुष्य अपने भीतर छिपी ईश्वरीय शक्ति का परिचय पा सकता है और उसी के बल पर उन्हें प्रबुद्ध कर आत्म-कल्याण की दिशा में नियोजित कर पाता है। अज्ञानी व्यक्ति की सारी शक्तियाँ उसके भीतर निरुपयोगी बनी बन्द रहती है और शीघ्र ही कुँठित होकर नष्ट हो जाती है। जिन शक्तियों के बल पर मनुष्य संसार में एक-से-एक ऊंचा कार्य कर सकता है, बड़े-से-बड़े पुण्य-परमार्थ सम्पादित करके अपनी आत्मा को भव-बन्धन से मुक्त करके मुक्ति , मोक्ष जैसा परम पद प्राप्त कर सकता है, उन शक्तियों का इस प्रकार नष्ट हो जाना मानव-जीवन की सबसे बड़ी क्षति है। इस क्षति का दुर्भाग्य केवल इसलिए सहन करता है कि वह ज्ञानार्जन करने में प्रमाद करता है अथवा अज्ञान के कारण धूर्तों के बहकावे में आकर सत्य-धर्म के मार्ग से भटक जाता है। मानव-जीवन को सार्थक बनाने, उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने और आध्यात्मक स्थिति पाने के लिये सद्ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होना ही चाहिए और विधिपूर्वक जिस प्रकार भी हो सके उसकी प्राप्ति करनी चाहिए। जड़ता पूर्वक जीवन मृत्यु से भी बुरा है।

ज्ञान की जन्मदात्री, मनुष्य की विवेक बुद्धि को ही माना गया है और उसे ही सारी शक्तियों का स्रोत कहा गया है। जो मनुष्य अपनी बुद्धि का विकास अथवा परिष्कार नहीं करता अथवा अविवेक के वशीभूत होकर बुद्धि के विपरीत आचरण करता है वह आध्यात्मिकता के उच्च स्तर को पाना तो दूर साधारण मनुष्यता से भी गिर जाता है। उसकी प्रवृत्तियाँ अधोगामी एवं प्रतिगामिनी हो जाती हैं। वह एक जन्तु-जीवन जीता हुआ उन महान सुखों से वंचित रह जाता है जो मानवीय मूल्यों को समझने और आदर करने से मिला करते हैं। निकृष्ट एवं अधो-जीवन से उठकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक जीवन की ओर गतिमान होने के लिये मनुष्य को अपनी विवेक बुद्धि का विकास, पालन तथा सर्म्बधन करना चाहिए। अन्य जीव-जन्तुओं की तरह प्राकृतिक प्रेरणाओं से परिचालित होकर सारहीन जीवन बिताने रहना मानवता का अनादर है,उसी परमपिता परमात्मा का विरोध है जिसने मनुष्य को ऊर्ध्वगामी बनने के लिये आवश्यक क्षमता का अनुग्रह किया है।

आध्यात्मिक ज्ञान सिद्ध करने में बुद्धि ही आवश्यक तत्व है। इसके संशोधन, संवर्धन एवं परिमार्जन के लिए विचारों को ठीक दिशा में प्रचलित करना होगा। विचार प्रक्रिया से ही बुद्धि का प्रबोधन एवं शोभन होता है। जिसके विचार अधोगामी अथवा निम्न स्तरीय होते हैं उसका बौद्धिक पतन निश्चित ही है। विचारों का पतन होते ही मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन दूषित हो जाता है। फिर वह न तो किसी माँगलिक दिशा में सोच पाता है और न उस ओर उन्मुख ही हो पाता है। अनायास ही वह गर्हित गर्त में गिरता हुआ अपने जीवन को अधिकाधिक नारकीय बनाता चला जाता है। पतित विचारों वाला व्यक्ति इतना अशक्त एवं असमर्थ हो जाता है कि अपने फिसलते पैरों को स्थिर कर सकना उसके वश की बात नहीं रहती।

ज्ञान भूत आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का यथार्थ अर्थ विचारों का उपयुक्त दिशा में विकसित करना ही है। विचारों के अनुरुप ही मनुष्य का जीवन निर्मित होता है। यदि विचार उदात्त एवं ऊर्ध्वगामी है तो निश्चय ही मनुष्य निम्न परिधियों को पार करता हुआ ऊँचा उठता जायेगा और उस सुख-शाँति का अनुभावक बनेगा जो उस आत्मिक ऊँचाई पर स्वतः ही अभिसार किया करता है। स्वर्ग-नरक किसी अज्ञात क्षितिज पर बसी बस्तियाँ नहीं है। इनका निवास मनुष्य के विचारों में ही होता है। सद्विचार स्वर्ग और असद्विचार नरक का रूप धारण कर लिया करते हैं।

विचारों का विकास एवं उनकी निर्विकारता दो बातों पर निर्भर है—सत्संग एवं स्वाध्याय। विचार बड़े ही संक्रामक, संवेदनशील तथा प्रभावशाली होते हैं। जिस प्रकार के व्यक्तियों के संसर्ग में रहा जाता है मनुष्य के विचार भी उसी प्रकार के बन जाते हैं। व्यवसायी व्यक्तियों के बीच रहने, उठने-बैठने, उनका सत्संग करने से ही विचार व्यावसायिक, दुष्ट तथा दुराचारियों की संगत करने से कुटिल और कलुषित बन जाते हैं। उसी प्रकार चरित्रवान तथा सदात्माओं का सत्संग करने से मनुष्य के विचार महान एवं सदाशयतापूर्ण बनते हैं।

किन्तु आज के युग में सन्त पुरुषों का समागम दुर्लभ है। न जाने कितने धूर्त तथा मक्कार व्यक्ति वाणी एवं वेश से महात्मा बनकर ज्ञान के जिज्ञासु भोले और भले लोगों को प्रताड़ित करते घूमते हैं। किसी को आज वाणी अथवा वेश के आधार पर विद्वान अथवा विचारवान मान लेना निरापद नहीं है। आज मन-वचन-कर्म से सच्चे और असंदिग्ध ज्ञान वाले महात्माओं का मिलना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। सत्संग के लिए तो ठीक दिशा दे सके और आत्मा में आध्यात्मिक प्रकाश एवं प्रेरणा भर सकें। वक्तृता के बल पर मन चाही दिशा में भ्रमित कर देने वाले वीरों से सत्संग का प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा।

ऐसे प्रामाणिक प्रेरणा-पुञ्ज व्यक्तित्व आज के युग में विरल हैं। जो हैं भी उनकी खोज तथा परख करने के लिये आज के व्यस्त समय में किसी के पास पर्याप्त समय तथा बुद्धि नहीं है। जो प्रेरणा एवं प्रकाश दायक प्रज्ञा पात्र विदित भी हैं उनका लाभ तो वे ही भाग्यवान उठा सकते हैं जो उनके सन्निकट रहते हैं। दूर-दूर के लोग उनके पास न तो आसानी से रह सकते हैं और न पूर्ण अवकाश पाने तक समय ही दे सकते हैं। इन सब कठिनाइयों तथा असुविधाओं के कारण विद्वानों का साक्षात सत्संग असम्भव-सा हो गया है। इसलिये ज्ञान के उत्सुक लोगों के लिये स्वाध्याय का ही एक ऐसा माध्यम रह गया है जिसके द्वारा वे सत्संग से अपेक्षित लाभ पुस्तकों से प्राप्त कर सकते हैं।

पुस्तकें क्या हैं? विद्वानों के ‘विचार-शरीर’ ही तो हैं। सत्संग का प्रयोजन भी तो विचारों का श्रवण, मनन तथा ग्रहण ही है। विद्वानों तथा महापुरुषों के जो विचार उनके मुख से सुने जा सकते हैं, वे उनकी लिखी पुस्तकों से आँखों द्वारा पढ़े जा सकते हैं, एक बार बौद्धिक सत्संग में विचार अस्त-व्यस्त भी हो सकते हैं। किन्तु पुस्तकों में संचित विचार व्यवस्थित तथा स्थिर होते हैं। ग्रन्थ कर्ता अपनी पुस्तक में ज्ञान की परिपक्वता से ओत-प्रोत विचार ही अंकित किया करता है। स्वाध्याय रूपी सत्संग द्वारा कोई भी व्यक्ति उन विद्वानों का विचार-संग किसी समय भी, किसी स्थान पर प्राप्त कर सकता है, जो आज संसार में नहीं है अथवा जो सुदूर देशान्तर में रह रहे हैं। परिचित भाषा ही नहीं अनुवादों द्वारा अपरिचित भाषाओं के विद्वानों के विचार-संग में आया जा सकता है। पुस्तकों के माध्यम से प्रामाणिक विद्वानों का सत्संग विचार विकास के लिये अधिक उपयोगी, सरल तथा निरापद है।

जहाँ यह आवश्यक है कि मनुष्य स्वयं स्वाध्यायी बने उसके लिये प्रेरणादायक पुस्तकें संचय करें और नित्यप्रति उनका पारायण करता रहकर अपनी बुद्धि, विवेक तथा ज्ञान को विकसित करता रहे, वहाँ यह भी आवश्यक है कि स्वाध्याय की प्रेरणा दूसरे लोगों में भी भरे। किसी समाज में रहते हुए मनुष्य का स्वयं अपने लिये सुखी, साधन-सम्पन्न अथवा ज्ञानवान बनना कोई अर्थ नहीं रखता, फिर भारतीय समाज में रहते हुए—जिसमें आज अज्ञान का भयानक अन्धकार फैला हुआ है। धर्म के नाम पर न जाने कितने ढोंग जनता को पथभ्रष्ट करने में जुटे हुए हैं।

आज हम में से प्रत्येक शिक्षित भारतीय का पुनीत कर्तव्य है कि वह स्वाध्याय द्वारा स्वयं तो ज्ञान का प्रकाश प्राप्त ही करे साथ ही यथासाध्य अपनी परिधि में निवास करने वाले लोगों को भी प्रकाश एवं प्रेरणा दे। आज के युग का यह सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ है। यों भी ज्ञान पाना और उस ज्ञान से अन्यों में ज्ञान-प्राप्ति की प्रेरणा भरना पुण्य कर्म ही कहा गया है। तब आज की भ्राँत स्थिति में तो यह सर्वोपरि पुण्य कर्म बताया गया है।


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