मुफ्त का दान क्यों लें

November 1966

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मुफ्त का दान क्यों लें-

दानशील राजा भोज ने एक बार नगर की जनता को प्रसन्न करने और अपनी दानशीलता का प्रमाण देने के लिए सार्वजनिक भोज कर दिया। भोज में हजारों लाखों लोग आए और विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों को सराह-सराह कर खाया!

दावत के बाद राजा भोज सायंकाल भेष बदलकर उस उत्सव की प्रतिक्रिया का पता करने निकल पड़े। वे जिधर भी जाते लोग उनकी दानशीलता, उदारता और भोजन तथा व्यंजनों के स्वादों की सराहना करते सुनाई देते। राजा भोज अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्नता से उन्मत्त हो उठे।

जिस समय वे घर वापस आ रहे थे उन्होंने देखा कि एक लकड़हारा सिर पर लकड़ी का गट्ठर रक्खे पसीने से लथपथ जंगल की ओर से आ रहा है और शहर में बेचने जा रहा है! भोज ने उसके पास जाकर पूछा—क्यों भाई तुम्हें आज भी इतना परिश्रम करने की क्या आवश्यकता थी। आज तो राजा भोज ने पूरे नगर की दावत की थी क्या तुम्हें पता नहीं?

लकड़हारे ने हँसते हुए उत्तर दिया, ‘मुझे पता था। पर भाई, जो आदमी अपने परिश्रम की खरी कमाई खा सकता है उसे राजा भोज की दावत से क्या सरोकार? जो आनन्द और स्वाद अपने पसीने और पुरुषार्थ से कमाई हुई सूखी रोटी में है वह स्वाद दूसरों की कृपा पर पाए पकवानों में कहाँ!’

लकड़हारे की बात सुन कर राजा भोज की उदारता और दानशीलता का मद उतर गया और वे रास्ते भर यही सोचते आए कि लकड़हारा ठीक कहता था!


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