जीवन-सार्थकता की साधना

March 1964

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मनुष्य शरीर भगवान का सबसे बड़ा अनुदान है। सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में मनुष्य जीवन की उपलब्धियाँ इतनी महान हैं कि उनमें धरती और स्वर्ग जितना अन्तर माना जा सकता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने वाले जीव विचार, बोली, भाषा, साहित्य भोजन की अनिश्चितता, वस्त्र, मकान, चिकित्सा, पारस्परिक सेवा, सहानुभूति, यातायात की सुविधा, वैज्ञानिक उपकरण, रक्षा प्रसाधन, मनोरंजन, न्याय, शासन आदि सभी सुविधाओं से वंचित, एक प्रकार से निरीह जीवन व्यतीत करते हैं। उनकी तुलना में मनुष्य को जो सुविधाएं प्राप्त हैं उनका मूल्याँकन किया जाय तो वह अन्तर उससे भी अधिक बैठेगा जितना मनुष्य अपने और देवताओं के बीच में मानता है। जैसे देवताओं की स्थिति प्राप्त करने के लिए, स्वर्ग की उपलब्धि के लिए मनुष्य आकाँक्षा किया करता है ठीक उसी प्रकार अन्य जीवन भी यह सोचे तो उचित ही होगा कि मनुष्य जैसा शरीर और साधन पाकर वे प्रत्यक्ष स्वर्ग का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।

संसार में किसी को कितनी ही बड़ी असुविधाएं प्राप्त क्यों न हों पर वे उन असुविधाओं का लाख करोड़वाँ भाग भी नहीं है जो इन योनियों में भ्रमण करने वाले जीवों को सहन करनी पड़ती हैं। इस सृष्टि से गई-गुजरी जिन्दगी व्यतीत करने वाला मनुष्य भी चाहे तो यह संतोष और गर्व कर सकता है कि मुझे सृष्टि के अन्य प्राणियों की अपेक्षा लाखों करोड़ों गुनी सुविधाएँ प्राप्त हैं। सचमुच ईश्वर की महती अनुकम्पाओं में से एक यह है कि उसने हमें मनुष्य शरीर प्रदान किया है। इस उपलब्धि के लिए उसके प्रति जितनी कृतज्ञता प्रकट की जाय उतनी ही कम है। जो लाभ चौरासी लाख योनियों में से किसी को भी प्राप्त नहीं है उसका मिलना परमात्मा की महती कृपा से ही हमारे लिए संभव हो सका है।

तत्वदर्शियों का कथन है कि प्राणी को दे सकने लायक दो ही महान उपहार ईश्वर के पास है। एक वह मनुष्य शरीर के रूप में हमें दे चुका। दूसरा उसने पात्रता देखकर देने के लिए सुरक्षित रखा है इस रहस्यमय दिव्य उपहार का नाम है-’मानवीय अन्तःकरण।’ जिसे यह मिल गया वह इस सृष्टि के कण-कण में आनन्द का स्रोत उद्भूत होते देखता है और पग-पग पर स्वर्गीय उपलब्धियों का अनुभव करता है और स्वर्गीय जीवन का आनन्द लेता हुआ अपने को सब प्रकार धन्य अनुभव करता है। ऋषि, देवता, महा पुरुष, देवदूत और अवतारों के शरीर तो मनुष्य जैसे ही होते हैं, पर अन्तर यह रहता है कि उन्हें मानवीय अन्तःकरण भी मिला होता है, जब कि साधारण नर-तनु धारी पाशविक प्रवृत्ति और दृष्टि रखने के कारण पग-पग पर शोक, सन्ताप, क्षोभ, असन्तोष एवं त्रास सहते हुए किसी प्रकार मौत के आने का समय गिनते रहते हैं।

मनुष्य शरीर देने के बाद जो दूसरा महान उपहार ‘मानवीय अन्तःकरण’ हमें अभी तक नहीं मिला है, वह जिसे भी, जब भी मिल जाता है तब उसके जीवन का हर पहलू आनन्द और उल्लास से खिल पड़ता है। चन्दन के वृक्ष की तरह वह अपनी सुगन्ध उस सारे क्षेत्र में फैला देता है जहाँ वह रहता और बढ़ता है। नर पशु की तरह खाने सोने और मस्ती करने में सुर-दुर्लभ मानव-जीवन के अलभ्य अवसर को बर्बाद कर देना परले सिरे की मूर्खता है। इसका ऐसा उपयोग होना चाहिए जिससे भव-बन्धन कटे। क्षण-क्षण स्वर्गीय आनन्द अनुभव होता रहे और शरीर त्यागते समय संतोष की साँस लेने का अवसर मिले। दुर्भाग्य इतना ही है कि वह सूझ-बूझ उठती नहीं, जिसके आधार पर सन्मार्ग अपना कर उत्कृष्ट जीवन का ताना-बाना बुना जा सके। लोग लम्बी-चौड़ी कल्पनाएँ तो करते रहते हैं, भौतिक महत्वाकांक्षाओं की तरह आत्मिक प्रगति के स्वप्न भी देखते रहते हैं पर ऐसा कोई ठोस कार्यक्रम उनके बूते बन नहीं पड़ता जिससे वे महत्वाकाँक्षाएँ पूर्ण हो सकें। कारण यही है कि आकाँक्षाएँ उथली होती है। उनके पीछे-लगन, निष्ठा, तत्परता, प्रेरणा एवं जीवट का अभाव ही रहता है। यह कमी ही वह बाधा है जिसके कारण इच्छा रहते हुए भी जीवन को सार्थक बनाने वाले गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण करने से हम वंचित रह जाते हैं।

लोग सम्पत्तियों और विभूतियों को बहुत महत्व देते हैं। वे सोचते हैं जिसके पास जितने साधन हैं वह उतना ही भाग्यशाली या बुद्धिमान है। बड़प्पन भी आजकल साधनों से ही नापा जाता है। इस गलत दृष्टिकोण में उलझ कर आम तौर से मनुष्य सम्पत्ति’, सत्ता, ख्याति एवं विलासिता के फेर में पड़े रहते हैं और यह अमूल्य मानव शरीर यों ही बर्बाद कर देते हैं।

बुद्धिमत्ता इसमें है कि मानव शरीर परमात्मा ने दे दिया तो अब अपने पुरुषार्थ से मानव अन्तःकरण का विकास करे। मानवता के अनुरूप विचारणीय, भावना एवं प्रकृति यदि उपलब्ध हो सके तो निश्चय ही यह जीवन सार्थक बन जाता है। सद्भावनाएँ जिसके भीतर भरी रहती हैं उसके चेहरे पर सौम्यता का प्रकाश फैला रहता है और हर किसी को इतना मृदुल लगता है कि उसे निहारते ही बनता है। सौम्यता से बढ़कर सुन्दरता का और कोई प्रमाण नहीं हो सकता। सज्जनता से भरी वाणी में जो नम्रता, शालीनता एवं मधुरता रहती है उसे सुनने के लिए हर किसी के कान प्यासे रहते हैं। स्नेह और सद्भावना भरी वाणी शहद से अधिक मीठी होती है, उसे सुनकर निराश एवं मुरझाये हुए चेहरे आशा के प्रकाश से खिलने लगते हैं।

मानव शरीर में विचरण करने वाले नर-पशुओं की आज कमी नहीं। असुर, पशु और पिशाच जिस ढंग से सोचते हैं वही तरीका उनने अपनाया होता है। अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए दूसरों का बड़े से बड़ा अहित करने में उन्हें संकोच नहीं होता। उद्दण्डता और अनीति का आचरण करते हुए उन्हें लज्जा नहीं आती। आलस्य और व्यसनों के फेर में पड़े हुए अपना सब कुछ बर्बाद करते रहते हैं पर उन्हें यह नहीं सूझता कि हम कुछ अनुचित बात कर रहे हैं। जिन्हें अपने स्वास्थ्य का ज्ञान नहीं, भविष्य की चिन्ता नहीं, शान्ति की खोज नहीं और प्रगति की आकाँक्षा नहीं उन्हें नर-पशु ही कहा जा सकता है।

मनुष्य का शरीर मिलना यह ईश्वर की महती कृपा है। दूसरे जीवों की तुलना में भौतिक सुविधा की दृष्टि से यह एक बड़ा सौभाग्य भी है। पर यदि उसे निरर्थक तरीके में बर्बाद कर दिया जाय, जिन्दगी को भार की तरह किसी तरह काट लिया जाय तो उसे एक खेदजनक दुर्घटना ही कहा जायगा। शरीर की दृष्टि से निश्चय ही मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ है पर यदि मन की दृष्टि से पशुता का साम्राज्य ही छाया रहा, मानवता का प्रकाश अन्तःकरण में प्रकाशित न हो सका तो शारीरिक सौभाग्य की उपलब्धि का कुछ अधिक महत्व न रह जायगा।

भावनात्मक दृष्टि से जिसने मानवता का स्तर प्राप्त कर लिया व्यक्तिगत जीवन में वही सुखी और सन्तुष्ट रह सकता है। उसी को साँसारिक जीवन में प्रतिष्ठा एवं किसी कार्य की स्थायी सफलता मिल सकती है। सद्गुणों से ही अपने व्यक्तित्व की छाप दूसरों पर पड़ती है और उसी से श्रद्धा की उत्पत्ति होती है और सहयोग एवं सद्भाव भी उसी के फलस्वरूप प्राप्त होता है। दुर्गुणी मनुष्य जहाँ जायगा वहीं दुर्गन्ध फैलेगी और विरोधियों एवं शत्रुओं का अनायास ही बाहुल्य होता चला जायगा। संघर्ष और क्लेश उसे घेरे रहेंगे। इस प्रकार का अशान्त जीवन कितनी ही सम्पत्तियों से लदा हुआ क्यों न हो दुख दुर्भाग्य से ही भरा रहेगा और उसे असफल ही माना जायगा।

हमारे भीतर पशुता और मानवता की उभय पक्षीय सत्ताएं काम करती रहती हैं। असुरता और देवत्व दोनों ही सक्रिय रहते हैं। इस देवासुर संग्राम में हमारा विवेक जिसका भी समर्थन करने लगे वही पक्ष बलवान हो जाता है। असुरता के पक्ष में यदि भावनाएं मुड़ गई तो जीवन का सारा ढाँचा असुरता से भर जायगा। विचार, कार्य, मित्र और साधन उसी तरह से जुट जायेंगे और वैसा ही वातावरण अपने चारों ओर जमा हुआ दिखाई देगा। इसके विपरीत यदि देवत्व का समर्थन अन्तःकरण ने करना आरंभ कर दिया तो स्वभाव, चरित्र एवं क्रियाकलाप ऐसा होगा जैसा देवताओं का होता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि असुरता का प्रतिफल दुःख दारिद्र एवं क्लेश, कलह के रूप में सामने आता है और देवत्व की प्रतिक्रिया सुख शान्ति का रूप धारण कर हमें आनंदमय परिस्थितियों के पुरस्कार प्रदान करती है। इसलिए हमको सदैव मानवीय सद्गुणों को ग्रहण करने का ही प्रयत्न करना चाहिये ताकि मनुष्य जीवन का प्राप्ति का सम्पूर्ण लाभ प्राप्त हो सके।


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