सद्ज्ञान और जीवन-लाभ

March 1964

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प्रगति के लिए ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह आत्मिक दृष्टि से हीन अवस्था में ही पड़ा रह सकता है। अन्य प्रदेशों में एकाकी रहने वाले आदिवासी अनेकों मानवीय सत्प्रवृत्तियों से वंचित रह जाते हैं। शिक्षण के अभाव में न तो प्रस्तुत क्षमताओं का विकास हो सकता है और न परिष्कार। ऐसी दशा में शरीर की प्रेरणाओं के आधार पर ही जीवनयापन करना पड़ता है। ऐसे जीवनों को पाशविक जीवन ही कहा जा सकता है। ज्ञान प्राप्ति की व्यवस्था जो न कर सकेगा, विवेक की आँखें जिसकी न खुल सकेंगी उसे अज्ञान के अन्धकार में भटकते हुए निम्नस्तरीय दिनचर्या के आधार पर अपनी जिन्दगी काटनी पड़ेगी।

मनुष्य में मूलतः अनेक महत्वपूर्ण शक्तियाँ मौजूद हैं। उनका सदुपयोग करने से गिरी हुई परिस्थितियों का व्यक्ति भी निरन्तर प्रगति करने की सुविधाएँ एकत्रित कर सकता है और बड़ी-सी-बड़ी बाधाओं को पार करते हुए उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। पर यह सम्भव तभी है जब वह ज्ञान का महत्व समझे और उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। सीखने में जिसे रुचि न होगी, या जिसे प्रशिक्षण के साधन न मिलेंगे, उसके लिए अपनी आन्तरिक क्षमताओं को पहचान सकना तक कठिन है, फिर उनका जागरण, अभिवर्धन और परिष्कार तो हो ही कैसे सकेगा? इसीलिए मनीषियों ने इस बात पर अत्यधिक जोर दिया है कि मानवता को सार्थक बनाने वाले ज्ञान की साधना में निरन्तर संलग्न रहा जाय। एक दिन भी ऐसा न बीते जिसमें ज्ञान की आराधना न की गई हो।

लोहा एक साधारण पदार्थ है पर उसका स्पर्श जब पारस-मणि से हो जाता है तो उसे सोने के रूप में बदलते देर नहीं लगती। मनुष्य भी साधारणतया एक दुर्बलकाय नगण्य पशु-मात्र है पर उसे जब ज्ञान का लाभ होता है तो अपनी मानसिक क्षमता का पूरा लाभ उठा सकता है और उस मार्ग पर चल सकता है जिसके लिए उसे इस सुरदुर्लभ सौभाग्य की प्राप्ति हुई है।

स्वाध्याय और सत्संग मानवीय जीवन आकाश में सूर्य और चन्द्रमा की तरह चमकने वाले दो उज्ज्वल प्रकाश केन्द्र हैं। जहाँ इनका अस्तित्व न होगा वहाँ चिरस्थायी अन्धकार छाया रहेगा। अन्तरात्मा में विकास की अनेक सम्भावनाएं मौजूद हैं। पर वे प्रस्फुटित और पल्लवित तभी होती है जब उन्हें उपयुक्त साधन मिलें। बीज में वृक्ष बनने की संभावना निश्चित रूप से मौजूद है, पर उसको मूर्त रूप तभी मिल सकेगा जब खाद पानी की आवश्यकता की उचित रूप से पूर्ति होती रहे। उसके अभाव में सशक्त बीज भी अंकुरित न हो सकेगा। व्यक्ति में बीज की ही भाँति ईश्वर प्रदत्त अनेक सुसंभावनाएं विद्यमान हैं पर उनका विकास सत्संग और स्वाध्याय के ही आधार पर होता है।

दर्पण के सामने जो भी वस्तुएं आती हैं, उनकी वैसी ही छाया दीखने लगती है। कपड़े को जैसे रंग में रंगा, जाय, वह वैसा ही बन जाता है। बालक जन्मतः सभी समान मनोभूमि लेकर आते हैं पर उन्हें अपने परिवार एवं वातावरण में जो कुछ सीखने को मिलता है वे उसी ढाँचे में ढलने लगते हैं। भाषा, स्वभाव, संस्कार, आहार, अभ्यास, दृष्टिकोण आदि का निर्माण मनुष्य का बालक अपने समीपवर्ती वातावरण से ही तो ग्रहण करता है। सज्जन माता-पिता से जन्मे बालक का पालन-पोषण यदि कुसंस्कारी वातावरण में हो तो वह कुसंस्कारी ही बनेगा। इसी प्रकार निम्न स्तर के घर में जन्मा बालक यदि सुसंस्कारी लोगों द्वारा पाला जाय, तो उसका वैसा ही सुसंस्कृत होना निश्चित है।

कभी-कभी कुछ अपवाद भी ऐसे देखने में आते हैं कि अच्छे लोगों के घर जन्मे बच्चे कुसंस्कारी और बुरी स्थितियों में जन्मे बालक प्रबुद्ध स्तर के बने हैं। ऐसे उदाहरणों में से कुछ में तो पूर्व जन्मों की प्राप्त प्रेरणा प्रधान कारण रहती है। और कुछ में ऐसा होता है कि वे बालक किसी प्रभावशाली संपर्क में आ जाते हैं और निकटवर्ती परिस्थितियों के प्रभाव को हटा कर किसी मनस्वी व्यक्ति की प्रेरणा से उत्थान या पतन के मार्ग पर चल पड़ते हैं। प्रेरणा कहीं न कहीं से उन्हें जरूर प्राप्त हुई होती है। यदि किसी बालक को बाह्य वातावरण से सर्वथा पृथक रखा जाय तो वह नर-पशु के अतिरिक्त और कुछ भी न बन सकेगा। भेड़िये की माँद में पकड़े गये बालक रामू का लखनऊ अस्पताल में अभी बहुत कुछ वैसा ही स्वभाव बना हुआ है जैसा कि उसको पालन करने वाले भेड़ियों ने उसे सिखा दिया था।

हनुमान जी में बहुत बल विद्यमान था पर ज्ञान के अभाव में वे समुद्र लाँघने को तैयार नहीं हो पा रहे थे। जामवन्त ने उन्हें आत्मबोध, कराया तो वे खुशी-खुशी तैयार हो गये, और सहज ही उस कार्य को सम्पन्न कर सकने में भी सफल हो गये। हनुमान की उस सफलता में जामवन्त का उद्बोधन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। यदि जामवन्त के स्थान पर उस समय कोई कायर और डरपोक सलाहकार रहा होता तो वह अनेक आशंकाएं व्यक्त करके हनुमान के मनोबल को और भी अधिक गिरा सकता था, ऐसी दशा में उनके लिए समुद्र लाँघने की बात का सोच सकना भी कठिन हो जाता। संगति का प्रभाव अन्य जीवों के लिए महत्वहीन भले ही हो मानव प्राणी के लिए तो वहीं सबसे बड़ा प्रश्न है। सुसंगति और कुसंगति को उसके जीवन-मरण एवं उत्थान-पतन की समस्या कहा जा सकता है।

आजीविका उपार्जन की चिन्ता हर किसी को करनी पड़ती है, क्योंकि उसके बिना शरीरयात्रा का उचित निर्वाह भी नहीं हो सकता। अपने-अपने ढंग से इस समस्या को हल करना अपने में से प्रत्येक के लिए एक अनिवार्य प्रश्न है। यदि यह हल न हो सका तो बाह्य जीवन के विकास में भारी बाधाएं उठ खड़ी होंगी। इसी प्रकार आत्मिक जीवन की प्रगति एवं सुव्यवस्था के लिए सत्संगति की आवश्यकता का भी अत्यधिक महत्व है। कुसंग में घिरे रहने से प्रगति का पथ अवरुद्ध ही बना रहेगा। सत्संगति में ही वह शक्ति रहती है कि गिरे हुओं को भी ऊँचा उठाने के लिए आवश्यक प्रेरणा और प्रकाश दे सके। सुगंधिकार की दुकान के समाने खड़े होने मात्र से मनमोहक गंध का लाभ होता है पर यदि कोयला बेचने वाले की दुकान पर बैठा जाय तो कपड़े काले होने की ही संभावना रहेगी।

जिन्हें हीन आन्तरिक स्थिति अखरती हो और जो महापुरुषों जैसी मनोभूमि प्राप्त करके बाह्य जीवन में उत्कृष्ट परिस्थितियों का आनन्द लेना चाहें उनके लिए यह अनिवार्य रूप में आवश्यक है कि सत्संगति को तलाश करें, ऐसे लोगों की समीपता प्राप्त करें जो वाणी में नहीं चरित्र से महान हों। आज तथाकथित सत्संगों का ढोंग जगह-जगह खड़ा दीखता है। और लोग उधर-उधर की बेसिर बातें भी उपदेश प्रवचन के नाम पर बहुत करते हैं। इस ध्यवसायिक कोलाहल में आडम्बर बहुत और काम की बात प्रायः बहुत ही कम रहती है। इसलिए इस प्रकार के कुचक्रों में जाने से पूर्व यह परख लेना चाहिए, कि वहाँ व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए व्यावहारिक वातावरण भी कुछ है या अंट-संट बातों में ही समय की बर्बादी होती है। सत्संग उसे ही कहना चाहिए जो हमारे व्यक्तिगत जीवन में वाणी से नहीं चरित्र से हमें उत्कर्ष की दिशा में आवश्यक प्रेरणा और प्रकाश कर सके।

महान चरित्र और आदर्शवान् व्यक्तियों का समय खाली नहीं रहता। उनकी महानता का चिन्ह व्यस्तता है। जो जितना फालतू रहता होगा उसे उतना ही प्रमादी समझा जा सकता है। जीवन का सदुपयोग एक-एक क्षण को क्रम-बद्ध रीति से व्यतीत करने में ही तो है। इसलिए श्रेष्ठ मनुष्यों को कभी इतना खाली नहीं पाया जा सकता कि उनके साथ अपना फालतू समय देर तक बिताया जा सके। फिर भी यह प्रयत्न करना चाहिए कि किसी न किसी प्रकार सच्चे मनस्वी और तेजस्वी लोगों के साथ अपना संपर्क बना रहे। निकट से उनके जीवन क्रम का अध्ययन करने का अवसर मिले। श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्रों में आदर्शवाद की मात्रा अधिक रहती है। इसलिए उनसे अनुकरणीय तथ्य अधिक मिल सकते हैं। यों कुछ न कुछ कमजोरी सभी में रहती है। पर जिनमें श्रेष्ठता में अधिक हो उन्हें श्रेष्ठ व्यक्ति कहा जा सकता है और उनकी समीपता से ऐसा प्रकाश मिलने का अवसर अधिक रहता है जिसके आधार पर आन्तरिक जीवन के विकास की संभावनाएं बढ़ सकें।

इस व्यस्तता के युग में सत्संग के लिए समय की कमी रहने की शिकायत प्रायः सभी को रहती है। फिर श्रेष्ठ पुरुष अधिक संख्या में मिल सकें यह भी कठिन है और उनका अपनी पहुँच के उपयुक्त समीपवर्ती क्षेत्र में होना तो और भी अधिक कठिन है। ऐसी दशा में सत्संग की दुकान लगाये बैठे रहने वाले बकवादी लोगों की ओर यदि मुड़ जाया जाय तो उससे उलटी हानि की आशंका ही अधिक रहेगी। इन परिस्थितियों में एक ही उपाय रह जाता है कि सत्पुरुषों के जीवन चरित्रों को पढ़कर उनमें से जो प्रेरणाएं अपने लिए उपयुक्त हों उन्हें ग्रहण करने के लिए, निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय। यों जब कभी श्रेष्ठ पुरुषों का सान्निध्य एवं प्रवचन का लाभ मिल सकता हो तब उसके लिए भी सचेष्ट रहा जाय।

जीवनोत्कर्ष के लिए जिस सद्ज्ञान की आवश्यकता है वह सत्संग में प्राप्त होता है और सबसे सरल और सबसे प्रभावशाली उपाय यह है कि स्वाध्याय के माध्यम से सत्पुरुषों का सान्निध्य निरन्तर प्राप्त करते रहा जाय। यह कार्य श्रेष्ठ साहित्य द्वारा ही सम्भव हो सकता है। सद्ग्रन्थों में महापुरुषों के जीवन चरित्र खुले पृष्ठों की तरह सर्व साधारण के लिए उपलब्ध है। बहुत पूछ-ताछ करने पर जो बातें जानी जा सकती हैं वे उन जीवन-चरित्रों में सहज ही लिखी मिल जाती हैं। फिर जिन महापुरुषों के प्रवचन जिस विषय पर सुनने हों, जिस शंका का समाधान उनसे प्राप्त करना हो उसके लिए उनका साहित्य पढ़ लेना चाहिए। इस नीति से हर घड़ी हर विषय पर हर महापुरुष का सत्संग-लाभ घर बैठे हो सकता है।


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