हमारा अन्तःकरण पवित्र बने

March 1964

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संसार में समय-समय पर जो भी समाज सुधारक और महापुरुष हुये हैं उन सब ने मानव-समाज में सुख-शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये इस बात पर अधिक बल दिया है कि लोगों के अन्तःकरण निर्मल एवं पवित्र बनें। महात्मा युद्ध, महावीर, नानक, कबीर, रामतीर्थ, विवेकानन्द सुकरात, ईसामसीह प्रभृति महापुरुषों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यापक जन-क्रान्तियाँ कीं। सामाजिक-उत्थान का आधार भी यही है कि अधिकाधिक लोग पवित्र-अन्तःकरण वाले हों।

मनुष्य के विचार क्षेत्र में एक शक्ति काम करती है जो सदैव उसके अच्छे-बुरे कर्मों की विवेचना किया करती है। जीवात्मा के भले-बुरे कर्मों की साक्षी देने वाली प्रवृत्ति का नाम ही अन्तःकरण है। दूसरे शब्दों में इसे विवेक बुद्धि कह सकते हैं। परमात्मा की मंगलमय वाणी, उनका सान्निध्य सुख प्राप्त करने का यही पुनीत स्थल है। अपने आप में ही इतनी महान सत्ता विद्यमान होते हुए भी लोग दुःखी एवं व्याधिग्रस्त क्यों हैं, यह विचारणीय बात है।

मनुष्य की अन्तःकरण में आसुरी और दैवी दोनों शक्तियाँ कार्य करती हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ आसुरी प्रकृति के लोगों में होती हैं और सद्प्रवृत्तियाँ दिव्य स्वभाव के लोगों में पाई जाती है। विचारवान दूरदर्शी एवं आदर्शवादी लोगों का जब किसी राष्ट्र में बाहुल्य होता है तो वहाँ सुख-समृद्धि की परिस्थितियाँ आते देर नहीं लगती, किन्तु यदि दुष्ट दुराचारी अन्तःकरण के नर पिशाचों की ही अधिकता बनी रही तो मानव-समाज नारकीय यंत्रणाओं में ही फँसा रहेगा। सदाचारी व्यक्ति सुखद परिस्थितियों का निर्माण करते हैं पर अपवित्र अन्तःकरण के व्यक्ति औरों को पीड़ा ही दे सकते हैं।

युग परिवर्तन के लिये ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जो अपने चरित्र और व्यक्तित्त्व द्वारा जन-साधारण का मार्ग दर्शन करते हुये उन्हें सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकें। उपदेश देकर अथवा गीता रामायण वेद शास्त्र आदि कोई विशिष्ठ धार्मिक पुस्तक के द्वारा भी किसी को थोड़ी देर तक तो उत्साह दिलाया जा सकता है किन्तु दुष्प्रवृत्तियों के जागृत होते ही वह उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। लोग फिर पहले जैसा जीवन क्रम अपना लेते हैं।

कहने का असर उतना व्यापक एवं प्रभावशील नहीं होता जितना कर दिखाने का। चोर, बदमाश, उठाईगीरों को किसी स्कूल कालेज में चोरी, बदमाशी का प्रशिक्षण नहीं किया जाता। दुराचार अच्छी बात है यह किसी पुस्तक में लिखा नहीं मिलेगा। फिर भी हजारों की संख्या में लोग इन कुत्सित कर्मों को करते हैं। इसका कारण बुरे लोगों के बुरे चरित्र को देखकर प्राप्त हुई बुरी निष्ठा है जिससे प्रभावित होकर दूसरे लोग भी बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं।

यही बात सदाचार के क्षेत्र में भी लागू होती है। लोग सदाचार और सद्प्रवृत्तियों का भी वैसे ही निष्ठापूर्वक अनुकरण करते हैं जैसे दुष्ट दुराचारी दुष्प्रवृत्तियों का। पिछले दिनों जब भारत में चीनी आक्रमण हुआ तो राष्ट्र रक्षार्थ अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की बाढ़-सी आ गई थी। बच्चे, अपंग अपाहिज तथा भिखारी भी इस काम में पीछे नहीं रहे। उत्कृष्ट ईमानदारी के समाचार, अपने को खतरे में डालकर औरों को बचाने के दृष्टान्त आये दिन समाचार पत्रों में छपा करते हैं। इनसे भी लोगों को वैसी ही प्रेरणा मिलती है जैसे बुराइयों से बुरे कर्मों को प्रोत्साहन मिलता है।

सुख सभी को अभीष्ट है पर यह कम ही लोग जानते हैं कि सच्चा सुख कहाँ है। यह सुख अन्यत्र नहीं हमारी भावनाओं में ही सन्निहित है। पर हम उसे ढूँढ़े भी तो। सुख प्राप्ति के लिये अन्तःकरण की पवित्रता आवश्यक है। उसकी प्राप्ति एवं अभिवृद्धि के लिये अपने भीतर के अवगुण देखना ढूँढ़ना और उनमें आवश्यक हेर-फेर करना होता है। जब कोई व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक आत्म निरीक्षण करता है तो उसे अपने दोष दुर्गुण सहज ही दिखाई देने लगते हैं। विचार-शील मनुष्य ऐसे प्रयत्न करता है कि वह बुराइयों से बचा रहे क्योंकि वे ही उसके लक्ष्य सिद्धि के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं।

असत्य के स्थान पर सत्य को, द्वेष भाव के स्थान पर आत्मीयता को, आलस्य व प्रमोद के स्थान पर कर्मशीलता व सरलता को, भोग के स्थान पर त्याग भावना की प्रतिष्ठापना कर देने पर मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों से बच सकता है। अन्तःकरण की निर्मलता में विक्षेप पैदा करने वाली आसुरी प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य को कुकर्मों की ओर प्रेरित करती रहती हैं। यदि इनसे बचने का प्रयत्न किया जाय तो मनुष्य सहज ही में अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।

सुख प्राप्ति के उपाय बताते हुये स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है “दयाशील अन्तःकरण प्रत्यक्ष स्वर्ग है।” दया मनुष्य का वह सद्गुण है जो अन्तःकरण की स्वाभाविक निर्मलता बनाये रखता है। दयावान व्यक्ति सब में अपना ही आत्मा निहारता, स्वार्थ के तुच्छ आवरण को तोड़कर समष्टि में फूट पड़ता है। तुच्छ न रहकर महानता की ओर अग्रसर होना है। सुख का अनन्त स्त्रोत इसी में है कि मनुष्य अपने आपको विश्वात्मा में घुला दे। संकीर्ण मनोवृत्तियाँ पतन और दुःख का कारण होती हैं। दयावान अन्तःकरण में इन्हीं दिव्य भावनाओं के बाहुल्य से मनुष्य को स्वर्ग जैसी रसानुभूति होती है।

परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान पाने के लिये ऋषियों ने अन्तःकरण की शुद्धि पर विशेष बल दिया है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने निष्काम कर्मयोग की महत्ता प्रतिपादित की है। ताकि मनुष्य विषयासक्ति से बचा रहकर अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील बना रहे। अनुपयुक्त कामनाओं के बाहुल्य से आन्तरिक मलिनता का उदय होता है। ऐसे तमसाच्छन्न अन्तःकरण को इतना समय कहाँ मिलता है कि वह महाविराट के साथ सान्निध्य और उससे प्राप्त होने वाले असीम दुख की कल्पना कर सके। सन्तकवि तुलसीदास की वाणी में अवतरित हुये भगवान राम ने स्वयं कहा है :-

निर्मल जन जो सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

मुझे वही प्राप्त कर सकता है जिसका अन्तःकरण निर्मल हो। छल और कपट परमात्मा को प्रिय नहीं फिर इनके रहते उनकी प्राप्ति कैसे सम्भव हो सकती है।

मैले शीशे में सूर्य की किरणों का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता। उसी प्रकार जिनका अन्तःकरण मलिन और अपवित्र है उनके हृदय में ईश्वरीय प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। इसलिये उनकी प्राप्ति के लिये अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाइये। आपको औरों के हित साधन में भी प्रवृत्त होना है सो विशाल अन्तःकरण धारण कीजिये। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसे स्वच्छ और निर्मल बनाइये। तभी मानव-जीवन की सार्थकता है।

अन्तःकरण की निर्मलता मनुष्य को बाह्य गतिविधियों सहिष्णु भाव, मुखाकृति में सौम्यता और व्यवहार में उदारमना होने से परिलक्षित होती है। जिनका अन्तःकरण पवित्र और विशाल होता है उन्हें कभी मित्रों का अभाव न रहेगा। आप दूसरों से यदि सम्मान और सहयोग पाना चाहते हैं तो इसका एक ही उपाय है, अपना अन्तःकरण छल रहित बनाइये। उज्ज्वल व्यक्तित्व की यही परख है कि व्यक्ति का अन्तरात्मा कितना पवित्र है।

धरती में देवत्व का विकास और दनुजता का विनाश हो इसके लिये पवित्र अंतःकरण के व्यक्तियों की अधिकता होना आवश्यक है। देवत्व के विकास का प्रथम सोपान मानव का निर्मल अन्तःकरण ही माना गया है। इसके बिना अणु से विभु, लघु से महान बनने की अभिलाषा अधूरी ही बनी रहेगी। अपवित्र अन्तःकरण बना रहा तो दिव्य दृष्टि का उदय होना असम्भव है। आन्तरिक निर्मलता एवं पवित्रता में वह शक्ति है। जो अन्य साधनों के अभाव में भी जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करा सके।

अन्तःकरण को अशुद्ध वासनाओं से बनाइये। उसकी पवित्रता पर किसी भय या प्रलोभन का कुठाराघात न होने दीजिये। पापी अन्तःकरण की यन्त्रणा ही वह नरक है जो जीवित व्यक्ति को प्रतिक्षण पश्चाताप की आग में जलाती रहती है। ऐसा व्यक्ति न तो स्वयं चैन पाता है न दूसरों को ही शाँतिपूर्वक रहने देता है। अशाँति का कारण प्रताड़ना पूर्ण पापी अन्तःकरण ही हुआ करता है। यदि उसे कुत्सित प्रवचनों से बचाया जा सके तो सर्वत्र ही मंगलदायक परिस्थितियाँ दिखाई देने लग पड़ेगी।

मानस तीर्थों का वर्णन करते हुए महर्षि अगस्त्य ने पवित्र अन्तःकरण को सब तीर्थों का राजा कहा है :-

सत्य तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थ मिन्द्रिय निग्रहः।

सर्व भूत दया तीर्थ तीर्थ मार्जव मेव च॥

दान तीर्थ दमस्तीर्थ सन्तोषस्तीर्य मुच्यते।

ब्रह्मचर्य परं तीर्थ तीर्थ न प्रियवादिता॥

ज्ञानं तीर्थ, घृतिस्तीर्थ तपस्तीर्थ मुदाहृतम्। तीर्थानामपि तत्तीर्थ विशुद्धिर्मनसः परा।

“सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियों पर नियंत्रण करना भी तीर्थ है। सब प्राणियों पर दयाभाव, जीवन की सरलता ये भी तीर्थ हैं। दान तीर्थ है, मन का संयम तीर्थ है। संतोष और ब्रह्मचर्य का पालन ये उत्तम तीर्थ हैं। प्रिय वचन बोलना भी तीर्थ है। ज्ञान तीर्थ है, धैर्य तीर्थ है, तप को भी तीर्थ ही माना गया है किन्तु अन्तःकरण की शुद्धि तो इन सब का तीर्थराज है।”

इसमें संदेह नहीं कि धर्म अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख आधार आन्तरिक निर्मलता है जिससे व्यक्ति में अच्छे कर्मों की निष्ठा जागृत होती है। सत्कर्मों से दूसरे लोगों में भी सद्भावनायें जागृत होती है। यदि आप दूसरों से सद्कामनाओं की, निश्छल-आत्मीयता की अपेक्षा रखते हैं तो आपको भी दूसरों के प्रति अपना अन्तःकरण निर्मल और पवित्र बनाना पड़ेगा।

दूसरे लोग कदाचित आपके साथ ईर्ष्या द्वेष रखते हों, किसी कारण आपके साथ उनका मनोमालिन्य चल रहा हो तो भी आप अपनी आन्तरिक निर्मलता बनाये रखिये। उनके प्रति शिष्ट एवं सदाचार का ही प्रदर्शन कीजिये। इससे आप अपनी सरलता बनाये रख सकेंगे। इसी आन्तरिक सदाचार की रक्षा की पुष्टि करते हुये तपस्वी वाल्मीकि ने लिखा है :-

न परः पापमादत्ते परेषाँ पाप कर्मणाम।

समयों रक्षितव्यस्तु सन्ताश्वारित्र-भूषणाः॥

“श्रेष्ठ पुरुष पापचारियों के पाप नहीं ग्रहण करते। उन्हें अपराधी मान कर उनसे बदला भी नहीं लेते। इस उत्तम सदाचार की रक्षा करना धर्म है क्योंकि सदाचार ही सत्पुरुषों का भूषण है।”

आप यदि ईर्ष्या द्वेष की, आलस्य और प्रमाद, वासना और अहंकार की तुच्छ आँधी में भटक रहे है तो एक क्षण रुक कर शान्तिपूर्वक विचार कीजिए। अपने विवेक को जागृत कीजिये। विश्वास कीजिये। यदि दूसरों को पीड़ित करके आप कुछ सफलता पा भी लें तो इससे आपका भला होना सम्भव नहीं। इसके बदले तो आपको पश्चात्ताप की आन्तरिक यन्त्रणायें ही मिलेंगी। इनसे तो लोक-परलोक सभी कुछ बिगड़ने वाला है।

उचित यही है कि अन्तःकरण की दैवी शक्ति को जागृत कीजिये और देवत्व के विकास में निष्ठापूर्वक लग जाइये। हजारों करोड़ों जन्मों के पश्चात मिले मनुष्य शरीर को पाप परिताप की भट्टी में झोंके देना बुद्धिमानी नहीं। इससे तो आप जीवन लक्ष्य से दूर ही होते चले जायेंगे। आज आपको जो सुअवसर मिला है उसका सदुपयोग कीजिये। अमूल्य मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयत्नशील हों। इसके लिये सर्वप्रथम हमें अपने अन्तःकरण को ही निर्मल और पवित्र बनाना पड़ेगा।


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