मनस्वी लोक सेवक चाहिए

March 1964

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बड़े कार्यों के लिए बड़ी तैयारी करनी पड़ती है और बड़े साधन जुटाने पड़ते हैं। विवाहों में अपव्यय की कुरीति काफी व्यापक है, उसकी जड़ें काफी गहराई तक घुसी हुई हैं। उन्हें उखाड़ने में काफी खोद-बीन और उखाड़-पछाड़ करनी पड़ेगी। लोग आसानी से उस पुरानी रूढ़ि को छोड़ने का साहस न कर सकेंगे। औचित्य को स्वीकार करते हुए भी सामाजिक दबाव, घर वालों और रिश्तेदारों का विरोध, कंजूस या मूर्ख कहलाने का उपहास आदि अनेकों बाधाएं सामने रहेंगी। फिर उपयुक्त लड़की लड़के खोज निकालना और उनके अभिभावकों का वैसा ही विवेकशील एवं साहसी होना भी तो सरल कार्य नहीं है। इन अड़चनों को पार करने के लिए बहुमुखी योजना बनानी पड़ेगी और उसकी पूरी तैयारी करनी पड़ेगी। उथले कार्यक्रमों से काम न चलेगा।

सामाजिक क्रान्ति की दिशा में यह एक अत्यन्त ही व्यापक एवं महत्वपूर्ण कदम है। यह मोर्चा फतह हो गया तो अन्य रूढ़ियों का शमन-शोधन सर्वथा सरल हो जायगा। जिस कुरीति से सारा समाज दुखी है और जिसका नाश हर विचारशील व्यक्ति चाहता है उसके लिए आवश्यक वातावरण तो तैयार है पर उखाड़ फेंकने की क्रिया फिर भी काफी कष्ट-साध्य रहेगी। इस कठिन कार्य को करने के लिए उन व्यक्तियों की आवश्यकता है जिनमें शौर्य, साहस, तप, त्याग, लगन और उत्साह की समुचित मात्रा विद्यमान हो। ऐसे लोग आज कमजोर जरूर हैं पर उनका सर्वथा अभाव नहीं है। उपयुक्त सैनिकों की ही इस मोर्चे पर अड़ने के लिये सबसे प्रथम आवश्यकता पड़ेगी। प्रयत्न यह करना होगा कि जिनमें साहस हो वे मानवता की इस पुकार की पूर्ति करने के लिये बढ़ कर आगे आवें। हिन्दू-समाज पर लगे हुए इस भारी कलंक को अपने रक्त से धोने की हिम्मत कर सकें।

प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन इन्हीं उत्साही और साहसी, प्रतिभाशाली, लोक-सेवकों के कंधों पर खड़ा किया जा सकेगा। नाम के भूखे, आलसी बातूनी और लम्बे-चौड़े सपने देखने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति पाये जाते हैं जो घर बैठे ही तीनों लोकों के सुधारने की कल्पना करते और मन-मोदक खाते रहते हैं। ऐसे लोगों की सद्भावना एवं समर्थन मिले तो उसका भी कुछ उपयोग ही है पर उनसे वह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता जो समाज की गति-विधियों को लौट पलट कर डालने जैसे महान कार्य को सम्पन्न करने के लिये आवश्यक हैं। यों कर्मठ व्यक्तियों की हर क्षेत्र में आवश्यकता रहती है पर सामाजिक क्रान्ति के गृह-युद्ध में पग-पग पर मोर्चा जमाये अड़े रहने वाले सैनिकों जैसी क्रान्तिकारी भावनाएं जिनके अन्दर विद्यमान हों ऐसे लोगों का अस्तित्व हो आशा का केन्द्र बन सकता हैं। पिछले दिनों स्वाधीनता संग्राम ही राजनैतिक क्रान्ति हो कर चुकी है। उसमें मातृभूमि के लिये एक से एक बढ़ कर उत्सर्ग करने वाले, अहिंसक एवं हिंसात्मक संघर्ष में भाग लेने वाले अगणित क्रान्तिकारियों का तप त्यागपूर्ण व्यक्तित्व ही सफलता का आधार बना था। ठीक वैसी ही आवश्यकता इस सामाजिक क्रान्ति के लिये भी अभीष्ट होगी।

एक माता की गोद से बच्चा छूट कर नदी की प्रबल धारा में बहने लगा। माता अपने शिशु की प्राण रक्षा के लिये सहायता को चीत्कार कर रही हैं। ‘होशियार’ लोग मौखिक सहानुभूति तो दिखा रहे थे पर करने को कुछ भी तैयार न थे। उसी समय एक नव-युवक उफनती नदी में अपने प्राण हथेली पर रख कर कूदा और बहते बच्चे को पकड़ कर किनारे पर ले आया। इस युवक का नाम था अब्राहम लिंकन जो अपनी ऐसी ही महानताओं के कारण अमेरिका का प्रेसीडेण्ट हुआ। आज विवाहों का अपव्यय एक ऐसी उफनती नदी बना हुआ है जिसमें सारे समाज की बालिकाएं बही चली जा रही हैं और प्रत्येक अभिभावक उनको बचाने के लिए चीत्कार कर रहा है। यह दृश्य हम सब देखते सुनते तो हैं। मौखिक विरोध और दुख भी प्रकट करते हैं पर करने की बारी आती है तो ‘अक्लमन्द’ लोगों की तरह पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते हैं। ऐसे कुसमय ये स्वर्गीय अब्राहम की आत्मा देखती है कि उसके जैसे उदार और साहसी लोगों से भारत की भूमि रहित क्यों हो गई? कोई प्राण हथेली पर लेकर नदी में कूदने और इन बच्चियों को बचाने के लिए क्यों तैयार नहीं होता? आत्मा के अमर और शरीर को नश्वर मानने वाले, गीता-पाठी लोगों में से मोह और लोभ को छोड़ कर धर्म के लिए कुछ साहस कर सकने वाले लोग क्यों कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते? इसका उत्तर युग की आत्मा हम से माँगती हैं और हम क्लीव, निर्जीव की तरह सिर नीचा किये मुरझाये- से खड़े हैं। इस धिक्कार योग्य स्थिति में पड़ी हुई अपनी पीढ़ी की मनोदशा पर आँसू ही बहाये जा सकते हैं।

बुद्ध धर्म के शून्यवाद ने जब वैदिक परम्पराओं को ग्रस लिया था तब साँस्कृतिक दुर्दशा पर महल के झरोखे में बैठी आँसू बहाती हुई राजकुमारी की आँखों का पानी सड़क पर चलते हुए कुमारिल भट्ट के ऊपर पड़ा। उसने ऊपर आँख उठा कर देखा और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा-को वेदान् उद्धरस्यसि? अर्थात् वेदों का उद्धार कौन करेगा? कुमारिल का पौरुष इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा कि मैं करूंगा? और सचमुच उस कर्मठ युवक ने वैदिक सभ्यता की रक्षा के लिए वह सब कुछ कर दिखाया जो कोई निष्ठावान व्यक्ति कर सकता है। आज विवाहों के अपव्यय ने भारतीय संस्कृति को उस घृणित एवं मरणोन्मुख परिस्थितियों में ला पटका है जिसमें कुछ दिन वह और पड़ी रही तो उसे अपनी मौत आप मर जाने के लिए ही विवश होना पड़ेगा। कुमारिल भट्ट की इस कुसमय की घड़ी में जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं रही।

यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा के नाम पर चारों ओर व्याप्त नृशंसता का उन्मूलन करने के लिए गौतम बुद्ध की आत्मा विद्रोह कर उठी थी, उनने तप करके जो शक्ति प्राप्त की, उसे समाज की तत्कालीन प्रवृत्तियों को बदलने में लगा दिया। आज यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा से बढ़ कर विवाहों के नाम पर होने वाले अपव्यय की क्रूर बलिवेदी लाखों कन्याओं के रक्त स्नान से अभिषिक्त होती रहती है। इस नृशंसता का उन्मूलन करने के लिए सहस्रों युद्धों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है पर सब ओर सन्नाटा देख कर ‘वीर विहीन मही’ होने की आशंका दिखाई पड़ने लगती है और भारतीय गौरव का मस्तक लज्जा से नीचा झुक जाता है।

युग-निर्माण के उपयुक्त अभिनव समाज रचना का महान अभियान आरम्भ करते हुए सबसे प्रथम यही आवश्यकता अनुभव की जा रही है कि प्रत्येक जाति में ऐसे तेजस्वी युवक निकलें जो संगठन की प्रारम्भिक भूमिका का ढाँचा खड़ा करने में अपना समय लगावें और साहसपूर्वक कुछ काम कर गुजरने की लगन लेकर आगे बढ़ें। इसके लिए घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। आजीविका कमाते हुए, बच्चों का पालन करते हुए भी कोई व्यक्ति थोड़ा समय पारमार्थिक कामों में लगाता रहे तो उतने में भी सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य बहुत हद तक पूरा हो सकता है। पूरा समय दे सकने वाले प्रतिभाशाली लोग वानप्रस्थों की तरह देश धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा के लिए मिल सकें तब तो कहना ही क्या है?

अखण्ड-ज्योति परिवार में हर जाति एवं उपजाति के लोग मौजूद हैं। उसकी छाँट करके प्रारम्भिक रूप में प्रगतिशील जातीय सभाएं गठित कर दी जावेंगी, पर उतने थोड़े लोगों के संगठन किसी जाति पर व्यापक प्रभाव कहाँ डाल सकेंगे? उन्हें अपने-अपने संगठनों का व्यापक विस्तार करना होगा। प्रगतिशीलता का तात्पर्य और उद्देश्य समझाने के लिए उन्हें अपने-अपने कार्य क्षेत्र में दर दर मारा-मारा फिरता पड़ेगा। संगठन का उद्देश्य और कार्यक्रम समझ लेने पर ही तो कोई उससे प्रभावित होगा और उसमें सम्मिलित होने की तैयारी करेगा। कहने पर से तो इन संस्थाओं के सदस्य सब लोग बन नहीं जायेंगे और यदि बन भी गये तो उनमें वह साहस कहाँ से आवेगा, जिसके बल बूते पर वह बहती नदी के प्रवाह को चीर कर उलटी चलने वाली मछली की तरह नवीन परम्परा स्थापित करने का आदर्श उपस्थित कर सकें निश्चय ही इसके लिए व्यापक प्रचार और प्रयास की जरूरत होगी। जन-संपर्क बनाने के लिए दौरे करने पड़ेंगे, उद्देश्य को समझा सकने वाला साहित्य-जनता तक पहुँचना पड़ेगा और उनके मस्तिष्क में वह भावना भरनी पड़ेगी जिससे वे युगधर्म को पहचान सकें और प्रतिगामिता की हानियों और प्रगतिशीलता के लाभों से परिचित हो सकें।

जातियों के क्षेत्र छोटे-छोटे हैं बिखरे हुए पड़े हैं, उन बिखरे हुए मन को को एक सूत्र में पिरोने में कितने मनोयोग की आवश्यकता है उसे कार्यक्षेत्र में उतरने वाले ही जानते हैं। कितना विरोध, कितना उपहास, कितना व्यंग सहना पड़ता है, कितना समय नष्ट करना पड़ता है उसे वही सहन कर सकेगा जिसमें त्यागी तपस्वी जैसी भावना विद्यमान हो। घर बैठे मुफ्त में यश को लूट भागने वाले बातूनी लोग इस प्रयोजन को पूरा कहाँ कर सकेंगे? इसलिए सबसे पहली आवश्यकता ऐसे भावनाशील लोगों की ही पड़ेगी, जो युग की सब से बड़ी आवश्यकता-सामाजिक क्रान्ति के लिए अपनी सच्ची श्रद्धा को अञ्जलि में लेकर संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए साहस पूर्ण कदम बढ़ा सकें।


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