हम घट नहीं रहे—बढ़े ही हैं।

November 1966

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सन् 66 में अखण्ड-ज्योति अपने परिवार की संख्या घटा रही है पर उसका स्तर अपेक्षाकृत बहुत ही उत्कृष्ट बन जायगा। इन उत्कृष्ट व्यक्तियों की सहायता से हमें नव निर्माण मिशन में अपेक्षाकृत अधिक सहायता मिलेगी। क्योंकि एक सीमित संख्या के साथी रह जाने पर उनकी ओर अधिक ध्यान दे सकना—उनके साथ अधिक परिश्रम कर सकना हमारे लिए अधिक सम्भव होगा। सेना थोड़ी है पर बहादुरों की है—अनुशासित, सुशिक्षित और सुसंगठित है तो उससे अधिक सफलता मिलती है। अनाड़ी, डरपोक, अव्यवस्थित भीड़ से सेना का काम लिया जाय तो वह गड़बड़ी ही अधिक उत्पन्न करेगी। स्वयं भी कुछ काम न करेगी और जो अच्छे योद्धा साथ में होंगे, उनको भी काम कर सकना कठिन बना देगी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कुशल सेनापति फौजी ट्रेनिंग तो बहुतों को देते हैं पर महत्वपूर्ण मोर्चे पर लड़ने को उन्हें ही भेजते हैं, जिनकी वीरता और कुशलता पर उन्हें पूर्ण विश्वास होता है। अखण्ड-ज्योति के सदस्यों की वर्तमान छटनी इसी दृष्टि से हो रही है।

कई व्यक्तियों ने आशंका प्रकट की है कि इस प्रकार छटनी करने से तो अपना कार्यक्षेत्र बहुत थोड़ा रह जायगा, हमें भारत ही नहीं समस्त विश्व में युग परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करनी है, इसके लिये अधिकाधिक व्यक्ति अपने संगठन में होने चाहियें थे। सदस्यों की संख्या बढ़नी चाहिये थी, पर जब वह संख्या घटाई जायगी तो काम कैसे बढ़ेंगे? थोड़े से व्यक्ति उस बड़े संकल्प को कैसे पूरा कर सकेंगे, जो हम लोगों ने विश्व-मानव के सम्मुख घोषित किया है।

उपरोक्त आशंका ऊपर से ही सारगर्भित लगती है, पर उसमें तथ्य कम है। संख्या बल-प्रदर्शन की दृष्टि से उपयोगी होती है पर काम थोड़े से काम के व्यक्ति ही चलाया करते हैं। भीड़ का उत्साह क्षणिक होता है, जिनमें दृढ़ता और निष्ठा नहीं वे आवेश में कुछ तूफान तो कर सकते हैं पर देर तक किसी आदर्श पर ठहर नहीं सकते। ऐसे लोग नारे लगाने और प्रदर्शन करने के लिये काम चलाऊ प्रयोजन पूरा कर सकते हैं पर किसी दीर्घकालीन पारमार्थिक प्रयोजन के लिये वे कुछ अधिक काम के सिद्ध नहीं हो सकते। कोई ठोस काम हमेशा निष्ठावान आदर्श व्यक्तियों के बल-बूते पर ही चलता है।

गान्धी जी के स्वराज्य आन्दोलन में जुलूस और प्रदर्शनों में लाखों की भीड़ जमा होती थी, पर उस अभियान की संचालन भूमिका प्रस्तुत करने वाले थोड़े से ही व्यक्ति थे। गुरु गोविन्दसिंह के पीछे शिष्यों की भारी भीड़ थी, पर उनने देखा कि इससे तो उल्टी गड़बड़ी पड़ेगी। काम के थोड़े से मजबूत व्यक्ति ही छाँटे जायँ, उन्होंने सिर कटाने वाले 5 शिष्यों की माँग की। कमजोर शिष्य भाग खड़े हुये पर जो मजबूत 5 शिष्य रह गये, उनकी परीक्षा की और उन्हीं के बल-बूते पर उन्होंने सिख धर्म की ऐतिहासिक परम्परा सम्पन्न की। ईसा मसीह को सारे जीवन के प्रयत्न करने पर लाखों की संख्या में उपदेश सुनने वालों में से केवल 12 सच्चे शिष्य मिले थे। पर थे वे इतने मजबूत कि उनके प्रयासों के बलबूते पर आज लगभग आधी दुनिया ईसाई धर्म में दीक्षित दिखाई पड़ रही है। बुद्ध-विहारों में लाखों भिक्षु, भिक्षुणी निवास करते थे पर उनके मिशन का संचालन कर सकने योग्य केवल 84 व्यक्ति ही मिल सके। कीमत संख्या की नहीं—मजबूती की है—और यह मजबूती बिना परीक्षा के प्रकट ही नहीं होती।

जिन दिनों हमने सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ किया था उन दिनों 24 लाख सदस्य गायत्री परिवार के थे। उनमें से करीब 4 लाख मथुरा आए थे। एक माला गायत्री जप करना उन दिनों सदस्यता की शर्त थी। यदि उसी स्तर के लोग—उसी क्रम से बढ़ाये जाते रहते तो अब तक उनकी संख्या करोड़ों हो गई होती। सभा, सम्मेलन, जुलूस, प्रदर्शनों का जुगाड़ उस भीड़ में खूब बनता रहता। कई व्यक्ति उसे सफलता का चिन्ह मानते। पर हमारा दृष्टिकोण भिन्न है। मजबूती के अभाव में वह भीड़ बरसाती मक्खी, मच्छरों का ही उदाहरण बनती, संख्या बल से कुछ काम न बनता। इसलिये सोचा गया कि ऐसी ही भीड़ बढ़ाते जाने से प्रदर्शन तो बढ़ेगा पर मिशन की परिपक्वता में सहायता न मिलेगी अतएव काम के आदमी बढ़ाये जाएं। विचारों की शक्ति और उपयोगिता समझ सकने वाले लोग इनमें से तलाश किए जायें क्योंकि विचार शक्ति का, युग परिवर्तन का प्रयोजन वे लोग न कर पायेंगे जिन्हें मानव जीवन के विकास में प्रौढ़ विचारधारा की उपयोगिता ही विदित नहीं। जो स्वयं प्रकाश पूर्ण बौद्धिक प्रखरता को सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं, वे भला और किसी को क्या कुछ कह सुन सकेंगे और क्या अपने जीवन में प्रखरता ला सकेंगे। अखण्ड-ज्योति हमारी भावनाओं और विचारधाराओं का दर्पण है। जिन्हें उसे पढ़ने से रुचि, आकाँक्षा न जग सकी तो वे शरीर से हमारे समीप भले हों, भावनात्मक दृष्टि से हजारों कोस दूर हैं। जिन्हें हम विचार भी न दे सकेंगे उनके जीवनों में परिवर्तन तथा उस परिवर्तन से युग को प्रभावित करने का प्रयोजन कैसे पूरा करेंगे? अतएव सोचा कि भीड़ को लाखों से करोड़ों में ले जाने की अपेक्षा- भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत व्यक्तियों का चयन किया जाय। उस तलाश में 40 हजार व्यक्ति हाथ लग गए।

लोगों ने कहा “आपने 24 लाख से घटा कर मिशन 40 हजार कर लिया,—आवश्यकता बढ़ाने की थी, आपने घटाया। यह उचित नहीं हुआ।” पर यह आशंका निरर्थक निकली। 24 लाख व्यक्ति जो करते थे जो कर सकते थे उसकी तुलना में 40 हजार ने 10 गुना अधिक काम किया। अखण्ड ज्योति के विचारों को जो निरन्तर पढ़ेगा उसके जीवन में कोई आदर्शवादी परिवर्तन न हो यह सम्भव नहीं। यदि हमारी भावनायें सच्ची हैं, सजीव हैं, सशक्त हैं तो कोई कारण नहीं कि वे जहाँ पहुँचें अपना रचनात्मक काम न करें। पाठकों के जीवनों में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुये—उन परिवर्तनों ने लाखों-करोड़ों को प्रभावित किया। जो कुछ हुआ है वह अविज्ञात है। यदि इसका लेखा-जोखा तैयार किया जाय और उसे प्रकाश में लाया जाय तो लोग आश्चर्य से दाँतों तले उंगली दबाते हुये कहेंगे कि नैतिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान की दिशा में इतनी अधिक प्रगति इस छोटे से संगठन द्वारा हो सकना सचमुच ही अनुपम है।

अपने तक सीमित रहने वाले अखण्ड ज्योति के सदस्य, अपने से स्वाभाविक संबद्ध लोगों को ही प्रभावित कर सके। अब हमारी आवश्यकता उन कार्यकर्ताओं की है जो जनता में प्रवेश कर कुछ अधिक व्यापक क्षेत्र में नव-निर्माण के मिशन को प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ हों। 24 लाख में से जब 40 हजार निकले तो 40 हजार में से 4 हजार से अधिक की आशा कैसे की जाय? एक घंटा समय और दस पैसे नित्य की शर्त यद्यपि भौतिक दृष्टि से किसी भी व्यस्त और नितान्त निर्धन व्यक्ति के लिये भी कठिन नहीं है। पर जिनमें भावनात्मक दृढ़ता का अभाव है उनके लिये यह शर्तें पहाड़ की तरह दुर्गम और समुद्र की तरह दुस्तर है। वे बेचारे अनेक बहाने बता कर इस झंझट से छुटकारा पर रहे हैं। हमें न इसका दुःख है और न क्षोभ। सरकारी स्कूल-कॉलेजों का परीक्षा फल 30-40 प्रतिशत रहता है। कानून की परीक्षा का रिजल्ट तो कभी-कभी 10-15 प्रतिशत ही रह जाता है। हमारी छटनी परीक्षा में 10 प्रतिशत परिजन ही उत्तीर्ण हों तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है। आदर्शवाद को स्वीकार ही नहीं व्यवहार में लाने के लिये भी तत्पर व्यक्ति इतने प्रतिशत मिल जायँ तो यह कहना चाहिये कि अभी निराशा की कोई बात नहीं। उज्ज्वल भविष्य की पूरी-पूरी सम्भावना है। 4 हजार व्यक्ति यदि अपने सच्चे साथी हो सकें तो हमें पूरा और पक्का विश्वास हो जायगा कि जिस नव निर्माण के लिये युग परिवर्तन के लिये हम प्रयत्नशील हैं इसका भौतिक कार्यक्रम ठीक तरह चलता रहेगा और वह समयानुसार पूर्ण सफल होगा। इस महान अभियान की सफलता के लिये—युग परिवर्तन के लिये—सूक्ष्म वातावरण की आवश्यकता है उसकी पूर्ति पाँच वर्ष बाद कठोर तपश्चरण द्वारा पूरी करेंगे। महर्षि अरविन्द और महर्षि रमण का भारतीय स्वाधीनता की उपलब्धि में क्या योग रहा, इस रहस्य से बहुत कम लोग परिचित हैं। इसी प्रकार युग निर्माण आन्दोलन अगले दिनों जिस प्रचण्ड रूप में मूर्तिमान होगा उसकी रहस्यमय भूमिका कम ही लोगों को विदित होगी, पर यह निश्चित है कि वह आन्दोलन बहुत ही प्रखर और प्रचण्ड रूप से उठेगा और पूर्ण सफल होगा। सफलता का श्रेय किन व्यक्तियों के लिये, किन संस्थाओं को मिलेगा इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। पर होना यह निश्चित रूप से है। इस उज्ज्वल भविष्य की कृषि को बोने, उगाने, सींचने के लिये जिन कर्मठ भुजाओं की आवश्यकता है, उनकी आज जरूरत पड़ रही है। फसल काटने के समय बहुत होंगे पर जोतने बोने का समय तो आज है। आज 4 हजार जिन श्रमिकों की अपेक्षा है, उन्हें ही अखण्ड ज्योति परिवार में से छाँटा गया है। दो शर्तों ने गड़बड़ी फैलाकर 40 हजार को घटा कर 4 हजार कर दिया यह बात देखने में दुखंद सी लगती है, पर मजबूरी हमारी भी है। जो खुद ही कुछ त्याग बलिदान करने की बात कह किस मुँह से सकेंगे? अब गाल बजाने वालों का जमाना चला गया। बढ़-बढ़कर बोलने और लिखने से जनता का मनोरंजन मात्र ही हो सकता है। प्रभाव उनका पड़ता है जो कुछ स्वयं करते हैं। जन मानस को त्याग, बलिदान की प्रेरणा दे सकने की आवश्यकता केवल वे ही लोग पूरी कर सकेंगे जो पहले अपने जीवन में वैसा कुछ कर सकने की अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर चुके होंगे। छटनी के लिए जो शर्तें जोड़ दी गई हैं, वे वस्तुतः व्यक्ति के भावनात्मक स्तर एवं आदर्शवादिता के प्रति निष्ठा की ही जाँच पड़ताल है। उस पर व्यस्त और निर्धन व्यक्ति भी खरे उतर सकते हैं और धनी तथा निठल्ले ही खोटे सिद्ध हो सकते हैं। प्रश्न सुविधा-असुविधा का रत्ती भर भी नहीं। प्रश्न स्तर का है। थोड़े ऊँचे स्तर के लोग ही इस कार्य को कर सकेंगे जिसके लिए इन दिनों हमारी अन्तरात्मा निरन्तर उत्तेजित रहती है। इसलिए संख्या का घटना अन्य स्वजनों की तरह हमें भी भले ही अच्छा न लगे, पर विवशता ने इसके अतिरिक्त कोई मार्ग भी तो नहीं छोड़ा है। काम के आदमियों के बिना बड़ा प्रयोजन कैसे सिद्ध हो? और काम के आदमी बिना परीक्षा के परखे किस प्रकार जायँ? परीक्षा ऐसी कैसे हो जिसमें तनिक भी असुविधा का प्रसंग न आने पाये?

यह आशंका किसी प्रेमी परिजन को नहीं करनी चाहिए कि इस छटनी से अपना मिशन एवं कार्य क्षेत्र घट जायगा। सच बात तो यह है कि वह अगले दिनों तेजी से बढ़ेगा और अब की अपेक्षा अगले ही वर्षों में दूना-चौगुना हो जायगा। जिन चार हजार व्यक्तियों ने पाँच वर्ष तक हमारे विचार अभियान में कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देने की प्रतिज्ञा की है वे झूठे, धोखेबाज, अकर्मण्य और अनुत्तरदायी नहीं है। जिनने प्रतिज्ञा पत्र भरे हैं उनने यह समझा है कि अगले दिनों हमें क्या करना होगा। छपे कागज पर कौतुकवश हस्ताक्षर कर भेजने वाला बचकाना—सदस्य शायद ही इनमें से कोई हो। हमें इन सुदृढ़ सहचरों की श्रद्धा और कर्मठता पर पूरा भरोसा है और विश्वास है कि वे ईमानदारी और तत्परतापूर्वक दोनों प्रतिज्ञायें पालन करते रहेंगे।

अब तक बहुत सी जगह अखण्ड ज्योति कोने में पड़ी सिसकती रहती थी। दूसरों के दबाव में लोग चन्दा तो दे देते थे पर उसे पूरी दिलचस्पी से पढ़ते नहीं थे। ऐसे अश्रद्धालुओं को अब हटा दिया गया है। केवल उतने ही सदस्य रह जायेंगे जो समझते हैं कि यह पन्ने नहीं—आचार्य जी के अन्तःकरण के मूर्तिमान सजीव चित्र हैं। वे उन्हें भावनापूर्वक पढ़ेंगे और श्रद्धापूर्वक हृदयंगम करेंगे। इतना ही नहीं अब उन्हें इस विचारधारा को निजी अपने घर परिवार में अनिवार्य रूप से और पास-पड़ोस में सुविधानुसार प्रसारित करना होगा। हर परिवार में औसतन 5 व्यक्ति तो होते ही हैं। हम आशा करेंगे कि 4 हजार सदस्य हमारे विचारों को अपने घर के हर पढ़े सदस्य को पढ़ाने और बिना पढ़े को सुनाने की जिम्मेदारी पूरी करेंगे। इसी प्रकार यह भी स्वाभाविक है कि घर से बाहर कम-से-कम 5 व्यक्ति मित्र या प्रभावी परिचित हों। नव निर्माण का साहित्य उन्हें पढ़ने देने और वापिस लेने में—उनके साथ प्रस्तुत विचारों पर चर्चा करने में थोड़ा समय खर्च करते रहना किसी के लिए कुछ भी कठिन न होगा। 5 घर में और 5 बाहर कुल मिलाकर 10 से भी क्या कम किसी व्यक्ति का प्रभाव क्षेत्र होगा? इस क्षेत्र में हर स्थायी सदस्य हमारे विचारों का विस्तार करेगा तो वर्तमान 4 हजार सदस्यों द्वारा 40 हजार नयों को यह विचार दिये जाते रहेंगे। इस प्रकार 40 हजार नये और 4 हजार वे स्वयं कुल मिलाकर 44 हजार पाठकों द्वारा अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना और ट्रैक्ट साहित्य पढ़ा, सुना, समझा और समझाया जाता रहेगा तो हमारा मिशन अगले वर्ष घटेगा नहीं, बढ़ेगा।

फिर जिन्हें स्थायी सदस्यों ने प्रयत्न करके नव निर्माण साहित्य पढ़ाया, सुनाया या समझाया है कि वे क्या यों ही मिट्टी के पुतले बने रहेंगे। निश्चित रूप से उनमें नव चेतना, प्रकाशपूर्ण स्फुरण उत्पन्न होगी और उनमें से ही कितने ही दोनों शर्तें पूरा करने वाले नये सदस्य बनेंगे। उनके प्रभाव से दूसरे बढ़ेंगे। इस प्रकार जलते हुए दीपक अपनी नई पौद तैयार करते हुए अमावस के दिन दिवाली जगमगाने का प्रयोजन पूरा कर सकेंगे। जो स्वयं बुझे पड़ें हैं उनसे दूसरों को जलाने की आशा नहीं की जा सकती, पर जो प्रज्वलित है वह अपने क्षेत्र में प्रकाश क्यों न करेगा? 4 हजार जलते दीपक कितना प्रकाश उत्पन्न करेंगे, कितने नये दीपक जलायेंगे? और फिर वह परम्परा एक से दूसरे में—दूसरे से तीसरे में—तीसरे से चौथे में फैलती हुई कितनी व्यापक, विस्तृत होगी? इसकी, सम्भावना का चित्र सामने आते ही हमारा मन उज्ज्वल भविष्य की आशा से उल्लसित हो उठता है। सच्चे साथियों की सहायता से क्या नहीं किया जा सकता? 40 हजार की भीड़ जिसे नहीं कर सकती थी उसे 4 हजार प्रबुद्ध परिजन कर दिखायेंगे, इसका हमें पूरा भरोसा है। इस प्रकार संख्या घट जाने पर भी हमारा मिशन अगले दिनों घटने वाला नहीं है, वस्तुतः वह कई गुना बढ़ने वाला है—आँधी और तूफान की तरह गतिशील होता हुआ विश्व-व्यापी एक महान अभियान का रूप धारण करने वाला है।

एक घण्टा समय देने की प्रतिज्ञा को इस रूप में निबाहना हर सक्रिय सदस्य के लिए सम्भव होगा ही कि वह अपने निज के परिवार में हर सदस्य को और घर से बाहर के मित्र, परिचितों, स्वजन, सम्बन्धियों को इस विचारधारा के संपर्क में लगाने, उन्हें पढ़ाने-सुनाने के लिये प्रयत्न करे। यह काम सरल होते हुए भी महत्वपूर्ण है। आज बीजारोपण होगा, उसका प्रतिफल अगले दिनों हरी-भरी फसल के रूप में सामने आयेगा।

दस नये पैसे का खर्च जिनने स्वीकार कर लिया है उनके घर में दोनों पत्रिकाओं और आग उगलने वाले ट्रैक्टों का एक सशक्त पुस्तकालय बनाना ही है। विचार क्राँति के लिए यह नव निर्माण पुस्तकालय एक प्रखर शस्त्रागार का काम करेगा। चार हजार घरों में दीप्तिवान यह ज्ञान-यज्ञ अगले ही दिनों कितना ठोस—कितना महत्वपूर्ण—कितना महान—कार्य सम्पन्न करेगा, इसे लोग आश्चर्यचकित होकर देखेंगे। सदस्यों की संख्या घट जाने पर भी स्तर की उत्कृष्टता बढ़ेगी। अतएव हमारा मिशन घटने वाला नहीं, बढ़ने ही वाला है। इस सम्बन्ध में किन्हीं शुभ चिन्तकों को न तो शंका करनी चाहिए और न आशंका। समर्थ परमेश्वर का यह पुण्य प्रयोजन अगले दिनों व्यापक, सार्थक और सफल होने वाला है।


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