आत्म-कल्याण की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि उपासना

November 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गायत्री-उपासना सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि और अनादि उपासना है। उसका प्रभाव और परिणाम असंदिग्ध एवं संतुलित है। अन्य उपासना-पद्धतियाँ अपने लक्ष्य को प्राप्त करा सकने में असमर्थ हो सकती हैं पर गायत्री-उपासना में ऐसी अड़चन नहीं आती।

उपासना-संसार में यह सबसे अधिक लाभदायक प्रक्रिया है। साँसारिक सुख-सुविधाओं के उपार्जन की दृष्टि से स्वास्थ्य, शिक्षा, कुशलता, सम्पत्ति, मित्रता आदि की उपयोगितायें लोगों ने समझ ली हैं और उनके उपार्जन का प्रयत्न भी करते हैं, पर ऐसे कम ही लोग हैं जिन्होंने आत्मबल द्वारा प्राप्त हो सकने वाली विभूतियों का मूल्याँकन किया हो और उनको उपार्जन करने के लिए उपासना की पद्धति को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से अपनाया हो।

भारतीय धर्म-शास्त्रों का मर्म, ऋषियों का अनुभव महापुरुषों के कार्यक्रम को जब उपासना-अन्वेषण की से देखा जाता है तो उसमें गायत्री-उपासना ही सर्वोत्तम ठहरती है। सन्ध्या-वन्दन की कोई भी प्रणाली क्यों न हो, गायत्री-उपासना का उसमें अनिवार्य स्थान है। वेद भारतीय धर्म के मूल आधार हैं और उनका बीज मन्त्र एकमात्र गायत्री है। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चार वेद बने हैं। गुरुमन्त्र के रूप में प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का एक ही अवलम्बन है— गायत्री मन्त्र। इस सुनिश्चित तथ्य को ध्यान में रखते हुए कोई वेद-धर्म अनुयायी और कोई मार्ग अपना भी नहीं सकता। खोज और अनुभूतियों के आधार पर हमने जो एकमात्र मार्ग पाया उस पर क्रमबद्ध रूप से चलते रहे। यही कारण है कि उस मार्ग पर चलते हुए इतना कुछ पाया है जिसके आधार पर सन्तोष, आनन्द, एवं उल्लास अनुभव किया जा सके।

उपासना मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट व्यवसाय है। अन्य व्यवसायों में जितना मनोयोग, जितना श्रम, जितना समय और जितना साधन लगाया जाता है, उतना ही यदि उपासना में लगाया जाता तो अपेक्षाकृत असंख्य गुना लाभ उठाया जा सकता है।

अध्यात्म भी भौतिक विज्ञान की तरह ही एक सर्वांगपूर्ण शास्त्र है और उसका लाभ तभी उठाया जा सकता है जब व्यवस्थित जानकारी तथा क्रिया प्रणाली अपनायी जाय।

संसार में अन्य समस्त क्रिया-कलापों की तरह उपासना भी (1) सिद्धाँत और (2) व्यवहार इन दो भागों में विभक्त है । यह दोनों ही पहलू एक दूसरे से अन्योन्याश्रय सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरा पहलू अधूरा है। डॉक्टर आपरेशन करने की कला सीखता है—फोड़ा कहाँ से, कैसे, किस औजार से, कितना चीरा जाना चाहिए और उसके बाद उस पर क्या लगाना चाहिए—यह समझता है। पर इतने मात्र से ही वह अपने व्यवसाय में कुशल नहीं हो जाता। उसे फोड़ा उत्पन्न होने का कारण, उसकी किस्में तथा पकने-फूटने की सैद्धान्तिक जानकारी भी होनी ही चाहिए। जो सिद्धान्तों से उपेक्षित है, केवल व्यवहार जानते हैं, वह अनाड़ी डॉक्टर अपने व्यवसाय में सफल नहीं हो सकता। व्यापारी, किसान, शिल्पी आदि सभी वर्गों के लोग हाथ-पैर से क्या-क्या करना होगा, यह जानते हैं पर उतने से ही उनका काम नहीं चल जाता। व्यापारी को व्यावसायिक सिद्धाँत, किसान को पौधों की क्रियाप्रणाली, शिल्पी को अपने विषय की आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी होती है, यदि वह ऐसा न करे तो मशीन मात्र रह जाएगा।

एक इंजीनियर और एक साधारण कुली में इस जानकारी का ही अन्तर होता है। कुली भी बताने पर हाथ-पैर से वही कार्य कर सकता है जो इंजीनियर के हाथ पैर करते हैं। कई बार तो कुली अपेक्षाकृत अधिक मेहनत भी कर सकता है पर इंजीनियर जितना ज्ञान न होने के कारण उसे वह श्रेय नहीं मिलता जो इंजीनियर को। अनपढ़ किसान की अपेक्षा एक कृषि-स्नातक खेती में अधिक लाभ ले सकता है। सैद्धान्तिक शिक्षा के अभाव में व्यवहार मात्र से जो लाभ मिलेगा वह नगण्य ही होगा। उपासना क्षेत्र में भी ऐसा ही विधान है। उपासक को पूजापाठ के नियम जानकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए वरन् उसके सिद्धान्त, आदर्श, तथ्य एवं स्वरूप को भी समझना चाहिए। जो आवश्यकता को अनुभव करते हैं और उसे पूरा करने में संलग्न रहते हैं उनकी साधना असंदिग्ध रूप से सफल होती है। किन्तु जो केवल कर्मकाँड सीखकर ही सन्तुष्ट हो बैठते हैं उनके हाथ यदि कुछ पड़े भी तो वह बहुत ही स्वल्प होता है।

वेद ज्ञान और विज्ञान के भाँडागार हैं। संसार का समस्त प्रकट और अप्रकट ज्ञान वेदों में भरा पड़ा है। इन वेदों का बीज गायत्री महामन्त्र है। जिस प्रकार विशाल वट वृक्ष एक छोटे से बीज की ही प्रतिकृति होती है उसी प्रकार वेदों में सन्निहित सारी शिक्षायें तथा सारी विद्यायें बीज रूप से गायत्री महामन्त्र में विद्यमान हैं।

इन 24 अर्थों में सूत्र रूप से समाविष्ट प्रेरणाओं और शिक्षाओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार और मनन-चिन्तन किया जाये तो लगता है कि विश्व के समस्त धर्म ग्रन्थों एवं नीति शास्त्रों का निचोड़ इन थोड़े से अक्षरों में—गागर में सागर की तरह भर दिया गया है। व्यक्ति एवं समाज की सर्वतोमुखी—सर्वकालीन—समस्त समस्याओं का हल—समस्त उलझनों का समाधान इस महामन्त्र की मूल शिक्षाओं से मिल सकता है। यह चौबीस शब्द इतने सारगर्भित हैं कि ऋषियों को उनकी विवेचना, व्याख्या करने के लिए चार वेदों का अवतरण प्रस्तुत करना पड़ा।

प्राचीन काल में ऋषियों ने गायत्री के तत्व ज्ञान की गम्भीरतापूर्वक शोध की थी और इस गहन समुद्र में गहराई तक प्रवेश करके ज्ञान-विज्ञान की अतुलित रत्न राशि का लाभ लिया था। विश्वामित्र तो उसी के विशेष ऋषि कहलाये। उन्होंने स्वयं और अपने सहचरों सहित इस महाविद्या के रहस्यों को जानने के लिए समस्त जीवन खपाया। और उनने जो पाया उसका लाभ समस्त आध्यात्मिक जगत ने उठाया।

वेदों में ज्ञान भी है और विज्ञान भी। हृदय अक्षरों में से प्रस्फुटित होने वाली शिक्षा मनुष्य-समाज की भौतिक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करती है, सुख-शाँतिमय जीवन बिताने का प्रभावपूर्ण मार्गदर्शन करती है। यदि कोई उस प्रकाश का अवलम्बन लेकर अपने कदम उठाता चले तो आनन्द और उल्लास भरा वैसा ही स्वर्गीय जीवन जी सकता है, जैसा कि जीने के लिए यह मानव प्राणी इस वसुधा पर अवतीर्ण हुआ है।

गायत्री में सन्निहित विज्ञान तो इतना महान है कि वर्तमान भौतिक विज्ञान के समस्त चमत्कार उसकी तुलना में तुच्छ ठहराये जा सकते हैं। बेशक, पिछली दो सदियों में भौतिक विज्ञान ने बहुत उन्नति की है। एक-से-एक बढ़कर सिद्धान्तों, यन्त्रों और सुविधा-साधनों का आविष्कार करके एक चमत्कार उत्पन्न किया है। भविष्य में उसकी और भी अधिक उन्नति संभावित है पर साथ ही यह भी निश्चित है कि अध्यात्म विज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता भौतिक विज्ञान की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है।

भारत पूर्वकाल में विज्ञान के उच्च शिखर पर जा पहुँचा था। उसके गौरव को विश्व में सर्वोपरि बनाने में इस विज्ञान को ही श्रेय था। दिव्य अस्त्र-शस्त्र, शरीरों में अकूत बल, धन-समृद्धि का इतना बाहुल्य कि स्वर्ण-कलश हर घर पर रखे हों, अभूत आत्म-बल और आन्तरिक शक्तियों के बल पर अभीष्ट परिस्थितियाँ तथा साधन सामग्री उत्पन्न कर सकने की क्षमता हमारे पूर्वजों की विशेषतायें थीं। जहाँ वेद, ब्रह्मविद्या एवं अध्यात्म तत्वज्ञान के आधार पर, भावनात्मक स्तर पर देवताओं जैसे पवित्र बनकर इस धरती पर स्वर्ग अवतरण कराने में सफल हुए थे, वहीं उनने विज्ञान के आधार पर प्रत्येक प्रकार की समृद्धियाँ भी अर्जित की थीं। यही कारण है। कि इस धरती के समस्त निवासियों ने उन्हें भूसुर, धरती के देवता कह कर सम्मानित किया था, जगद्गुरु एवं चक्रवर्ती शासन के महान उत्तरदायित्वों को सौंपा था और जीवन की प्रत्येक दिशा में उनका नेतृत्व स्वीकार किया था। यह उनके विज्ञान की ही महिमा थी।

वह विज्ञान आज जैसा न था जो महंगी तथा आये दिन टूटती-फूटती रहने वाली और निकम्मी हो जाने वाली मशीनों के आधार पर चलता है। तेल, कोयला, पेट्रोल, बिजली आदि ईंधन इस दुनिया में बहुत कम हैं। जिस गति से वैज्ञानिक प्रयोजनों में—कल कारखानों तथा विभिन्न मशीनों में खर्च हो रहा है, उसे देखते हुये यह सब सामग्री सौ डेढ़-सौ वर्षों में समाप्त हो सकती है और तब आज का यह यन्त्रवादी विज्ञान बेमौत मर सकता है। भारतीय तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने—ऋषियों ने—जिस विज्ञान का आविष्कार किया था वह यन्त्रों पर नहीं मन्त्रों पर आधारित था। मानव शरीर हाड़-माँस का पुतला ही नहीं है वरन् उसमें एक से एक बढ़कर चमत्कारी शक्ति केन्द्र प्रसुप्त अवस्था में पड़े हैं। षट्चक्र, 24 उपचक्र, 52 उपत्यिकायें, 108 ग्रन्थियाँ और ब्रह्मरंध्र की सहस्र का केशिक स्फुरणायें उतनी शक्ति तत्वों से ओत-प्रोत है कि यदि उनमें से थोड़ी सी जागृत की जा सके तो इतनी बड़ी उपलब्धियाँ हाथ में आ सकती हैं जिनकी तुलना में वर्तमान विज्ञान की भौतिक उपलब्धियाँ नगण्य एवं तुच्छ ही सिद्ध होंगी। प्राचीन काल में ऋषि, महर्षि अपने शरीरों की प्रयोगशाला में ऐसे ही परीक्षण किया करते थे, योगाभ्यास के द्वारा जो ऋषियाँ और सिद्धियाँ उपलब्ध करते थे, उनके चमत्कारों का आधार कोई जादू नहीं वरन् यह आत्म विज्ञान ही होता था। वेदों में इस प्रकार के आत्म विज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।

वेदों में वर्णित विज्ञान की क्षमता का पता लगाने के लिये जर्मन सरकार ने कुछ समय पूर्व महत्वपूर्ण प्रयत्न किया। जर्मन प्रोफेसर मैक्समूलर भारत आये थे और यहाँ के वेद-विद्वानों की सहायता से उन्होंने ऋग्वेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था। इस शोध कार्य के लिये जर्मन सरकार ने लाखों रुपया खर्च किया था। इसके बाद ही जर्मनी ने इतनी बड़ी वैज्ञानिक उन्नति की कि वह थोड़े ही समय में समस्त विश्व में चक्रवर्ती शासन स्थापित करने के सपने देखने लगा। पिछले दो महायुद्ध उसी ने आरम्भ किए। अपनी शक्ति का ठीक अन्दाज ना लगा सकने के कारण वह परास्त तो अवश्य हुआ, पर अपनी उपलब्धियों के कारण वह संसार भर के लिये आज भी एक आश्चर्य एवं रहस्य बना हुआ है। अणु विज्ञान का आविष्कार सबसे प्रथम उसी ने किया था और देशों ने तो पीछे उसी के आविष्कार का लाभ उठाया है।

वेदों की ऋचाओं में सूत्र रूप से समाविष्ट आत्म विज्ञान की महत्ता का क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसकी जितनी भी शोध एवं साधना की जा सके उतना ही कम है। प्राचीन काल में इस दिशा में बहुत बड़ी प्रगति की थी, पर यह न समझना चाहिये कि उसमें आगे बढ़ने की गुंजाइश न थी। आगे और भी बहुत कुछ हो सकता था और मनुष्य देवताओं की तरह अजर-अमर बन कर इस धरती को स्वर्ग बना सकता था। यदि उसके हाथ में वेदों से सन्निहित समस्त विज्ञान हाथ लग जाता तो। पर संसार चक्र परिवर्तनशील है। हम उत्थान से विमुख होकर पतन के गर्त में गिरे और उन पूर्व उपलब्धियों को गँवा बैठे। यदि उस विज्ञान से हम वंचित न हो गये होते तो इस दयनीय दुर्दशा में असहायों की तरह पड़े संत्रस्त न हो रहे होते।

ऊपर की पंक्तियों में जिस आत्म विज्ञान की चर्चा की जा रही है वह वेद के दो अंगों में से—ज्ञान-विज्ञान में से—एक प्रमुख तत्व है। यह प्रथम ही कहा जा चुका है कि गायत्री वेदों का बीज मन्त्र है। किसी पेड़ में जो विशेषतायें और सम्भावनायें होती हैं वे सब छोटे से बीज में सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती हैं। मनुष्य की उतनी विशेषताओं वाला शरीर एवं मन अत्यन्त सूक्ष्म रूप से वीर्य कण के एक छोटे से बीज पिंड में मौजूद रहता है। ठीक इसी प्रकार वेदों में वर्णित विविध वैज्ञानिक उपलब्धियाँ गायत्री महामन्त्र के थोड़े से बीज रूप में भरी पड़ी है। इस महाशक्ति की जो ठीक तरह साधना कर सकता है वह अनुपम स्तर का शक्तिवान् बन सकता है। इतिहास पुराणों में ऐसे असंख्यों प्रसंगों का उल्लेख है जिनसे सिद्ध होता है कि गायत्री उपासना का लाभ अद्भुत, आश्चर्यजनक एवं अलौकिक कहे जाने जितना ही होता है।

शास्त्रकारों ने गायत्री की सर्वोपरि शक्ति, स्थिति और उपयोगिता को एक स्वर में स्वीकार किया है। इस संदर्भ में पाये जाने वाले अगणित प्रमाणों में से कुछ नीचे प्रस्तुत हैं—

सर्वेषाँ जप सूक्तानाँ ऋचाश्च यजुषाँ तथा। साम्नाँ चैकाक्षरादीनाँ गायत्री परमो जपः।

—बृहत् पाराशर स्मृति

अर्थ—समस्त जप सूत्रों मे—समस्त वेद मन्त्रों में—एकाक्षर बीज मन्त्रों में—गायत्री ही सर्वश्रेष्ठ है।

इति वेद पवित्राण्य भिहतानि एभ्य सावित्री विशिष्यते।

—शंख स्मृति

अर्थ—यों सभी वेद मन्त्र पवित्र हैं पर इन सब में गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है।

सप्त कोटि महामन्त्रा, गायत्री नायिका स्मृता। आदि देवा ह्य पासन्ते गायत्री वेद मातरम्॥

—कूर्म पुराण

अर्थ—गायत्री सर्वोपरि—सेनानायक के समान है। देवता इसी की उपासना करते हैं। यही चारों वेदों की माता है।

तदित्यृचा समोनास्ति मन्त्रो वेद चतुष्टये। सर्ववेदश्च यज्ञाश्च दानानि च तपाँसि च। समानि कलया प्राहुर्मुनयो न तदित्यृचः।

—याज्ञवल्क्य

अर्थ—गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मन्त्र नहीं है। समस्त वेद, यज्ञ, दान, तप मिलकर भी गायत्री की एक कला के बराबर भी नहीं हो सकते, ऐसा ऋषियों ने कहा है।

दुर्लभा सर्व मन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता। न गायत्र्याधिकं किंचित् वधीषुपरिगीयते।

—हारीत

अर्थ—इस संसार में गायत्री के समान परम समर्थ और दुर्लभ मन्त्र कोई नहीं है। वेदों में गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।

नास्ति गंगा समं तीर्थ न देवः केशवात्परः। गायत्र्यास्तु परं जाप्यं न् भूतं न भविष्यति।

—अत्रि

अर्थ—गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं, केशव के समान कोई देवता नहीं। गायत्री से श्रेष्ठ कोई जप न कभी हुआ है और न आगे होगा।

गायत्री सर्व मन्त्राणाँ शिरोमणिस्तथा स्थिता। विधानामपि तेनैताँ साधनेर्त्सव सिद्धये॥ त्रिव्याहृति युताँ देवीमोंकार युगसम्पुटाम्। उपास्यचतुरो वर्गान्साधयेद्योन सोऽन्धधीः॥ देव्या द्विजत्व मासाद्य श्रेयसेन्यरतास्तु ये। ते रत्नाभिववाँछन्ति हित्वा चिंतामणि करात्॥

—महा वार्तिक

अर्थ—गायत्री सब मन्त्रों तथा सब विद्याओं में शिरोमणि है। उससे सब इन्द्रियों की साधना होती है। जो व्यक्ति इस उपासना के द्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों को प्राप्त करने से चूकते हैं वे मन्दबुद्धि हैं। जो द्विज गायत्री मन्त्र के होते हुए भी अन्य मन्त्रों की साधना करते हैं वे ऐसे ही हतभागी हैं जैसे कि चिन्तामणि को फेंककर छोटे-छोटे चमकीले पत्थर ढूँढ़ते फिरने वाले।

यथा कथं च जप्तैषा त्रिपदा परम पावनी। सर्वकामप्रदा प्रोक्ता विधिनाकिं पुनतृय।

—विष्णु धर्मोत्तर

अर्थ—हे राजन! जैसे-तैसे उपासना करने वाले की भी गायत्री माता कामना पूर्ण करती है, फिर विधिवत साधना करने के सत्परिणामों का तो कहना ही क्या है।

पुण्यं सूते दुष्कृतं य हिनास्ति। शुद्धाँ शान्ताँ मातरं मंगलानाँ धेनुँ धीराँ गायत्री मन्त्र माहुः॥

—वशिष्ठ

अर्थ—गायत्री कामधेनु के समान मनोकामनाओं को पूर्ण करती है, दुर्भाग्य, दरिद्रता आदि कष्टों को दूर करती है, पुण्य को बढ़ाती है, पाप का नाश करती है। ऐसी परम शुद्ध—शाँतिदायिनी, कल्याणकारिणी महाशक्ति को ऋषि लोग गायत्री कहते हैं। वस्तुस्थिति से अपरिचित रहने के कारण लोग कम महत्व के कामों में उलझे रहते हैं और अधिक महत्व के—अधिक उपयोगी एवं अधिक लाभदायक कार्यों की उपेक्षा करते रहते हैं। चमकीले काँच के बदले में धुँधले दिखाई पड़ने वाले हीरे को दे बैठने वाले बालक की तरह हम भी यही करते हैं। चन्दन के पेड़ के कोयले बनाकर बेचने वाले अज्ञानी लकड़हारे की तरह हम भी यही करते हैं कि इन्द्रियों की खुजली मिटाने वाली तुच्छ विलास सामग्री प्राप्त करने और धन-संचय की तृष्णा-लिप्सा शाँत करने के बहाने उसे दूने-चौगुने वेग से भड़काने की विडंबना में लगे रहते हैं। सुख की आकाँक्षा से की गई और सारी बाल-क्रीड़ायें आँख खुलने पर उपहासास्पद मूर्खता सी प्रतीत होती हैं। इन तुच्छ कार्यों में हम इतने तन्मय हो जाते हैं कि आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास जैसे महत्वपूर्ण कार्य का ध्यान ही नहीं रहता। बुद्धिमान कहे जाने वाले मानव प्राणी की इस मूर्खता की भर्त्सना जितनी भी की जाय कम है।

दूरदर्शिता इस बात में है कि लाभदायक, अधिक श्रेयस्कर एवं अधिक उपयोगी प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जाये। भौतिक सुख-सुविधाओं को शरीर मात्र की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर घटाया जाना चाहिए। उनके लिये उतना ही समय देना चाहिए, उतना ही श्रम करना चाहिए जितना कि नितान्त आवश्यक है। शेष बची हुई क्षमता का उपयोग आत्म-बल बढ़ाने की प्रक्रिया में करना चाहिए। आत्मबल सबसे बड़ा बल है। उसके आधार पर जो विभूतियाँ उपलब्ध की जा सकती हैं वे भी इतनी महान हैं कि भौतिक जगत की समस्त सुविधायें मिलकर भी उनकी तुलना में हेठी पड़ती हैं।

गायत्री-उपासना से मानव के शरीर में सन्निहित अगणित संस्थानों में से कितने ही जागृत एवं प्रखर हो चलते हैं। इस जागृति का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व को समान रूप से विकसित होने में सहायक सिद्ध होता है।

व्यायाम से शरीर पुष्ट होता है, अध्ययन से विद्या आती है, श्रम करने से धन कमाया जाता है, सत्कर्मों से यश मिलता है, सद्गुणों से मित्र बढ़ते हैं। इसी प्रकार उपासना द्वारा अन्तरंग जीवन में प्रसुप्त पड़ी हुई अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शक्तियाँ सजग हो उठती हैं और उस जागृति का प्रकाश मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक विशिष्टता का रूप धारण करके प्रकट करती हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। गायत्री-उपासक में तेजस्विता की अभिवृद्धि स्वाभाविक है। तेजस्वी एवं मनस्वी व्यक्ति स्वभावतः हर दिशा में सहज सफलता प्राप्त करता चलता है।

मानवीय मस्तिष्क में जो शक्ति-केन्द्र भरे पड़े हैं उनका पूरी तरह उपयोग कर सकना तो दूर, अभी मनुष्य को उनका परिचय भी पूरी तरह नहीं मिला है। मनोवैज्ञानिकों को अंतर्मन की जितनी जानकारी अभी तक विशाल अनुसन्धानों के बाद मिल सकी है उसे वे दो प्रतिशत के लगभग ही मानते हैं। प्रसुप्त मन की 98 प्रतिशत जानकारी प्राप्त करना अभी शेष है। इसी प्रकार शरीर शास्त्री डॉक्टरों ने बाहरी मस्तिष्क का केवल 8 प्रतिशत ज्ञान प्राप्त किया है शेष के बारे में वे भी अभी अनजान हैं मस्तिष्क सचमुच एक जादू का पिटारा है। इसमें सोचने-समझने की क्षमता तो है ही, साथ ही उसमें ऐसे चुम्बक तत्व भी हैं जो अनन्त आकाश में भ्रमण करने वाली अद्भुत सिद्धियों एवं सफलताओं को अपनी ओर खींचकर आकर्षित कर सकते हैं, सूक्ष्म जगत में अपने अनुकूल वातावरण बना सकते हैं। जिन व्यक्तियों के साथ अपनी कामना-आकाँक्षा का सम्बन्ध है उन पर ऐसा प्रभाव डाला जा सकता है कि उसे हमारे अनुकूल गतिविधि ही अपनानी पड़े। गायत्री उपासना के द्वारा उपासक में ऐसे ही मानसिक चुम्बक तत्व सक्रिय हो उठते हैं। मनोबल बढ़ने से ऐसी विद्युत धारा अंतर्मन के प्रसुप्त क्षेत्रों में गतिशील हो जाती है कि अब तक अपने प्रयोजन में आया हुआ मस्तिष्कीय चुम्बक सक्रिय हो उठता है और वे उपलब्धियाँ सामने लाकर खड़ी कर देता है जिन्हें आमतौर से सिद्धियाँ, विभूतियों का वरदान एवं दैवी सहायता कहा जा सके।

अजगर की इच्छा शक्ति उसकी आँखों में होकर बाहर देखती है तो उड़ते हुए पक्षी रुक जाते हैं और खिंचते हुए उसके शिकार बनकर नीचे खिंचकर चले आते हैं। शेर या भेड़िये के शरीर से निकलने वाला प्रभाव उनके शिकार को अनायास ही हक्का-बक्का कर देता है और समीप पहुँचने पर तो बेचारे छोटे जानवर बोलना-चालना तक भूल जाते हैं। मनुष्य का मनोबल अजगर और सिंह से असंख्य गुना है। गायत्री-अनुष्ठान के लिये विधि-विधान द्वारा बढ़ाने वाले मनोबल द्वारा यदि वह सक्रिय हो उठे तो अभीष्ट सफलतायें प्राप्त कर सकने की परिस्थितियाँ निर्मित या उपलब्ध कर सकना उसके लिये अधिक कठिन नहीं रहता।

उपासना में बरती गई तपश्चर्या से द्रवित होकर गायत्री माता ने अमुक सिद्धि या सफलता प्रदान की—यह भावुक भक्त का दृष्टिकोण है। इसी तथ्य का वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि कठोर नियम, प्रतिबन्धों का पालन करने में जो प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ी, उसने मनोबल का विकास किया। उसने अंतर्मन के प्रसुप्त शक्ति-केन्द्रों का चुम्बकत्व जगाया और उसी जागरण ने अभीष्ट सफलतायें खींचकर सामने ला खड़ी कर दीं। मनुष्य अपने आप में एक देवता है। उसके भीतर वे समस्त दैवी शक्तियाँ बीज रूप विद्यमान रहती हैं जो इस विश्व में अन्यत्र कहीं भी हो सकती हैं। अन्यत्र रहने वाले देवता अपनी निर्धारित जिम्मेदारियाँ पूरी करने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यक्तिगत कामों में इतनी अधिक दिलचस्पी नहीं ले सकते कि अगणित उपासकों या भक्तों की अगणित प्रकार की समस्याओं के सुलझाने में संलग्न हो सकें। हमारी समस्याओं को हल करने की क्षमता हमारे अपने भीतर रहने वाले देवता में ही होती है और उसी को किसी अनुष्ठान द्वारा सशक्त एवं गतिशील बना करके साधक को अपना प्रयोजन वस्तुतः आप ही पूरा करना पड़ता है।

गायत्री-उपासना मनुष्य-जीवन को बहिरंग एवं अन्तरंग दोनों ही दृष्टियों में समृद्ध और समुन्नत बनाने का राजमार्ग है। बाह्य उपचार से बाह्य जीवन की प्रगति होती है, पर अन्तरंग विकास के बिना उसमें पूर्णता नहीं आ पाती। बाहरी जीवन की विशेषताएँ छोटा-सा शोक, सन्ताप, रोग, कष्ट, अवरोध एवं दुर्दिन सामने आते ही अस्त-व्यस्त हो जाती हैं, पर जिस व्यक्ति के पास आन्तरिक दृढ़ता, समृद्धि एवं क्षमता है वह बाहर के जीवन में बड़े से बड़ा अवरोध आने पर भी सुस्थिर बना रहता है और भयानक भँवरों को चीरता हुआ अपनी नाव पार ले जाता है। भौतिक समृद्धि और आत्मिक शाँति के लिए उपासना की वैज्ञानिक प्रक्रिया अचूक साधना है और कहना न होगा कि उपासनाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि एकमात्र गायत्री महामन्त्र की उपासना ही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118