सामान्यतः संसार में उसी को बुद्धिमान मानने की प्रथा-सी पड़ी है जो अधिक-से-अधिक सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है, फिर वह सम्पत्ति उसने अनुचित रीति और अवाँछनीय साधनों से ही क्यों न कमाई हो। यहाँ तक कि दूसरे का धन हड़प लेने तक को लोग कुशलता और चतुरता मान लेते हैं।
जब कि वास्तविक बुद्धिमत्ता है मानव-जीवन का समुचित सदुपयोग करना। जिसने बाह्य साधनों की तुलना में आन्तरिक सद्गुणों को अधिक महत्ता दी उसे ही वास्तविक बुद्धिमान मानना चाहिए।
इस सुर दुर्लभ मानव-जीवन को पाकर भी जो इसके उद्देश्य को नहीं समझता वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। जो इस अलभ्य अवसर का सदुपयोग करके अपनी आन्तरिक उन्नति में प्रयत्नशील है, वही सच्चे मानों में बुद्धिमान है। जो विचारवान है, भावनाशील और चरित्रवान् है उसे ही बुद्धिमान कहा जायेगा।
एकमात्र भौतिक उन्नति में अपने जीवन के अणु-क्षण लगा देने वाले को बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता फिर चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो।
—महर्षि कर्वे