सहयोग भावना मानवता की प्रतीक है।

March 1964

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सामाजिक उन्नति और सुख-पूर्वक जीवन निर्वाह करने के लिये को सहयोग की आवश्यकता सभी स्वीकार करते हैं, पर यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि अधिकांश मानवीय सद्गुणों और धर्म का मूल मानी जाने वाली सद्वृत्तियों का भी इससे बहुत अधिक सम्बन्ध है। जिन व्यक्तियों में सहयोग की वृत्ति का उचित रूप में विकास हो जाता है उनमें “वसुधैव कुटुम्बकम की भावना भी जागृत हो जाती है। वे अनुभव करने लगते हैं कि संसार में जितने भी प्राणी है वे वास्तव में एक ही वृहत परिवार के अंग स्वरूप हैं और उनमें जितना अधिक सहयोग, ऐक्य, मित्रता की भावना का प्रसार होगा उतना ही सबका लौकिक-पारलौकिक का हित-साधन हो सकेगा।

यों तो आरम्भ से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और उसने जो कुछ उन्नति, प्रगति की है, उसका श्रेय अधिकाँश में उसकी सहयोग वृत्ति को ही है। मनुष्य ने इस पृथ्वी को जो अपने निवास योग्य बनाया है, बड़े-बड़े पर्वतों, जंगलों, सागरों में घुसकर जो जीवन निर्वाह के साधन खोज निकाले, जिन लाखों की आबादी वाले, सुख सुविधापूर्ण नगरों का निर्माण किया है और सड़कें, रेल, तार, जहाज आदि का विस्तार करके सारी दुनिया को एक घर के समान बना दिया है, इस सबका मूल आधार सहयोग की प्रवृत्ति ही है। व्यापार-व्यवसाय, उद्योग-धन्धे, शिक्षा-प्रचार, सुरक्षा की व्यवस्था के क्षेत्रों में भी आज जो बड़ी-बड़ी योजनायें सफल होती दिखाई पड़ रही हैं वे सहयोगमूलक प्रवृत्तियों का ही परिणाम है। इतना ही क्यों ज्ञान-विज्ञान की आश्चर्यजनक उन्नति, समाज-सेवा करने वाली विशाल संस्थायें, लोक-कल्याण के लिये की जाने वाली युग परिवर्तनकारी योजनायें-सभी की सफलता का आधार मनुष्यों का पारस्परिक सहयोग ही होता है। मनुष्य जितने अधिक परिमाण में और जैसी हार्दिकता के साथ सहयोग-भावना का परिचय देते हैं उतनी ही अधिक सफलता इन विषयों में मिलती है।

पर इस साँसारिक सफलता से भी बढ़ कर महत्वपूर्ण मानवता की भावना है जो क्रमशः मनुष्य के अन्तर में विकसित हो रहो और जिसके प्रभाव से एक ऐसी मानव जाति का उदय हो रहा है जो भविष्य में वैसे ही पारस्परिक प्रेम और सौहार्द के साथ रह सकेगी जैसे आज एक कुटुम्ब या परिवार के व्यक्ति रहते हैं। कुछ लोगों को यह एक असम्भव कल्पना जान पड़ेगी और वे वर्तमान विश्वव्यापी संघर्ष की घटनाओं को देखकर इसे एक सुहावना स्वप्न मात्र बतलायेंगे, पर वास्तव में वे एक विचारक की दृष्टि से देखना नहीं जानते। एक समय था कि सभी मनुष्य बहुत छोटे-छोटे समुदायों में बँटे थे और वे आपस में लड़ते-झगड़ते, एक दूसरे की हत्या ही नहीं करते रहते थे, वरन् एक दूसरे को मारकर खा जाने में भी कोई दोष नहीं समझते थे। उस अवस्था से परिवर्तन होते-होते मनुष्य अब ऐसी स्थिति में आ पहुँचे है कि संसार में प्रतिवर्ष सैकड़ों, हजारों व्यक्ति ऐसे निकल आते है जो बिना किसी स्वार्थ या सम्बन्ध के अपरिचित व्यक्तियों की रक्षार्थ प्राण दे देते हैं। आज ऐसे व्यक्तियों की नितान्त कमी नहीं है जो मानवता के हित को अपने स्वार्थ या सुख की अपेक्षा अधिक महत्व का मानते हैं और संसार की भलाई के कामों में सच्चे हृदय और निःस्वार्थ भाव से योग देते हैं। इन सब बातों को देखकर निश्चय होता है कि सहयोग कृत्रिम या क्षणस्थायी चीज नहीं है वरन् वह उसी आन्तरिक प्रकृति का एक अंश ही है और जैसे-जैसे मनुष्य का आत्मिक विकास होता जायगा वैसे-वैसे ही उसकी भी वृद्धि होती जायगी और एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब कि वह दरअसल एक सार्वभौम स्वाभाविक प्रवृत्ति का रूप ग्रहण कर ले।

सहयोग की प्रवृत्ति से मनुष्य के हृदय में जो मैत्री भावना उत्पन्न होती है वह वास्तव में अपने और दूसरों के कल्याण की दृष्टि से मनुष्य का सब से बड़ा सद्गुण है। संसार में कृष्ण, वेद व्यास, गौतम बुद्ध, महावीर, ईसा आदि मानवता के त्राता महापुरुष हुये हैं उनकी सबसे बड़ी विशेषता मैत्री भावना ही थी। वे समस्त प्राणियों को आत्मवत् दृष्टि से देखते थे और उनके कष्टों को दूर करने के लिये ही अपना समस्त शक्ति लगाते रहते थे। इन्हीं महापुरुषों की शिक्षा का परिणाम है कि मनुष्य देश और काल के अन्तर को भुला कर धीरे-धीरे मनुष्य मात्र को अपना भाई या सम्बन्धी समझने की तरफ अग्रसर हो रहा है और आज उसके दिमाग में यह विचार पैदा हो चुका है कि संसार के समस्त देशों के भेद-भावों को प्रत्यक्ष रूप में मिटाकर एक मानव-समाज की स्थापना की जाय।

यह मानव मात्र की एकता का सिद्धान्त कोई नई बात नहीं है। भारतीय मनीषी तो इसे हजारों वर्ष पूर्व “वसुधैव कुटुम्बकम्” अथवा “सर्वभूतेषु” जैसे सूत्रों द्वारा प्रकट कर चुके थे और यहाँ के हजारों भक्तों तथा सन्तों ने उनके अनुसार आचरण करके भी दिखा दिया था। आज भी भारत और अन्य देशों के महापुरुष इसी सत्य का अनुभव करके उसे संसारव्यापी रूप देने का प्रयत्न कर रहे हैं, यद्यपि ऊपरी दृष्टि से इस समय अधिकाँश मनुष्य घोर स्वार्थ की तरफ प्रेरित जान पड़ते हैं और एक ऐसे संघर्ष की तैयारी में संलग्न हो रहे हैं जिससे मानवीय सभ्यता का सर्वनाश ही सम्भव जान पड़ता है, पर इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि मानवता की एकता का सन्देश इस समय सबके कानों तक पहुँच गया है और वह उनकी आत्मा को झकझोर रहा है। जिस बात को पहले केवल थोड़े से मनीषी ही कहते और समझते थे वह अब साधारण लोगों के दिमाग में भी उठने लग गई है। इससे आशा होती है कि नाश के काले बादलों के होते हुये भी अन्त में सहयोग का सूर्य ही अधिक शक्तिशाली सिद्ध होगा और संसार अन्धकारमय प्रदेश से निकल कर सार्वजनिक सुख-शान्ति के सुप्रकाशित युग में जा पहुँचेगा।

सहयोग तथा मैत्री की यह भावना सामूहिक रूप से संसार का कल्याण करने वाली ही नहीं है, वरन् व्यक्तिगत दृष्टि से भी वह मनुष्य मात्र के लिये हितकारी है। इसके प्रभाव से मैत्री भाव रखने वाला व्यक्ति सब प्राणियों का सुहृद बन जाता है। जब वह अपने हृदय में किसी के प्रति शत्रुता का भाव नहीं रखता तो किसी अन्य के मन भी उसके प्रति विरोध की भावना उत्पन्न नहीं होती और दुनिया की तरफ से निर्भय बन जाता है। यदि संयोगवश उसे कोई कष्ट भी उठाना पड़ता है तो वह उसे दैवी विधान या आकस्मिक दुर्घटना समझ कर जरा भी क्षुब्ध नहीं होता। वह किसी अन्य मनुष्य को इसका कारण नहीं समझता और इसलिये सब प्रकार की चिन्ताओं और भयों से मुक्त रहता है। पारस्परिक वैमनस्य या मनोमालिन्य के भावों के निरन्तर बढ़ते रहने के कारण जो अगणित कठिनाइयाँ उत्पन्न होकर मानव-जीवन को कष्टपूर्ण बना देती है, वह उन सबसे मैत्री-भावना द्वारा ही बच जाता है।

इतना ही नहीं इस प्रकार मनःस्थिति बन जाने पर मनुष्य की आन्तरिक प्रसन्नता, आह्लाद की भावना स्थायी हो जाती है और समयानुसार व्यावहारिक रूप में प्रकट होकर उसको दिन ब दिन ऊंचा उठाती जाती है। इस भावना की प्रेरणा से मनुष्य सबके सुख-दुःख में आगे बढ़ कर भाग लेने लगता है, दीन-दुःखी और अभावग्रस्तों की हर तरह से सहायता करते लगता है, सदैव दूसरों की सेवा और सहायता के लिये प्रस्तुत रहता है। ऐसी स्थिति में पहुँच जाने पर अन्य सब लोग भी उसके प्रति प्रेम और आदर की भावना रखने लगते हैं, उसकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं और उसे अपनी शक्ति के अनुसार सहयोग भी देने लगते हैं। संसार में जितने भी बड़े और छोटे महापुरुष हुये है उन सबका यही जीवन-क्रम रहा है। ऐसे ही लोग सर्व-साधारण द्वारा नेता, अगुआ या माननीय माने जाते हैं। यद्यपि आज हमारे देश में ‘नेता’ शब्द की बड़ी दुर्गति हो रही है और ‘नेताओं’ को हम घोर स्वार्थ के कीचड़ में निमग्न देख रहे हैं, पर इनमें अधिकाँश ‘स्वयम्भू नेता’ हैं। वे अपने धन, विद्या, चतुराई या तिकड़म के जोर से नेता बन बैठे हैं, पर उनके भीतर उस मैत्री-भावना का सर्वथा अभाव है जो महापुरुषों में स्वभावतः होती है। यही कारण है कि ऐसे ‘मौसमी नेता’ अधिक समय तक टिक नहीं पाते। स्थायी प्रभाव और यश उन्हीं का प्राप्त होता है जो हृदय से सबको अपना अनुभव करते हैं। व्यक्तिगत तथा सामूहिक कार्यों में निःस्वार्थ भाव से सहयोग देने को प्रस्तुत रहते हैं।

सहयोग-भावना बाला मनुष्य जिस प्रकार भीतर से शुद्ध भाव-युक्त और सबका हितचिन्तन करने वाला होता है उसी प्रकार बाहर से भी सदैव सबके साथ मधुर व्यवहार करने वाला, सहानुभूति रखने वाला तथा विनीत होता है। वास्तव में उसकी आन्तरिक मैत्री-भावना के परिणामस्वरूप उसका स्वभाव ही ऐसा बन जाता है कि वह किसी के प्रति कठोरता अथवा निर्दयता का व्यवहार नहीं कर सकता और जहाँ तब सम्भव होता है। प्रत्येक की सहायता के लिये हमेशा तैयार रहता है। इस कारण अन्य लोगों के हृदय पर भी उसका प्रभाव पड़ता है और सज्जनों का तो कहना ही क्या दुर्जन व्यक्ति भी अधिक समय तक उसके प्रतिकूल नहीं रह सकते। हम जो अनेक सन्त पुरुषों के जीवन वृत्तांतों में किसी विरोधी के द्वारा उनके सताये जाने और अन्त में स्वयं उनके अनुयायी बनकर पूर्ण सहयोग देने का वृत्तांत पढ़ते है, उसका यही रहस्य है। चैतन्य चरित में मधाई-मधाई का, तुलसीदास के वृत्तांत में काशी के कई पण्डितों का, तुकाराम की जीवनी में पूना के एक ब्राह्मण का जो वर्णन मिलते हैं वे सब इसी के उदाहरण हैं कि अगर कोई अपनी स्वाभाविक दुष्टतावश या किसी प्रकार की गलतफहमी के कारण किसी सच्चे सहृदय व्यक्ति का विरोध करता भी है तो अन्त में उसे अपनी गलती स्वीकार करनी ही पड़ती है। इससे प्रायः उसका हृदय-परिवर्तन हो जाता है, उसके जीवन की धारा बदल जाती है और वह विरोध करने के स्थान पर उक्त महापुरुष का सहयोगी बन जाता है।

यह भी कोई आवश्यक बात नहीं कि हम प्रत्येक मैत्री-भावना युक्त सज्जन पुरुष के जीवन में कोई सार्वजनिक सफलता या स्मरणीय घटनायें ढूँढ़ने का प्रयास करें। ऐसे उदाहरण तो देश-काल के विशेष अवसरों पर किन्हीं दो-चार महापुरुषों के ही मिलते हैं। पर संसार के शान्तिपूर्ण विकास में और सहयोग तथा सद्भावना की निरन्तर वृद्धि में उन व्यक्तियों का महत्व भी किसी प्रकार कम नहीं है जो चुपचाप दूसरों के हित में संलग्न रहते हैं और दूसरों की भलाई के लिये अपने स्वार्थ की हानि की परवाह नहीं करते। ऐसे लोगों के कार्यों और विचारों से स्वयं ही एक पवित्र और उदारतायुक्त वातावरण तैयार होता रहता है जिसका प्रभाव दूर-दूर तक पड़ता है और जिससे अन्य अनेक लोग भी उसी मार्ग का अनुसरण करने लगते हैं। ऊपर हमने जो कृष्ण, वेद व्यास, बुद्ध, महावीर, ईसा आदि के उदाहरण दिये हैं वे तो मानवता के उच्च आदर्श तथा वास्तविक आध्यात्मिक जीवन के मार्गदर्शक हुये हैं। अगर उनके पश्चात अन्य लाखों करोड़ों व्यक्ति उनके उद्देश्यों के अनुसार आचरण नहीं करते, उनकी शिक्षाओं को कार्य रूप में परिणित करके नहीं दिखाते तो संसार की इतनी उन्नति और प्रगति कैसे सम्भव होती? इसलिये यह ख्याल करना हर्गिज ठीक नहीं कि इस प्रकार के कार्य या आदर्शों का पालन करना केवल कुछ महापुरुषों या सन्तों का ही कार्य है। प्रत्येक छोटे से छोटा व्यक्ति भी इस मार्ग पर अपनी शक्ति और परिस्थितियों के अनुसार अग्रसर हो सकता है। यदि वह सच्चाई के साथ इस पर आचरण करता रहेगा तो एक दिन वह भी किसी उच्च स्थिति को अवश्य प्राप्त कर लेगा।

आवश्यकता केवल इसी बात की है कि हम मनुष्य मात्र की अभिन्नता और सहयोग-भावना के महत्व को हृदयंगम कर लें, और इस बात को मन में अच्छी तरह बैठा लें कि व्यक्ति और समष्टि का कल्याण इस सद्प्रवृत्ति की वृद्धि में ही है। यह केवल साँसारिक उन्नति, शक्ति और सफलता की प्राप्ति, धन और वैभव की वृद्धि के लिये ही आवश्यक नहीं है, वरन् मनुष्य का आत्म-विकास भी बहुत कुछ इसी पर निर्भर है। इसके द्वारा मनुष्य अन्य लोगों से एकात्म-भाव का अनुभव करता है जिससे वैर, घृणा, शत्रुता के दूषित भावों का उदय होता है। यही सब मनुष्यता के प्रधान लक्षण हैं और इन्हीं को ग्रहण करने से मनुष्य अपने नाम को सार्थक कर सकता है।


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