सकाम नहीं निष्काम उपासना

March 1964

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जिस प्रकार शरीर को नित्य स्नान करना और देह को स्पर्श करने वाले कपड़ों का रोज धोना आवश्यक है, उसी प्रकार मन की शुद्धि के लिए स्वाध्याय और अन्तःकरण की शुद्धि के लिए उपासना भी आवश्यक है। शरीर को स्नान न कराया जाय तो दुर्गन्ध आने लगेगी और अनेक बीमारियाँ पैदा होंगी। वस्त्रों को न धोने से भी ऐसी गन्दगी और कुरूपता उत्पन्न होगी जिसके कारण दूसरे लोग घृणा करने लगेंगे और शरीर एवं मन की मलीनता बढ़ेगी। इसी प्रकार यदि मन को स्वाध्याय के साबुन और सत्संग के जल में न धोया जायगा तो गंदे वातावरण का प्रभाव निरन्तर पड़ते रहने के कारण दिन-दिन उसका स्तर नीचा ही गिरता चला जायगा। आत्म-चिन्तन और आत्म-शोधन का प्रयत्न जो नहीं करते वे आत्मिक दृष्टि से ऊँचे उठ ही नहीं सकते। जिन्हें स्वाध्याय और सत्संग के लिए अवकाश नहीं उन्हें आत्मिक प्रगति में अभी अभिरुचि ही उत्पन्न नहीं हुई ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है।

उपासना अन्तःकरण की शुद्धि के लिए आवश्यक है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार पर चढ़े हुए मल, आवरण, विक्षेप उपासना के द्वारा ही हटाये जाते हैं। इसलिए हमारे नित्य कर्म में उपासना के लिए कोई नियत समय अवश्य ही रहना चाहिए। कार्यव्यस्त व्यक्ति भी इतना तो कर ही सकते हैं कि नींद खुलने पर शैया त्यागने तक का जो समय आलस्य जैसी स्थिति में बिताना पड़ता है उसे ईश्वर उपासना में लगा दें। मानसिक ध्यान और मानसिक जप तो बिना स्नान किये भी चारपाई पर बैठे या पड़े भी हो सकता है। इसके लिए किसी सामान या विधि-विधान की भी जरूरत नहीं है। यदि श्रद्धा हो और उपयोगिता समझी जाय तो व्यस्त से व्यस्त मनुष्य भी इस प्रकार आधा, चौथाई घण्टा भजन के लिए निकाल सकता है जिन्हें इस ओर रुचि न हो और न करने का बहाना ही ढूँढ़ना हो उनके लिए तो निठल्ले समय बर्बाद करते रहने पर भी फुरसत न मिलने का रोना बना ही रहेगा।

रात को सोते समय परमात्मा का ध्यान भजन करते हुए निद्रा में विलीन होना और प्रायः उठते ही प्रभु का स्मरण करते हुए दिनचर्या-कार्यारम्भ करना एक बहुत ही उपयोगी प्रक्रिया है। एक दिन को एक जीवन मानना चाहिए। दिन भर काम करने के पश्चात रात्रि को निद्रामग्न होते समय ऐसा सोचा जा सकता है कि एक जन्म पूर्ण हुआ और अब चिरनिद्रा-मृत्यु की गोद में शयन करने जा रहे हैं। कहते हैं कि ब्रह्माजी का एक दिन एक कल्प के बराबर होता है। हम भी यदि एक दिन को एक जीवन मानें और उसका सर्वोत्तम उपयोग करने की ठानें तो उस छोटे रिहर्सल को करते हुए समस्त जीवन को अधिकाधिक श्रेष्ठ बनाते चलने में सफल हो सकते हैं।

मृत्यु के समय माया-मोह से निवृत्त होकर ईश्वर का स्मरण करते हुए शान्तिपूर्वक प्राण त्याग करने से सद्गति प्राप्ति होती है। इसी प्रकार रात्रि को सोते समय समस्त चिन्ता और विक्षेपों से निवृत्त होकर प्रभु-स्मरण करते हुए यदि निद्रा की शरण में जाया जाय तो गहरी नींद आवेगी और बुरे सपने न दीखेंगे। अन्तिम समय चित्त पर जो संस्कार डाले जाते हैं वे उस विश्राम काल में परिपक्व हो कर प्रातःकाल खिले हुए पुष्प की तरह अपना सुन्दर स्वरूप प्रकट करते हैं। इसी प्रकार प्रातःकाल नये दिन का- ये जन्म का-शुभारम्भ करते हुए प्रभु स्मरण का मंगलाचरण होना चाहिए। भारतीय संस्कृति के अनुसार प्रत्येक शुभ कार्य परमात्मा की आराधना के साथ आरम्भ होना चाहिए। नया दिन भी एक नया जन्म है। उसे आरम्भ करते हुए भी यदि प्रभु को स्मरण करने का नित्य नियम बना लिया जाय तो इसके प्रभाव से दिनभर के कार्यक्रम पर आध्यात्मिकता की छाया बनी रहेगी। प्रत्येक नये दिन का आदि और अन्त प्रभु स्मरण के साथ ही होना चाहिए। किसी धर्म ग्रन्थ का आरम्भ और अन्त मंगलाचरण के साथ ही होता है। हमारा प्रत्येक दिन भी हमारे जीवन का एक ग्रन्थ है। उसे आत्म कथा का एक स्वर्णिम पृष्ठ बनाने का प्रयत्न करें और आदि तथा अंत में ईश्वर की चर्चा करते रहे तो इसे एक स्वर्णिम पृष्ठ बनाने का प्रयत्न करें और आदि तथा अन्त में ईश्वर की चर्चा करते रहें तो इसे एक दैनिक श्रेष्ठ विधि व्यवस्था ही मानी जायगी।

गायत्री महामंत्र भारतीय धर्म और संस्कृति का मूल आधार है। उसकी उपासना हमारा धर्म कर्तव्य है। प्रातः काल उठते और रात को सोते समय मन ही मन उसका जप करना चाहिए और परमात्मा के दिव्य प्रकाश का ज्योतिर्मय ध्यान करते हुए भावना करनी चाहिए कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार हटे और सद्ज्ञान रूप धर्म, कर्तव्य, ज्ञान एवं आदर्श प्रकाश दीप्तिमान होता रहे। गायत्री सद्बुद्धि की देवी है, हमें परमात्मा से एक ही प्रार्थना करनी चाहिए कि दुर्बुद्धि के कारण हमारा जीवन क्रम अस्त-व्यस्त और तमसाच्छन्न बना पड़ा है इसमें परिवर्तन केवल सद्बुद्धि से ही सम्भव होगा। ऋतम्भरा प्रजा प्राप्त हुए बिना हमारा कल्याण कहाँ? इसलिये हे सर्वशक्तिमान प्रभु आप हमें जीवन को सार्थक बनाने वाली सद्बुद्धि दीजिए, सत्प्रवृत्तियों का हमारे अन्तःकरण में प्रेरित कीजिए, सद्भावनाओं से हमारी मनोभूमि का कण-कण भर दीजिए। सद्बुद्धि का मानना ही गायत्री उपासना का तत्व-ज्ञान है। भक्ति पूर्वक परम प्रभु से इसी की याचना हमें करते रहना चाहिए।

भोजन करते समय पहले उसे परमात्मा को समर्पण करें और पीछे प्रसाद मान कर उसे ग्रहण करना चाहिए। जितनी बार भोजन करें उतनी बार पहले नेत्र बन्द करके गायत्री मन्त्र का जप कर और प्रभु को अर्पण करने के पश्चात स्वयं खावें। भोजन की ही भाँति प्रत्येक उपलब्धि हमें ईश्वर अर्पण करना चाहिए। धन, वैभव, स्त्री, पुत्र, यश, मान, एवं सफलता का प्रत्येक उपहार हमें प्रभु के चरणों में अर्पण करना चाहिए और जो कुछ मिल सका है उसका श्रेय परमात्मा को देते हुए कृतज्ञता प्रकट करने, धन्यवाद देने के बाद ही, ग्रहण करना चाहिए। आहार का भोग लगाने का अभ्यास आरम्भ करके इस विधि को हमें जीवन की प्रत्येक सफलता तक विकसित करते जाना चाहिए।

सायं प्रात :-सोते उठते-और दो-तीन बार खाते समय भजन के चार-पाँच अवसर तो हर आदमी को मिल ही सकते हैं, उसमें अश्रद्धा ही बाधक हो सकती है, समय की कमी नहीं। यदि मनुष्य चाहे तो स्नान के बाद दस मिनट का समय नियमित उपासना के लिए भी निकाला जा सकता है। साकार उपासना करने वाले गायत्री माता के चित्र को और निराकार मानने वाले अगरबत्ती या दीप में जलती हुई अग्नि को प्रतीक मान कर उसके आगे नमन पूजन करने के उपरान्त 108 मन्त्र जप सकते है। माला हो तो ठीक नहीं तो उँगलियों के सहारे या घड़ी के माध्यम से उतनी संख्या पूरी की जा सकती हैं। प्रायः छह मिनट में एक माला, 108 मंत्रों का जप हो जाता है। इनके साथ पुनः नमन प्रणाम, आरती, सूर्यार्घदान आदि जो भी कर्मकाण्ड बन पड़े उसके साथ पूजा पूर्ण की जा सकती है। इस प्रकार नित्य की विधिवत् पूजा आराधना को कोई मनुष्य चलाना चाहे और दृढ़तापूर्वक उस क्रम को निबाहना चाहे तो इतना विधान भी बड़ी आसानी से चलता रह सकता है। सायंकाल की आरती, परिवार के लोगों के साथ सामूहिक प्रार्थना का क्रम भी जो लोग चलाना चाहें उनके लिए वह कार्य भी दस पाँच दिन में एक साधारण ढर्रा बन जाता है और बड़ी आसानी से उस व्यवस्था का निर्वाह होता रहता है।

यह अत्यन्त सरल विधियाँ बताई गई हैं। इन्हें अत्यन्त कार्य-व्यस्त व्यक्ति भी काम में ला सकते हैं। जिन्हें जिस समय अवकाश मिलता हो तब कर सकते हैं। नियमित साधना स्नान करके विधिपूर्वक की जाती है उसका विधान गायत्री महाविज्ञान ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक लिखा जा चुका है। वह जिनमें जितनी बन सके उन्हें उस प्रकार करना चाहिए पर जिन्हें सचमुच ही अवकाश न मिलता हो या अन्य कोई कठिनाइयाँ, बाधक होती हो वे सोते, उठते, खाते, पीते जप ध्यान की मानसिक साधना तो किसी भी स्थिति में कर सकते है। चलते फिरते भी वह की जा सकती है। भगवान का नाम अविधिपूर्वक लेने में भी कुछ हर्ज नहीं। विधिपूर्वक की हुई उपासना निश्चय ही अधिक फल देती हैं पर जिन्हें अवकाश की कमी है वे मानसिक साधना बिना किसी नियम प्रतिबन्ध का पालन किये भी कर सकते हैं।

जादू-टोना के रूप में गायत्री का उपयोग करने के लालची लोग निम्न स्तर के गिने जाते हैं। उनकी पूजा प्रक्रिया उपासना की श्रेणी में नहीं आती वरन् लालची का एक भौतिक उद्योग मात्र ही उसे माना जाता है। ऐसे उद्योगों का भी कुछ तो फल होता ही है, कई बार तो इतने से भी आश्चर्यजनक परिणाम होते देखे गये हैं। असंभव दीखने वाले काम बनते और पर्वत के समान आपत्तियों के पहाड़ रज राई होते देखे गये हैं। आर्थिक तंगी, सन्तान का अभाव, बीमारी, पारिवारिक कलह, शत्रुओं का प्रकोप, प्रगति पथ में बाधा आदि अनेकों अड़चनें छोटी-मोटी उपासनाओं से भी हल होती देखी गई हैं। पर कई बार ऐसा भी होता है कि पर्वत समान कठिन प्रारब्ध और पुण्य पूँजी की समाप्ति के कारण उत्पन्न हुई दरिद्रता थोड़ी-सी उपासना से नहीं भी दूर होती। बड़े भगोने में पानी गरम करना चाहे और उसमें भी जल्दी करे तो उसे निराश होना ही पड़ेगा। ऐसे ही लोग उस आराधना को निरर्थक बताते और गाली देते सुने जाते हैं।

उचित यही है कि कोई कामना लेकर गायत्री उपासना न की जाय इससे साधक ईश्वर की दृष्टि में लालची भिखमँगा ठहरता है और उसका मूल्य स्वयं अपनी भी आँखों में घट जाता है। कामना पूर्ण होने पर अहंकार बढ़ता हैं कि हमने अपने जादू-मन्त्र से इतना लाभ प्राप्त कर लिया और असफलता मिलने पर नास्तिकता एवं विक्षोभ की भावना उत्पन्न होती है। सकाम उपासना से लाभ सीमित और हानि अधिक है। आध्यात्मिक प्रगति की सम्भावना तो उससे बनती ही नहीं, क्योंकि जब आत्म कल्याण की बात सोची ही नहीं गई थी, सकाम प्रयोजन को ही ध्यान में रखा गया था तो आत्मिक लाभ मिलता भी कैसे? यह हानि निष्काम उपासना में बिलकुल नहीं वरन् दुहरा लाभ है। आत्मिक प्रगति-सद्बुद्धि की उपलब्धि तो उसमें निश्चित रूप से होती है और जितना लाभ सकाम उपासना से मिलना चाहिए उतना लौकिक लाभ भी मिल ही जाता है। निराश या क्षुब्ध होने की गुँजाइश इसलिए नहीं रहती कि जब तुच्छ स्वार्थ के लिए किया ही नहीं गया था तो असफलता मिलने पर भी खिन्नता क्यों आवेगी?

निष्काम उपासना वाले को भौतिक लाभ नहीं मिलता ऐसी बात नहीं। उसका स्तर ऊँचा रहने से कामनाशील की अपेक्षा कहीं अधिक लाभ मिलता है। गायत्री के द्वारा जहाँ आत्मिक प्रगति होती है वहाँ भौतिक सफलताओं का पथ भी प्रशस्त होता है। अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्र, नदी, समुद्र आदि जड़ पदार्थ जब अपना गुण नहीं छोड़ते तो सर्वशक्तिमान अनादि महा शक्ति गायत्री की भक्तवत्सलता और अहैतुकी कृपा करने की विशेषता कहाँ चली जायगी? माता का पुत्रों के प्रति स्वाभाविक स्नेह होता है, गायत्री माता भी अपने पुत्रों पर शरीर को जन्म देने वाली जननी से भी कहाँ अधिक कृपा और करुणा का भाव रखती हैं फिर वे अपनी कृपा शरणागत पर क्यों न कटेंगी? अपनी न्यायशीलता, कर्मफल व्यवस्था और पुरुषार्थ के अनुरूप पुरस्कार देने की सृष्टि-संहिता की रक्षा करते हुए जितनी अधिक कृपा कर सकती होंगी अवश्य करेंगी। यह विश्वास रखते हुए यदि हम उच्चस्तरीय निष्काम उपासना करें तो थोड़ा-सा भी विधि-विधान हमारे लिए सब प्रकार श्रेयस्कर सिद्ध हो सकता है।

भव्य समाज की नव्य रचना


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