परमात्मा ने मनुष्य को जो भी बल, बुद्धि एवं विवेक दिया है, उसके हृदय में दया, करुणा, सहृदयता, सहानुभूति अथवा संवेदना की भावनायें भरी हैं, वे इसलिये नहीं कि वह उन्हें अपने अन्दर ही बन्द रखकर व्यर्थ चला जाने दे। उसने जो भी गुण और विशेषता मनुष्यों को दी हैं वह इसीलिए कि वह उनका उपयोग संसार की सेवा करने, उसे लाभ पहुंचाने में करे। जो मनुष्य ऐसा नहीं करता वह ईश्वर के मन्तव्य के विरुद्ध आचरण करता और उन गुणों के लिये अपने को अयोग्य सिद्ध करता है। करुणा, दया, क्षमा आदि के अपने गुण ईश्वर मनुष्यों के माध्यम से ही प्रकट करता है।
अन्याय एवं अत्याचार करना अथवा उसे सहना तो पाप है ही, दूसरे निर्दोष प्राणियों पर अत्याचार होते देख कर उसका प्रतिकार न करना, चुपचाप उसे देखते रहना अथवा उसकी उपेक्षा कर देना भी एक पाप है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने सामने अथवा अपनी जान में किसी निर्दोष प्राणी पर अत्याचार देख-सुनकर, सामर्थ्य भर उसका विरोध एवं प्रतिकार अवश्य करे। अन्याय अथवा अत्याचार को देख-सुनकर चुपचाप रह जाना, उसका प्रतिकार अथवा विरोध न करने वाला अत्याचारी की तरह ही पाप का भागी बनता है। क्योंकि निर्बल अथवा निर्दोष पर होने वाले अत्याचार को देखकर उसकी उपेक्षा कर देना, मौन रह जाने का अर्थ है उस कुकृत्य का समर्थन करना। मौनता स्वीकृति का लक्षण माना गया है। अन्याय अथवा अत्याचार का सामर्थ्य भर विरोध करना प्रत्येक विवेक एवं धर्मवान व्यक्ति का अनिवार्य कर्तव्य है।
आज दिन-दिन संसार में अन्याय एवं अत्याचार की वृद्धि होती जा रही है। इसका कारण यही है कि लोग प्रमादवश उसका विरोध नहीं करते, जिससे कि वह सभी दिशाओं में अबोध गति से बढ़ता चला जा रहा है। किन्तु निरीह, निर्बल एवं निर्दोषी पशुओं पर भी मनुष्यों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा को पार कर गया है। आज संसार में प्रतिदिन हजारों-लाखों निर्दोष पशु-पक्षियों का संहार किया जाता है। कहीं भोजन के लिए, कहीं उनके अस्थि-पिंजर का उपयोग करने के लिये तो कहीं देवी-देवताओं के नाम पर बलि के रूप में। इतना ही नहीं, मनोरंजन, शिकार खेलने तथा निशाना साधने के लिये भी न जाने कितने पशु-पक्षियों की अकारण हत्या की जा रही है। आज के बुद्धिमानी युग में जबकि मनुष्य अपनी वन्यावस्था से बहुत आगे आ गया है इस प्रकार पशु-पक्षियों का हत्याकाँड बड़ी लज्जा की बात है।
एक ओर जहाँ मनुष्य ईश्वर, जीव, प्रकृति, पुरुष, जड़-चेतना, आत्मा, धर्म, ज्ञान-विज्ञान की बात करता है वहाँ दूसरी ओर निर्बल, निरीह एवं निर्दोष प्राणियों की गर्दन काट रहा है। एक ओर जहाँ मनुष्य अपने को परमात्मा का अंश मानता है और अपने को दयालु, क्षमा-शील, करुणा एवं पर दुःख कातर होने का दावा कर रहा है, अपने को धर्म ज्ञाता, अहिंसक तथा सहानुभूति-सम्पन्न बतला रहा है वहाँ दूसरी ओर पशुओं को मारकर खा रहा है, उनकी खाल खींच रहा है और देवताओं के नाम पर उनके प्राण ले रहा है। क्या मनुष्य का यह कुत्सित कर्म उसे इस दावे से नीचे नहीं गिरा देता कि वह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ एवं धर्मशील प्राणी है। निश्चय ही उसके द्वारा पशु-पक्षियों पर होने वाले अत्याचार को देख कर यही कहना पड़ता है कि मनुष्य का यह दावा झूठा, मिथ्या तथा आत्म-प्रवर्चना पूर्ण है।
यों तो संसार के सभी धर्मों में प्राणियों पर दया करने को पुण्य और उनको मारना, सताना अथवा अत्याचार करना पाप बतलाया गया है किन्तु हिन्दू धर्म तो पूर्णरूप से दया, करुणा, सहानुभूति एवं संवेदना के आधार पर ही खड़ा है। पशु-हिंसा को तो हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा पाप बतलाया गया है और अहिंसा को परम धर्म। जो हिंसक, क्रूर अथवा निर्दयी है वह लाख पूजा-पाठ, जप तप और दान-पुण्य क्यों न करे, उसको अधर्मी ही कहा जायेगा।
क्रूरता संसार में सबसे बड़ा पाप है। किसी प्राणी के प्रति क्रूरता का व्यवहार करने वाला एक प्रकार से अपनी ही आत्मा के प्रति क्रूरता का व्यवहार करता है। संसार के समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा का निवास रहता है। जो आत्मा हममें है वही आत्मा अन्य पशु-पक्षियों में भी है। जब हम किसी पशु-पक्षी की आत्मा को दुःख पहुँचाते हैं तो स्वयं अपनी आत्मा को दुःख पहुंचाते है। यह बात दूसरी है कि हम अभ्यासवश उस दुःख को बिल्कुल उसी प्रकार अनुभव न कर सकें जिस प्रकार सताया जाने वाला प्राणी अनुभव कर रहा होता है। जिनका हृदय हिंसा से कठोर नहीं हो गया होता है, सहृदयता एवं सहानुभूति—संवेदना का जिनका मानवीय गुण नष्ट नहीं हो गया होता है वे सज्जन पुरुष परपीड़ा को उसी प्रकार अपने में अनुभव कर लेते हैं जिस प्रकार कि पीड़ित प्राणी। यही कारण है कि सहृदय व्यक्ति दूसरे को दुःखी देखकर तत्काल करुणा तथा दयार्द्र होकर रोने तक लगते हैं। यथासम्भव उसी तरह उसका दुःख दूर करने का प्रयत्न किया करते हैं जिस प्रकार अपना निजी दुःख और जब उसका कष्ट दूर हो जाता है तब वैसे ही प्रसन्न होते हैं। पर दुःख कातरता मनुष्यता का असंदिग्ध लक्षण है जिसमें इसका सर्वथा अभाव पाया जायेगा, उसको मनुष्य कह सकना कठिन ही होगा।
किसी बड़े प्रयोजन के लिए यदि अनिवार्य ही हो तो किसी प्राणी के लिए उचित ताड़ना अथवा दण्ड की व्यवस्था किसी हद तक उचित मानी जा सकती है, किन्तु किसी को स्वार्थवश अथवा यों ही मनोरंजनार्थ सताना अमानवता पूर्ण अपराध है जो किसी प्रकार भी क्षम्य नहीं कहा जा सकता।
यद्यपि मनुष्य की पाशविक अथवा आदिकालीन क्रूर प्रवृत्तियों में बहुत कुछ परिवर्तन आ गया है, वह किसी दूसरे को कष्ट देने का परिणाम तथा उसकी पीड़ा का भी अनुमान करने लगा है। वह यह भी भली प्रकार जानता है कि पशुओं के प्रति उसका व्यवहार वैसा नहीं है जैसा मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी को अन्य अनबोल प्राणियों के साथ करना चाहिए। किन्तु स्वार्थ रूपी पिशाच से ग्रसित अनेक मनुष्य अपनी अन्तरात्मा को भर्त्सना की उपेक्षा करके पशु-पक्षियों के साथ अन्याय एवं अत्याचार करने में संकोच नहीं करते। इस प्रकार जान-बूझकर स्वार्थ के लिये किया हुआ पाप उन्हें किस घोर नरक की ओर ले जायेगा, इसका अनुमान कर सकना कठिन नहीं हैं।
आज अपने को ईश्वर का पुत्र कहने वाला मनुष्य ईश्वर के अन्य पुत्र,प्राणियों पर कितना निर्दय अत्याचार कर रहा है यह देख-सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। जिह्वा के अनार्य स्वार्थ के लिये पशु-पक्षियों को मारना तो एक साधारण-सी बात रही है। माँस भोजन की जंगली प्रवृत्ति अभी तक कुछ मनुष्यों में बनी हुई है, जिसकी प्रेरणा से वे अपनी इस आदिम प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहे हैं। यह आदिम प्रवृत्ति परम्परागत होकर अनेक परिवारों एवं समाजों में संस्कार बनकर चली आ रही है। यदि मनुष्य थोड़ा-सा प्रयत्न करे, हिंसा की अधार्मिकता तथा माँस-भोजन की हानियों को समझ ले तो कोई कारण नहीं कि उसे माँस खाने से घृणा न हो जाये। जिस प्रकार उसने आदिम काल की अनेक अवाँछित प्रवृत्तियों का त्याग कर दिया है उसी प्रकार वह माँसाहार का भी त्याग कर सकता है। माँस भोजन के लोभ से जो प्राणियों को मारते हैं वे तो अपराधी हैं ही, किन्तु जो यों ही मनोरंजन अथवा बन्दूक का निशाना साधने के लिए निर्दोष एवं निरपराध पशु-पक्षियों के प्राण लेते हैं, उन्हें क्या कहा जायेगा। वास्तव में यह कितना क्रूर कर्म है? अकारण ही दिल खुश करने के लिये, डाल पर असावधान बैठे हुए पक्षी अथवा जंगल में निश्चिन्त चरते हुए किसी पशु पर गोली चलाकर मिट्टी के ढेले की तरह नष्ट कर देने वालों का हृदय कितना अकरुणा तथा क्रूर होता है, इसका अनुमान तो वही सहृदय व्यक्ति कर सकता है जो अपनी पीड़ा की तरह दूसरे की पीड़ा और अपने प्राणों की तरह दूसरे के प्राणों को जानता है। संसार में एक क्या हजारों तरह के मनोरंजन हो सकते हैं, तब किसी निर्दोष जीव के प्राणों से खिलवाड़ करने का पाप करने की क्या आवश्यकता है— इस बात पर बन्दूक बाजों को विचार करना ही चाहिए।
जहाँ एक ओर अनेक क्रूर व्यक्ति पशु-पक्षियों को मारकर मनोरंजन करते हैं वहाँ बहुत-से सहृदय व्यक्ति उन्हें पालने-पोसने और खिलाने-पिलाने में मनोरंजन मानते हैं। वास्तव में इस प्रकार के दयावान व्यक्ति अपने परमपिता परमात्मा के कितने प्यारे पुत्र होंगे। जहाँ वह उन दारुण पुत्रों को देखकर खेद करता होगा वह इन करुण कुमारों को देखकर शीतलता का अनुभव करता होगा। इस वैभिन्नय से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसका कौन-सा पुत्र उसके स्वर्ग-राज्य का अधिकारी बनेगा और कौन-सा उसके कारागार नरक की यातना भोगेगा।
मनोरंजन के लिए पशु-पक्षियों के साथ एक प्रकार का क्रूर एवं करुण व्यवहार करने वालों में से एक उन्हें मारते हैं और एक उन्हें पालते-पोसते हैं। किन्तु कुछ व्यक्तियों का मनोरंजन और भी शालीन होता है। उनका मनोरंजन न पालने में होता है और न मारने में। यथा-स्थान पशु-पक्षियों को स्वच्छन्दतापूर्वक खेलते-खाते, उड़ते-गाते देखकर ही उनका हृदय उतना ही प्रफुल्लित हो जाता है जितना कि उन खेलते, खाते और उड़ते हुए प्राणियों का होता है। ऐसे प्रेमी पुरुष परमात्मा के सत्पुरुष ही नहीं उनके प्रतिनिधि ही माने जायेंगे। यदि किसी पुण्यात्मा को स्वर्ग प्राप्त हो सकता है तो ऐसे सर्व संवेदनशील सत्पुरुषों को परमपिता का साक्षात् सान्निध्य ही प्राप्त होगा जो पशु-पक्षियों को मारना अथवा अपने पास रखने के बजाय स्वच्छन्दतापूर्वक खेलते-खाते देखकर ही ऐसे प्रसन्न होते हैं जैसे उनके छोटे भाई-बहन ही खेल-कूद रहे हों। ऐसी संवेदना, सहानुभूति, सहृदयता एवं आत्मशीलता रखने वालों का यह मानव-जीवन धन्य हो जाता है।
विचार करने का विषय है कि जब हम मानव किसी मेले-ठेले में जाते हैं तो मिट्टी अथवा कागज कपड़े के बने पशु-पक्षियों को हाट में देखकर खुश हो जाते हैं। उन्हें पैसे देकर खरीद लाते हैं। घरों में अलंकरण की तरह सजा कर रखते हैं, रक्षा करते हैं, उन्हें तोड़ने अथवा खराब करने के लिये बच्चों तक पर नाराज होते हैं और यदि धोखे से टूट जाते हैं तो दुःख करते हैं। तब साकार, सजीव और नाचते-गाते हुए पशु-पक्षियों को मारना, सताना अथवा उन्हें अन्य प्रकार से नष्ट करना कहाँ तक शोभनीय है?
संसार के प्राणियों पर अत्याचार करने वालों को, उन्हें सताने और मारने वालों को अपनी वृत्तियों का आप विवेचन करना चाहिए और देखना चाहिए कि ऐसी कौन-सी वृत्तियाँ हैं जिन्हें स्वार्थरूपी पिशाच ने विकृत कर रखा है, ऐसी कौन-सी वृत्तियाँ हैं जो अज्ञान द्वारा उत्तेजित की जाती हैं और वे वृत्तियाँ कौन-सी हैं जो असभ्य कालीन हैं? पता चलने पर मनुष्य को उन सारी दूषित वृत्तियों को निकाल फेंकना चाहिए जो हमें हिंसा-पाप के प्रति प्रेरित करती हैं क्योंकि इस प्रकार की पाप-परायण प्रवृत्तियाँ मनुष्य को देवत्व की ओर तो नहीं ही बढ़ने देती, आत्मा को कलुषित कर मनुष्यता से भी पतित कर देती हैं।