गौ-रक्षा मनुष्यमात्र का धर्म-कर्तव्य

November 1966

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शास्त्रों में तो गाय को मोक्ष और भगवद्प्राप्ति का दाता कहा गया है। गाय का घृत सर्वोत्तम हवि है, इससे यज्ञ सम्पन्न होता है। यज्ञ से बादल बनते और वृष्टि होती है जिससे तृणादिक अन्न पैदा होता है और मानव-जीवन की सुख-सुविधायें बढ़ती हैं। यज्ञ परमार्थ का पर्यायवाची है, तात्पर्य यह है कि उससे पुण्य बढ़ता है, धन और भोग उपलब्ध होते हैं। इस तरह मनुष्य लौकिक एवं पारलौकिक व प्रेय और श्रेय दोनों साधनाओं को सम्पन्न कर मुक्ति का अधिकारी बनता है। यदि इन बातों को अगम्य बुद्धि मानें तो भी इतना तो है ही कि गाय की उपयोगिता सर्वोच्च है कृषि का सम्पूर्ण भार उसी की पीठ पर है। एक ओर बछड़े देकर और दूसरी ओर स्वास्थ्य का साधन प्रस्तुत कर वह किसान का और इस तरह समाज और राष्ट्र का बड़ा कल्याण करती है।

गाय के दूध की शक्ति , उष्णता, सात्विकता और तेजस्विता के सम्बन्ध में भारतीय तत्ववेत्ता महापुरुष, वैज्ञानिक और संसार के तमाम धर्म एकमत हैं। कहीं कोई विवाद या प्रतिवाद नहीं। सभी ने गाय के दूध को अमृत-तुल्य और परम पोषक पदार्थ माना है। यथा—

यूयं गावो मेदयथा कृशं चिद्श्रींर चित् कृणुथा सुप्रतीकम। भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो वृहद्वो वय उच्यते सभासु।

(अथर्व. 4। 21। 6)

अर्थ—हे गौ माता! तुम्हारा अमृततुल्य दूध दुर्बल व्यक्तियों को बलवान बनाता है, कुरूप को सुन्दर और सुडौल बनाता है। तुम हमारे घरों को मंगलमय रखती हो। हम विद्वानों की सभा में तुम्हारा यशगान करते हैं।

गोक्षीर मनभिष्यन्दि स्निग्धं गुरु रसायनम्। रक्त पित्त हरं शीतं मधुरं रसपाकयोः। जीवनयं तथा वातपित्तघ्नं परमं स्मृतम्॥

—सुश्रुत

अर्थात् गाय का दूध शौच साफ करने वाला, चिकना व शक्तिवर्द्धक और रसायन है। गाय का दूध रक्त तथा पित्त का शमन करता है। शीतल, स्वादिष्ट, आयुबर्द्धक और वात-पित्तहारी सर्व गुणकारी तथा मधुर फल देने वाला है।

“वनस्पति की पोषण-शक्ति का प्रयोग करने पर सिद्ध हुआ है कि गाय के दूध का घी अन्य सब चिकनाइयों व तेलों से— जिनमें वनस्पति भी शामिल है, निश्चित रूप से उत्तम है।”

(कृषि गवेषणा परिषद् का वार्षिक प्रतिवेदन 1950-51)

“पोषण की दृष्टि से भारतवर्ष को सबसे बड़ी आवश्यकता इस समय गाय के दूध की है।”

—सर राबर्ट मैक्कैरिसन

इन सब लाभों को देखकर ही गाँधीजी ने नारा दिया था—”मेरे नजदीक गौवध और मनुष्य-वध एक जैसे हैं, मेरा सारा प्रयत्न गौवध रोकने के लिये है। जो गाय को बचाने के लिए प्राण होम देने के लिए तैयार नहीं वह हिंदू नहीं”। लोकमान्य तिलक का बड़ा भारी स्वप्न था—”स्वराज्य मिलते ही कलम की एक नोंक से एक मिनट में ही गौ-हत्या बन्द हो जायेगी।” रफी अहमद किदवई का कथन है—”गौ-वध निषेध का प्रश्न दीर्घकाल तक स्थगित नहीं रखा जा सकता।” इसके बाद भारतीय संविधान की 48 वीं धारा में भी गौवध निषेध का स्पष्ट उल्लेख है। पर यह दुःख और लज्जा की बात है कि स्वतन्त्र भारत में महात्मा गाँधी की वाणी, लोकमान्य के स्वप्न को पूरी तरह ठुकराया गया। थोड़ी-सी विदेशी पूँजी के लालच के कारण शासन सत्ता द्वारा इस भयानक कुकृत्य को रोका न गया।

भारतवर्ष में केवल खाल और माँस के लिये ही गायें नहीं काटी जाती अब उसका वध गौसल्ले के लिए अधिक किया जाता है। यह गोसल्ला क्या है? इसका थोड़ा इतिहास जान लीजिए। हाथ में रखने वाले कीमती बेग, चमाचम जूते, बेल्ट और सूटकेस आपके पास होंगे पर यह नहीं सोचा होगा कि यह चमड़ा कहाँ से आता है? 1939-40 में पंजाब सरकार की ‘दी बोर्ड आफ इकोनोमिक कमेटी’ ने चमड़े की जाँच करवा कर ‘टैनिंग इण्डस्ट्री इन दी पंजाब’ नाम की पुस्तक प्रकाशित की। उसमें इस गोसल्ले का इस तरह वर्णन है— गर्भिणी भेड़-बकरियों को कत्ल करके या गर्भ गिराकर तथा गर्भिणी गायों को कत्ल करके गर्भस्थ बच्चों की खालें तैयार की जाती हैं। दिल्ली इनकी प्रसिद्ध मंडी है। गाय के बच्चे की खाल को गोसल्ला कहते हैं तथा श्री रोशनलाल जी एम. ए. जिन्होंने यह जाँच की, ने एक व्यापारी के यहाँ 800 गोसल्ले देखे। गोसल्ले का मूल्य गाय की खाल से बीस फीसदी अधिक होता है। मार्च सन् 1937 में देहली में प्रतिदिन इन खालों का औसत 15000 था और 16 कोठियाँ इस व्यापार में लगी थीं।” आज यह व्यापार मद्रास, बम्बई, कलकत्ता आदि बड़े नगरों में भी फैल गया है। यह नृशंस हत्याकाँड हमारे सामने हो रहा है। लार्ड मैकाले का यह कथन—” अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार हो जायगा जिसका रंग हिन्दुस्तानी होगा पर दिल अँग्रेजी” के अनुसार आज लाखों पढ़े-लिखे हिन्दू लोग भी गौवध समर्थक नीति के वकील बन गये हैं। लगभग सारा देख आज गाय के महत्व को भूल चुका है। “ए प्लान एट एकोनोमिक डेवलपमेंट फार इण्डिया” के अनुसार युद्ध से पूर्व कुल राष्ट्रीय आय 22 अरब रुपये थी। प्रसिद्ध विशेषज्ञ डा. राइट की सम्मति से 1935 में 12 करोड़ रुपये की आय केवल पशुओं द्वारा प्राप्त हुई। प्राचीन भारत को एक प्रकार से गौवंश पर तरह आश्रित था पर इन दिनों गायों के महत्व को लोग भूलते जा रहे हैं फलस्वरूप कृषि और उपज का अनुपात निरन्तर घटता चला जा रहा है। पिछले दिनों की तुलना में दूध का ही अनुपात एक चौथाई से भी कम रह गया है।

गाय के दूध में सात्विकता और तेजस्विता की मात्रा अधिक होने से उसका महत्व बहुत अधिक है। अपनी “भोजन” नामक पुस्तक में डाक्टर मकेरिसन ने लिखा है— “भोजन शुद्ध और शक्तिशाली तभी होता है जब उसमें तमाम खनिज पदार्थ हों, गाय के दूध के सिवाय ऐसा कोई भोजन नहीं जिसमें सभी पोषक तत्व ठीक अनुपात में हों।” ‘मिरेकिल्स आफ मिल्क’ में बरनर मैकफेडन ने लिखा है—”यदि तुम हलके और दुर्बल हो तो गाय का दूध तुम्हारी मदद करेगा। यदि कमजोर हो और स्वास्थ्य गिर रहा है तो दूध तुम्हें बल देगा।”

“क्षीरात्परं नास्ति च जीवनम्” दूध से अच्छा और कोई जीवन बढ़ाने वाला पदार्थ नहीं। पर दूध मिलना तभी सम्भव है जब अधिक से-अधिक मात्रा में गायें पाली जाँय, उनके लिये चरागाहों का प्रबन्ध रखा जाये और गायों को वध से बचाया जाय। यह कार्य सरकार को तो करना ही चाहिए मुख्य उत्तरदायित्व तो जनता का है। यदि लोग अन्तःकरण से गाय की उपयोगिता को स्वीकार कर लें और संवर्धन, संरक्षण पर स्वतः ध्यान देने लगें तो न तो सरकारी सहयोग की आवश्यकता रहे न कसाई-खाने चलें। कटने के लिए गायें भी तो जनता ही बेचती है। इसलिए मुख्य रूप से हमारा हृदय परिवर्तन होना चाहिए।

गौवध का प्रश्न आर्थिक ही नहीं नैतिक भी है। कुत्ता पालने वाला वृद्धावस्था में उसे गोली नहीं मार देता। आर्थिक दृष्टि से हमारे वृद्ध माता पिता अनुपयोगी और अनुत्पादक होते हैं फिर भी हम उनका भार प्रेमपूर्वक सहन कर लेते हैं। तो जो गाय जीवनभर हमें सैकड़ों मन दूध देती है, बछड़े देती है और उर्वरा शक्ति बढ़ाने वाली गोबर की खाद समुपलब्ध कराती है उसे मार देना, छोड़ देना या कसाइयों को बेच डालना कृतघ्नता है, अनैतिक है। हमारी सभ्यता और संस्कृति कृतघ्नता तथा नैतिकता प्रधान रही है। गाय उसका प्रमाण रही। हम गान्धी जी के कथन को आज भी नहीं भूलते—”गोरक्षा हिन्दू धर्म की दी हुई दुनिया के लिए बख्शीश है और हिन्दू धर्म भी तब तक रहेगा जब तक गाय की रक्षा करने वाले हिन्दू हैं।”


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