देखने में आता है कि सुख-स्वास्थ्य, दूध-पूत, धन-दौलत, यश-मान सभी कुछ होते हुए भी अधिकाँश व्यक्ति दुःखी रहते हैं। कोई विरले व्यक्ति होंगे, जो परिवार के कीचड़ में फंस कर भी कमल की तरह उससे अलिप्त और अप्रभावित रहते हों। तब क्या नानकजी की यह वाणी सत्य है कि ‘नानक दुखिया सब संसार।’ किसी ज्ञानी ने सुख की परिभाषा इन शब्दों में की है- “इस सृष्टि में दुःख ही व्यापक है। दुःख के अभाव को ही सुख कहना उचित होगा।”
तब तो यह मानकर ही चलना अधिक कल्याणकर होगा कि सुख तो दो दिन का साथी है असल में दुःख ही चिरसंगी है। इस चिरसंगी के साथ जो व्यक्ति समझौता करना जानता है, उसे दुःख गहराई तक प्रभावित नहीं कर पाता। मनुष्य जीवन की सार्थकता इन साँसारिक रगड़े-झगड़े से ऊपर उठने में है, नहीं तो ये आप पर हावी हो जायेंगे। आपको पराजित कर आपकी आत्मिक शक्ति को मरोड़कर रख देंगे।
दुःख के मूल कारण माने जाते हैं अभाव, प्रियजन की मृत्यु, बीमारी, कुरूपता, शारीरिक बल की कमी, प्रेम में असफलता, ईर्ष्या, घृणा और डर की बातें।
उपर्युक्त परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति विभिन्न प्रकार से हो सकती है। किसी व्यक्ति के लिए अभाव का मतलब है जीवन की दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के साधनों की कमी। संतोषी मनुष्य भगवान से केवल इतना ही माँगकर सन्तुष्ट है कि-
साई इतना दीजिए, जामें कुटुम समय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, अतिथि ना भूखा जाय॥
जब कि ठीक इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं कि सब कुछ पाकर भी तृष्णा के शिकार बने रहते हैं। उनकी ‘हाय और’ ‘हाय और’ की पुकार कभी बन्द ही नहीं होती। दुर्बल हृदय व्यक्ति को यदि जरा-सा जुकाम भी हुआ या 66 डिग्री भी बुखार हुआ तो वह दिन में दस बार अपनी नब्ज़ देखेगा और इसी चिन्ता में परेशान रहेगा कि शायद अब उसे निमोनिया होने जा रहा है, जब कि दूसरों की चिन्ता में रत परोपकारी व्यक्ति अपना दुःख दर्द भूलकर बीमारी और अभावों में भी सेवा कार्य करते देखे गए हैं। जीवन में असफलता दृढ़ निश्चयी को आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी, जब कि एक निराशावादी को जीवन में मामूली-सी असफलता भी आत्मघात करने की हद तक पागल बना सकती है।
इससे यह प्रमाणित होता है कि प्रतिकूल परिस्थितियों को हम वास्तव में दुःख का कारण नहीं कह सकते। असल में यह प्रत्येक मनुष्य की अपनी-अपनी समझ, परख और जीवन के प्रति दृष्टिकोण है, जो कि अभाव, असफलता ओर प्रतिकूल परिस्थितियों को दुःख की संज्ञा देता है। अब देखना यह है कि क्या धन-दौलत, स्वास्थ्य, सौंदर्य, सन्तान, भोग-विलास आदि मनुष्य के जीवन को सुख, शान्ति और सन्तोष से भर देने में समर्थ है? क्या इनके द्वारा दुःख से छुटकारा मिल सकता है?
कर्मशील व्यक्ति के लिए तो धन हाथ का मैल है। उस को यदि कार्य में सफलता मिलती है तो यही उसका पुरस्कार है। हाँ, मेरा बैंक-बैलेन्स दिन पर दिन बढ़ रहा है और मेरा परिश्रम धन के रूप में साकार हो रहा है, यह जान कर चाहे उसे आत्म-सन्तुष्टि हो, पर क्या वह स्वअर्जित अपार धन राशि को भोगने में खुद समर्थ है? पुरुष पुरातन की वधू लक्ष्मी चंचला है। अगर धन बंटता नहीं और उसे होनहार पुरुषार्थियों का संरक्षण प्राप्त नहीं होता तो वह जरूर नष्ट हो जाता है। धन मनुष्य को निर्णय, अधिकार से अन्धा और दंभी बना देता है। अमीरों और धनियों की अपनी मुसीबतें हैं। हरदम उन्हें अपने धन की रक्षा की चिन्ता बनी रहती है। आगे इसको संभालने वाला सुयोग्य वारिस होना चाहिए इसी चिन्ता में वे घुलते रहते हैं। निन्यानवे के फेर में पड़कर वे धन का सदुपयोग ही भूल जाते हैं। धन का बढ़ता हुआ ढेर ही उनके जीवन की चिन्ताओं का मूल कारण बन जाता है। धन साधन न होकर जीवन का ध्येय बनकर रह जाता है।
अब लीजिए स्वास्थ्य को। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ‘तन्दुरुस्ती हजार न्यामत है और सुन्दर तथा सुडोल काया एक वरदान है, पर यह भी तो चिरस्थायी नहीं है। कई बूढ़े पंगु भी अपने में मस्त और सुखी पाये गये हैं जब कि बड़े-बड़े पहलवान, नौजवान और रूपगर्विता नारियाँ भी किसी रोग या दुर्घटना का शिकार होकर अपना महत्व खो बैठते हैं। सभी स्वस्थ पुरुष सुखी तो नहीं होते और न सभी आकर्षक सुन्दरियाँ पति की प्यारी ही होती है। जो वस्तु अपने को प्राप्य न हो उस ओर प्यारी ही होती हैं। जो वस्तु अपने को प्राप्य न हो उस ओर मनुष्य लपकता है। सुन्दरी युवती का पति भी दूसरी स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होता देखा गया है।
युवावस्था में मित्रता, घनिष्ठता, विश्वास और भावुकता मिलकर प्रेम का रूप ले लेते हैं। मैं किसी का हो जाऊँ किसी को अपना बना लूँ यह लालसा प्रेमी को दीवाना बना देती है। प्रेमिका के बिना उसे दुनिया सुनी लगती है। उसको पाकर वह निहाल हो जाता है। पर थोड़े दिनों में जब प्रेम का खुमार उतर जाता है, जब वे प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे के दोषों की कटु आलोचना करते नहीं थकते। कभी-कभी यौवन का यह उन्माद प्रेम वासना की सुनहली गली को पार करके जब यथार्थता की भूमि पर से गुजरता है तो समझदार प्रेमी-प्रेमिकाएँ अपना सन्तुलन नहीं खोते। एक दूसरे के गुणों की कद्र करते हैं। उनका प्रेम विश्वास और सहयोग का पुट पाकर गम्भीर और स्थायी हो जाता है। यह प्रेम की विजय न होकर उनकी समझदारी जय होती है।
प्रेम में ईर्ष्या या अधिकार की भावना ही दुःख का कारण बनती है। सच्चा प्रेम किसी व्यवसाय में लगाई हुई पूँजी नहीं है कि जिसके बदले में प्राप्ति दिनों दिन बढ़ती जाए, न वह फिफ्टी-फिफ्टी का सौदा ही है। यहाँ तो देने से ही सुख है। लेने और देने का जहाँ हिसाब लगाने बैठे कि प्रेम दुःख का कारण बन जाएगा।
लालसाओं का अन्त नहीं एक के बाद एक बढ़ती ही जाती है। जिस बात की पूर्ति इन्सान अपने जीवन में नहीं कर पाता, उसकी पूर्ति वह अपनी संतान के जीवन में देखना चाहता है। निस्संतान व्यक्ति अपने वंश की बेल को समाप्त होते देख अत्यन्त दुःखी होता है। उसे इस बात से सन्तुष्टि नहीं होती कि मनुष्य का नाम उसकी सन्तान से नहीं सुकर्मों से अमर होता है। सन्तान जहाँ नाम चलाती है, वहाँ डुबोती भी है। गृहस्थियों की अनेक चिन्ताओं का कारण सन्तान ही होती है। बच्चे का पालन पोषण, उसकी तरक्की के लिए अनेक साधन जुटाने का काम क्या कम परेशानी का है? सन्तान के पीछे मनुष्य कितने प्रलोभनों और दुर्बलताओं का शिकार बनता हैं। उद्देश्य और अनुशासन-हीन लड़के माँ-बाप की जिन्दगी को दूभर करके रख देते है। इसलिए निस्सन्तान व्यक्ति को इस पहलू से विचार करते हुए आत्म-सन्तोष करना चाहिए। अपनी सन्तान नहीं तो दूसरों के बच्चों को प्यार दुलार कर वे अपने मन को प्रसन्न कर सकते हैं। किसी गरीब, पर योग्य बालक को अपना कर अपना जीवन सरस बना सकते हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म करो पर फल की आशा मत करो। सुख पाने में नहीं त्यागने में है। सुख के पीछे बावले होकर दौड़ने में नहीं, अपितु कर्मशील होकर दुःख और मुसीबतों से जूझने में है। यदि आप दुःख को जीत लेते हैं, उसे अपने पर हावी नहीं होने देते तो आप सुखी हैं। आसक्ति से दूर रहकर दूसरों के लिए जिए। जो मनुष्य अपने परिवार को भूलकर दूसरों के लिए जीता है, उसी को जीने का सच्चा आनन्द मिलता है। माँ-बाप इसी प्रेरणा के वशीभूत होकर अपने बच्चों के लिए जीते हैं। उसकी सफलता, सुख और आनन्द में उन्हें सन्तोष मिलता है। इसी भावना को अधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न करने से मनुष्य परिवार के दायरे से निकल कर समाजोपयोगी जीवन व्यतीत करने में समर्थ हो पाता है। माया मोह आर्थिक दृष्टिकोण, स्वार्थ, अर्थप्रधान नीति मनुष्य को जहाँ एक ओर स्वार्थी बनाती हैं उसकी वृत्ति को संकुचित करती हैं, वहाँ दूसरी ओर दुःख की अनुभूति को तीव्र भी कर देती है। मनुष्य परिस्थितियों का दास बन जाता है और जीवन के वास्तविक सौंदर्य से भी अनजान रह जाता है। उसकी दिलचस्पी, प्रेम, त्याग और सहयोग का दायरा संकुचित हो जाता है।
इन्सान दुर्बलताओं का पुतला है, वह परिस्थिति का दास बन जाता है इस तथ्य को स्वीकार करके मनुष्य को दूसरे को उदारता और सहानुभूति के साथ समझने की चेष्टा करनी चाहिए। आप जैसा व्यवहार अपने प्रति चाहते हैं, वैसा ही दूसरे के प्रति करें। अपने मन को टटोलें। यदि आपकी आत्मा आपको चेतावनी देती है, तो उसे सुनें। अपराधी और अन्यायी चाहे समाज से बच जाए पर आत्मा की कचोट उसे चैन से नहीं रहने देगी। अपने को धोखा देना ही सबसे बड़ा धोखा है। पछतावे की अग्नि बड़ी दारुण होती है। उसमें तपे बिना आत्मा पवित्र नहीं हो सकती।
दूसरों से कुछ पाने से ही सुख नहीं है, देने में भी सुख है। किसी भूखे को खाना खिलाकर या किसी असहाय की मदद करके आपको जो आनन्द मिलता है, उसके आशीर्वाद से आपका जो आत्मिक बल बढ़ता है, वह कुछ कम नहीं है। “मैं भी दूसरों को सुखी बना सकता हूँ, मेरे सहयोग की किसी को अपेक्षा है” यह भरोसा आत्म-विश्वास पैदा करता है। जो इन्सान अपने को भूलकर दूसरों के लिए जीता है, उसको दुःख नहीं व्यापता। अधिकाँश माताएँ और पत्नियां अपने बच्चों व पतियों के लिए बड़े से बड़ा दुःख सहने को तैयार रहती हैं। उन्हें अपने खाने-पीने या आराम की परवाह नहीं रहती। इसीलिए माता का दर्जा पिता से अधिक ऊँचा माना गया है।
दुःख को जीतने के लिए हमें अपनी कमजोरियों को ही जीतना होगा। स्वार्थ, माया मोह, ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष आदि से ऊपर उठकर ही मनुष्य दुःख के शिकंजे से छुटकारा पा सकता है।