तब वसुधा पुलकित हो उठी

November 1966

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तब वसुधा पुलकित हो उठी-

प्रचण्ड अन्तर्दाह से एक विराट् पिंड खण्ड-खण्ड होकर आकाश से टूट पड़ा और क्षितिज में घूमने लगा। एक खण्ड विधाता के सम्मुख भी जा गिरा।

उन्होंने सोचा इससे क्रीड़ा की जाए। किन्तु ओह! यह तो अंगार की तरह गर्म था। विधाता ने उसे जल में विहार करने के लिए छोड़ दिया। जब निकाला तो पता चला कि उसमें स्पन्दन है।

विधाता ने पूछा क्या तुम में जीवन है? ‘हाँ’ का उत्तर पाकर विधाता ने फिर पूछा तुम्हारा नाम क्या है? अनामा पिण्ड ने उत्तर दिया—मेरा नाम कुछ भी नहीं है! विनोदी विधाता ने उसका नाम ‘वसुधा’ रखकर कहा लो तुम्हारा नाम रख दिया। अब प्रसन्न होकर हँसो खेलों और मंगल मनाओ।

वसुधा ने एक गर्म उच्छास छोड़ कर कहा—निर्माता! मेरे अन्तर में अनन्त दाह भरा है, मैं किस प्रकार हँस सकती हूँ।

विधाता ने उसे हरी-भरी वनस्पति से भर दिया और कहा अबतो हँसोगी? वसुधा ने फिर एक उच्छास छोड़ा वह भी गर्म था। अब विधाता ने उसे एक शिशु प्राणी प्रदान करके कहा—ले यह मानव शरीर तेरी प्रसन्नता का हेतु बनेगा।

मनुष्य वसुधा की गोद में बड़ा हुआ और उसने अपने परिश्रम से माँ वसुधा को सजा दिया। वसुधा का श्रंगार देख कर विधाता ने एक दिन फिर पूछा—वसुधे, अबतो तुम्हारी प्रसन्नता का वारापार न होगा। वसुधा ने पुनः उच्छास छोड़ा। वह भी गर्म था। विधाता ने झुँझला कर कहा—तू कभी सुखी नहीं हो सकती और वे नाराज होकर चले गये।

एक दिन एक मधुर संगीत से विधाता की नींद टूटी। उन्होंने उठकर देखा वसुन्धरा गा रही थी। विधाता ने उसकी प्रसन्नता हेतु पूछा। हँसते हुये वसुधा ने बतलाया—सृष्टा, जब हमारे पुत्र मनुष्य निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे पर प्रेम करते हैं और मिलजुल कर मेरी सम्पत्ति का आनंद उठाते हैं तो पुत्रों के इस प्रेम-भाव से मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता है।


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