भाग्यवाद को तिलाँजलि देना ही श्रेयस्कर

November 1966

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एक समय था जब भारत संसार का शिरमौर माना जाता था। भारत से ही निकल-निकल कर सभ्यता, संस्कृति एवं मनुष्यता के सन्देश देश-देशान्तर में फैले। हमारे पूर्वजों ने न जाने कितनी बार विश्व-विजय कर संसार में धर्म की स्थापना की। जीवन-दर्शन से परिप्लावित ज्ञान देने के कारण ही भारत को ‘जगत्-गुरु’ की पदवी प्राप्त हुई थी।

उस स्वर्णिम समय की याद अभी संसार को बनी हुई है जब हमारा भारत देश उन्नति एवं प्रगति के शिखर पर विराजमान था और संसार उससे कौशल, शिल्प तथा ज्ञान-विज्ञान सीखने के लिये अपने प्रतिनिधि भेजा करता था। बल, बुद्धि, विद्या एवं धनधान्य की प्रचुरता होने के कारण ही भारतवासियों को देवता करके माना गया था और इस धरती को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा गया था।

भारत की इस उन्नति पूर्ण स्थिति का कारण यहाँ का जीवन-दर्शन ही रहा है जिसके आधार पर भारतवासी निस्वार्थ, परिश्रम, कर्मठता, न्याय, औचित्य एवं विवेक में अति अखण्ड निष्ठा रखकर उसी के अनुसार आचरण किया करते थे।

आज भारत संसार में पिछड़े हुए देशों में गिना जाता है उसकी धन-सम्पत्ति नष्ट हो गई और उसे एक अभावग्रस्त गरीब देश माना जा रहा है। कायरता, आलस्य एवं अकर्मण्यता भारतवासियों के स्वभाव के अंग बन गये हैं। जिससे उनकी दशा दिन-दिन गिरती चली जा रही है अविवेक एवं अन्धविश्वासों का तो कोई वारापार ही नहीं रहा।

भारतवासियों का यह पतन कोई आजकल की बात नहीं है। उसमें प्रमाद एवं अविवेक का दोष बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा है। जिसके कारण उन्हें गत सात सौ साल तक विदेशी आक्रमणों एवं दासता की ताड़ना भोगनी पड़ी है। शोषण, संहार एवं अपहरण की असंतोषजनक स्थिति यद्यपि आज नहीं है, विदेशी शासन एवं प्रभाव नष्ट हो चुका है, देश आजाद है। उस पर किसी का बाहरी दबाव भी नहीं रहा है, तथापि इसकी दशा दयनीय बनी हुई है। इसका अविवेक एवं अन्ध विश्वास यथावत् अक्षुण्ण रहने से प्रगति की कोई सम्भावना दृष्टिगोचर नहीं हो रही है।

भारतवासियों के इस पतन के कारणों में मुख्य कारण ‘भाग्यवाद’ का पाप हो रहा है। ‘भाग्यवाद’ ‘पुरुषार्थवाद’ अथवा ‘कर्मवाद’ का विरोधी है। जहाँ ‘भाग्यवाद’ जड़ जमाये हुए होगा वहाँ पुरुषार्थ की महत्ता नहीं रह सकती और जहाँ पुरुषार्थ के प्रति निष्ठा होगी वहाँ भाग्यवाद प्रवेश नहीं कर सकता। एक लम्बे समय से भारतीयों के जीवन में भाग्यवाद ने जड़ जमा ली है। फलतः उनका पुरुषार्थ एवं कर्तव्यवादी जीवन-दर्शन आलस्य प्रमाद, पलायन एवं प्रतिगामिता आदि के अवनति कारक पाप से दूषित हो गया है और नंगे-भूखे, दीन-दलिद्र होकर भी भारतवासी यथावत् स्थिति पर अज्ञानजन्य सन्तोष किये हुए जिये जा रहे हैं। उनके मस्तिष्क में परिस्थितियों को बदलने, उनका कारण खोजने का विचार जन्म लेकर सक्रिय नहीं हो पा रहा है।

‘भाग्यवाद’ में विश्वास करने वाले, फिर चाहे वे व्यक्ति हों, अथवा राष्ट्र बहुत अधिक हानि उठाया करते हैं। जहाँ ‘कर्मवाद’ मनुष्य को उत्साही, परिश्रमी साहसी आत्म-विश्वासी तथा स्वावलम्बी बनाता है वहाँ ‘भाग्यवाद’ में अन्धविश्वास रखने वालों में निष्क्रियता, निराशा, निरुत्साह, परावलम्बन आदि की हीन वृत्तियाँ आ जाती हैं जिनका परिणाम अवनति के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।

भाग्यवाद का बन्दी मनुष्य अपनी असफलता अथवा दीन दशा का दोष भाग्य को देकर बैठ जाता है और सोच लेता है कि सफलता उसके भाग्य में ही नहीं है। जब अच्छे दिन आयेंगे भाग्य साथ देगा उसकी उन्नति होते देर न लगेगी। किसी बात के लिये हाथ-पैर मारना, सर खपाना व्यर्थ है, यदि वह चीज भाग्य में होगी तो किसी न किसी बहाने मिल ही जायेगी। ऐसे अकर्मण्य निष्क्रियतावादी व्यक्ति आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन, आत्म-सुधार एवं आत्म-विकास का प्रयत्न नहीं करते। सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़कर सफलता अथवा प्राप्ति की राह देखा करते हैं।

भाग्यवाद पर विश्वास रखने वाले की विचार-शक्ति कुँठित हो जाती है। वह अपने दुःख-दर्द, आपत्तियों, कठिनाइयों तथा हानि—असफलता के कारणों की खोज-बीन करने का उत्साह नहीं रखता उसका अन्धविश्वास उसको ऐसा करने से रोकता है। अभावों एवं कठिनाइयों का वास्तविक कारण तभी समझा जा सकता है जब विवेक को अपना काम करने का अवसर दिया जाये। जिसका विवेक बन्दी है, विचार-शक्ति कुँठित हो गई है, तार्किक दृष्टिकोण पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है वह आपत्ति अथवा अभाव का कारण खोज सकने में सर्वथा असमर्थ ही रहेगा। वास्तविक कारण को खोजने के स्थान पर जब भाग्य को दोष देकर छुट्टी पा ली जायेगी तो निश्चय है कि ऐसी अवस्था से उनको दूर किये जाने का प्रश्न ही नहीं रहता। यही कारण है कि अधिकतर भाग्यवादी आलसी, अकर्मण्य होकर दीन-हीन जिन्दगी ही भोगा करते हैं।

‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’—संसार में कर्म की प्रधानता है। कर्म किए बिना यहाँ किसी प्रकार की उपलब्धि सम्भव नहीं। भाग्य के भरोसे हाथ-पर-हाथ रखे बैठे रहने वाले, अपनी दयनीय परिस्थितियों में ही पड़े-पड़े मरा करते हैं। भारतवासियों में भाग्यवाद की उल्टी विचारधारा जब से चल पड़ी है तभी से इसका पतन आरम्भ हो गया। जब तक वह अपने यथार्थ जीवन-दर्शन कर्मवाद पर विश्वास करता और उसका आचरण करता रहा संसार में सर्वश्रेष्ठ स्थान का अधिकारी बना रहा। भारत का सारा आध्यात्मिक दर्शन ही कर्म पर आधारित है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उपलब्धियों को पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त करने का निर्देश किया गया है। मनुष्य के लिये यदि भाग्य की कोई सत्ता रही होती तो निश्चय ही तत्व एवं त्रिकालदर्शी ऋषि उपने अनुयायियों को कर्म का उपदेश न करते। रूस, अमेरिका, जापान, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों को उन्नति किये हुए बहुत दिन नहीं बीते। कतिपय दशाब्दियों में ही वे उन्नति के शिखर पर जा पहुँचे। जिन दिनों वे अवनति के अन्ध गर्त में पड़े हुये थे, आज के भारत के समान ही वे भी भाग्य, दैव डडडड अदृष्टवादी थे। न जाने कितने अकर्मण्यता जनक अन्धविश्वास उन्हें घेरे हुए थे। किन्तु जब उन्होंने आँख खोलकर अपनी दुर्दशा पर विचार किया और भाग्यवाद का परित्याग कर कर्मवादी को अपनाया, उन्नति करते देर न लगी।

भारत में भाग्यवाद की विचारधारा चल पड़ने के कारणों की खोज करने पर दो कारण समझ में आते हैं— एक तो अज्ञान और दूसरा विदेशी आक्रमणकारियों का षडयन्त्र। अज्ञान एक प्रकार का अन्धकार है। जिस भाँति अन्धकार में वस्तुस्थिति का वास्तविक ज्ञान नहीं हो पाता अज्ञान भी किसी बात को ठीक से समझने और उसकी तह तक जाने नहीं देता। अज्ञानान्धकार से ग्रस्त व्यक्ति की विचार एवं कार्य-पद्धति सर्वथा विपरीत विचारधारा को ही कहा जाना चाहिए। अविद्या जन्य अज्ञान के कारण भारतवासियों में बहुत समय से विचार-निर्णय मिट गया है और वे वास्तविकता को छोड़कर अवास्तविकता पर विश्वास करने लगे हैं।

अज्ञान को आर्य पुरुषों ने पाप बतलाया है और इसीलिये ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का उद्घोष किया है। अज्ञान एक भय है, नरक की परिस्थितियों को ले जाने वाला है, इसलिये—’मनुष्य को अन्धकार अर्थात् अज्ञान से विरत्त होकर प्रकाश अर्थात् ज्ञान की ओर चलना चाहिए।’ ऋषियों ने अज्ञान से निकलने और ज्ञान को प्राप्त करने को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना है। पुरुषार्थ ही वह उपाय है जिसके बल पर भौतिक ही नहीं अपवर्ग सुखों तक को प्राप्त किया जा सकता है। लोक से लेकर परलोक तक की किसी भी उपलब्धि को पुरुषार्थ के बिना नहीं पाया जा सकता है। अर्थ विकास से लेकर आत्म-विकास तक की सारी सम्भावनाएँ पुरुषार्थ पर ही निर्भर हैं।

कर्मवादी भारतवासियों में भाग्यवाद की विचारधारा को जन्म देने में विदेशी शासकों का बहुत हाथ रहा है उन्होंने देखा कि भारतीयों का ज्वलन्त जीवन-दर्शन जिसमें कि पुरुषार्थ, उत्कर्ष, परमार्थ एवं कर्तव्य की प्रबल निष्ठा सन्निहित है, राजनीतिक दासता की अवस्था में भी उनको आदर्शोर्त्कष की ओर प्रेरित करता जाता है, उनका आत्म-गौरव इतना बढ़ा-चढ़ा है कि वे अपने विदेशी उपासकों को तृण तुल्य भी नहीं समझते। किसी दिन भी उठ कर खड़े हो सकते हैं और बात की बात में हमारी सत्ता को धूल में मिला सकते हैं। इसलिये आवश्यक है कि इन प्रबल पुरुषार्थियों को कोई ऐसी विचारधारा दी जाये जो इनकी चेतना पर अफीम का काम करे। निदान उन्होंने देशद्रोही धर्माधिकारियों को मिलाकर विचार-विमर्श किया और भाग्यवाद की अफीम खोज निकाली।

विदेशी शासकों ने तथाकथित धर्म नेताओं, पंडों, पुजारियों तथा पुरोहितों को, जो कि जन-जीवन में गहराई तक धँसे हुए थे, अधिकाधिक पुरस्कार एवं पारिश्रमिक दे-देकर समाज में भाग्यवाद का विष फैलवाना प्रारम्भ किया। जिसका फल यह हुआ कि कुछ ही समय में भारतवासियों के मस्तिष्क में कर्मवाद के प्रति अविश्वास तथा भाग्यवाद के प्रति आस्था उत्पन्न होने लगी। प्रचार के अनुसार लोग यह समझने लगे कि संसार में जो कुछ होता है वह सब पूर्व निर्दिष्ट ही है। मनुष्य का सुख दुःख, भाव-अभाव, विपत्ति-सम्पत्ति आदि हर परिस्थिति का कारण भाग्य ही है जो कि विधाता द्वारा पहले से ही निश्चित किया हुआ है। इतना ही नहीं जनता शासकों के अत्याचार, अनाचार, शोषण तथा अपहरण को भी अपने भाग्य का दोष समझने और सन्तोषपूर्वक सहने लगी। जिससे शासकों को विद्रोह विप्लव अथवा प्रतिरोध का भय जाता रहा और वह देशवासियों को मनमाने ढंग से सताने तथा लूटने में निःसंकोच रहने लगे। “दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा” ही जब शास्त्रसम्मत उद्घोष बन गया तब जनता उस अत्याचारी जगदीश्वर के विरुद्ध उठकर खड़ी भी क्योंकर होती? जब गुलामी तथा शोषण उसके भाग्य के पूर्व निर्धारित फल थे, जिनको कि बदला नहीं जा सकता था तब उसके लिए प्रयत्न करना ही बेकार था। इस आरोपित भाग्यवाद का फल यह हुआ कि भारतवासी आलसी और अकर्मण्य, कायर और कुँठित होकर अज्ञानपूर्ण जिन्दगी बिताते और हर प्रकार का अपमान एवं अत्याचार सिर झुकाकर सहते रहे। एक लम्बे समय के बाद कुछ चेतना आई। जनता ने संघर्ष करके अपने को राजनीतिक गुलामी से तो मुक्त किया किन्तु दुर्भाग्यवश वह अपनी मानसिक गुलामी तथा अन्धविश्वासों की दासता से अब भी अपने को मुक्त न कर सकी है।

भारतवासियों को अत्याचारियों द्वारा दिये और अज्ञान द्वारा पोषित इस भाग्यवाद का त्यागकर अपने सच्चे आदर्श—कर्मवाद को अपनाना होगा तभी उनकी आर्थिक से लेकर आत्मिक उन्नति सम्भव हो सकेगी अन्यथा नहीं।


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