जातीय संगठनों का स्वरूप

March 1964

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प्राचीन काल में मनुष्य जाति को गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार चार भागों में सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से विभक्त किया गया था। ज्ञान, शस्त्र, धन और श्रम की चार शक्तियाँ मानव-जाति की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती रही हैं। यों इन चारों की ही प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकता पड़ती है, पर इनमें से एक-एक की विशेष आराधना करने के लिए भौतिक जीवन का सुनिश्चित कार्यक्रम बनाने के लिए वर्ण धर्म का विधान बनाया गया।

आध्यात्मिक प्रगति के लिए उपासना, जीवन शोधन और परमार्थ की विशिष्ट कार्य-पद्धति अपनानी पड़ती है तब जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भौतिक प्रगति के लिए ज्ञान, शस्त्र और धन की आवश्यकता रहती है। इन्हीं के माध्यम से अज्ञान, अशक्ति और अभावों का निराकरण होता हैं। एक वर्ग इनमें से एक लक्ष्य को लेकर कार्य-संलग्न रहे तो उसमें विशेष योग्यता प्राप्त होने और अधिक सफलता मिलने की संभावना रहती है। इस तथ्य को समझते हुए ऋषियों ने चार वर्ण बनाकर सुन्दर ढंग से श्रम विभाजन कर दिया। सामाजिक उन्नति के लिए यह एक सुन्दर व्यवस्था भी है।

कर्म में वर्ण का सिद्धान्त सनातन है। वर्ण व्यवस्था का आधार गुण, कर्म, स्वभाव है। पर वर्तमान जाति व्यवस्था वंश परम्परा से चलती है। ज्ञानी, त्यागी और लोक-सेवी ब्राह्मण का बेटा अशिक्षित दुर्बुद्धि, दुष्ट तथा दुराचारी होते हुए भी जब ब्राह्मण की कहलाता है तब आश्चर्य होता है कि वर्ण-व्यवस्था का मूल आधार इस प्रकार उलट-पुलट क्यों हो गया?

ऐतिहासिक तथ्यों की गहरी खोज बीन करने पर पता चलता है कि वर्तमान जातियाँ वर्ण नहीं वरन् वर्ग मात्र है। जिन लोगों में समीपता, प्राँत, भाषा, आचार, व्यवहार वंश की समानता के कारण परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार होता था उनकी परिवार शृंखला एक जाति या उपजाति कहलाने लगी। एक वंश तथा उससे संबंधित रिश्तेदारों का समूह एक वर्ग या जाति कहलाया। अधिकतर तो एक वर्ग के भीतर ही गोत्र बचाकर विवाह शादी होती है। पर कहीं-कहीं ऐसा भी है कि एक उपजाति अपने में नहीं वरन् दूसरी उपजाति में विवाह करती है। रक्त से संबंधित वंश और विवाह शादियों की शृंखला से बंधे हुए अन्य परिवार मिलकर जो वर्ग बन उन्हें ही आज जातियों या उपजातियों के नाम से गिना जाता हैं। इनकी संख्या भारतवर्ष में 17 हजार से ऊपर हैं। यदि उनका आधार वर्ण होता तो वे चार ही रहती। इतनी बहु-संख्यक वे किसी प्रकार भी न बन पातीं।

इन वर्गों को- जातियों या उपजातियों को वंश और बेटी संबंध के आधार पर बने समूह कहा जा सकता है। परिवार में केवल वंश ही प्रधान रहता है, जिसमें रिश्तेदार भी जुड़ जावें, उसे बृहत् परिवार कहा जा सकता हैं। यह छोटे-छोटे वृहत परिवार ही आज जातियों और उपजातियों के रूप में विख्यात है। वर्ण व्यवस्था से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। वर्ण का आधार कर्म है वंश नहीं। वंश परम्परा तथा विवाह परम्पराओं का आधार लेकर चलने वाले समूहों को एक बृहत् परिवार ही माना जायगा उसे ही उपजाति या जाति का नाम मिला है।

इन बृहत् परिवारों को सुविकसित करने का कार्य अलग-अलग संगठनों के अंतर्गत किया जाय तो कुछ हर्ष नहीं, न इससे कोई हानि है और न संकीर्णता। श्रमिक वर्ग के कार्यों की या काम करने की स्थानों की भिन्नता के कारण अलग-अलग यूनियनें बनती हैं। यद्यपि उन सबका लक्ष्य एक ही होता है पर संगठन की सुविधा के लिए उनकी पृथक-पृथक यूनियनें बनती हैं। मोटर ड्राइवर ताँगा हाँकने वाले, रिक्शा चलाने वाले यद्यपि एक ही प्रकार का काम करते हैं और उनके संगठन का उद्देश्य भी एक ही है पर संगठन में सुविधा तभी रहती है जब मोटर ड्राइवर यूनियन, ताँगा यूनियन, रिक्शा यूनियन आदि अलग-अलग बनें। तेल मिलों के, कपड़ा मिलों के, औषधि फैक्ट्रियों के, हाथ करघा बुनकरों के अलग-अलग संगठन रहने पर भी यह नहीं सोचा जाता कि यह पृथकता फूट फैलाने या संकीर्णता बढ़ाने के लिए आरम्भ की गई है। सदुद्देश्य से क्षेत्र एवं एकरूपता की दृष्टि से किये हुये संगठन कभी हानिकारक नहीं हो सकते। जैन सभा, सनातन धर्म सभा, सिक्ख शिरोमणि सभा, ईसाई मिशन आदि संगठन कोई बुराई उत्पन्न नहीं कर रहें। फिर जातीय संगठन यदि प्रगतिशील उद्देश्यों के लिए बनाये जा रहे हों तो उनसे न तो किसी प्रकार की हानि हो सकती है और न संकीर्णता एवं फूट बढ़ सकती है। छोटा संगठन भी बृहत् एकता की ओर बढ़ने की एक कदम ही होता है।

युग-निर्माण योजना में परिवार-निर्माण पर अत्यधिक जोर दिया गया है। क्योंकि समाज का आधार परिवार ही है। परिवारों का सम्मिलित स्वरूप ही तो समाज है। ईंटें से मिलकर ही तो दीवार बनती हैं। ईंटें कच्ची रहती हैं तो दीवार भी कमजोर ही बनेगी। परिवारों का तारतम्य यदि अस्त-व्यस्त हो रहा होगा जो सभ्य समाज की भव्य रचना का दृश्य कहाँ दिखाई देगा? परिवारों में स्वस्थ परम्पराओं का प्रवेश’ कराने के लिए ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार सदस्यों को प्रेरणापूर्वक लगाया गया है। फलस्वरूप तीन चौथाई से अधिक इस परिवार के सदस्य अपने-अपने कुटुम्बों की अभिनव रचना करने में लगे हुए हैं। नियमित रूप से कुछ समय वे इस कार्य के लिये लगाते रहते हैं।

बृहत् परिवारों की सेवा, संगठन भी उसी प्रयत्न का विकसित रूप है। सन्मार्ग पर चलने की सफल प्रेरणा केवल उन्हें दी जा सकती है जिस पर अपना व्यक्तिगत प्रभाव हो। सुधार आन्दोलन के संदर्भ में हर व्यक्ति का वास्तविक क्षेत्र भी उन्हीं लोगों के बीच रहता है। कुटुम्बी, रिश्तेदार, मित्र, परिचित एवं जो अपने प्रभाव में हैं उन्हीं से कोई सुधारात्मक कार्य जोर देकर कराया जा सकता है। अच्छी बात सुन तो कोई भी लेता है पर करता उसी के आग्रह से है जिसका कुछ प्रभाव अपने ऊपर होता है। सन्मार्ग पर चलने में हर व्यक्ति को कुछ अड़चन अनुभव होती है उस अड़चन का मुकाबला करने के लिए आवश्यक साहस किसी प्रभावी व्यक्ति की प्रेरणा से ही मिलता है। इसलिए युग-निर्माण योजना के अंतर्गत हर परिजन को यह कहा गया है कि दूर देशों तक धर्मोपदेश देने जाने का विचार छोड़कर वह अपने प्रभाव क्षेत्र में सेवा कार्य आरंभ करें और वह प्रभाव क्षेत्र जैसे-जैसे बढ़ता जाय वैसे-वैसे सेवा क्षेत्र भी बढ़ता जाय।

बृहत् परिवार में- अपनी उपजाति के क्षेत्र में कार्य करते हुए प्रत्येक लोक सेवी को अधिक सुविधा रह सकती है। वंश, रिश्तेदारी सम्बन्धों के आपसी ताने-बाने तथा भावनात्मक स्वभावी एकता के कारण जाति या उपजाति के क्षेत्र में काम करना अपने छोटे परिवार की अपेक्षा उससे कुछ ही बड़े क्षेत्र में काम करने का अगला कदम जैसा ही प्रतीत िकेडडडडडडड सुधार और संगठन में हम लोग लगे ही हुए हैं। यदि बृहत् परिवारों तक जातीय संगठनों के इस कार्यक्षेत्र को बढ़ा दे और युग-निर्माण योजना के अनुसार सभ्य समाज की भव्य रचना के लिए एक और कदम आगे बढ़ावें तो यह उचित भी होगा, आवश्यक भी और प्रशंसनीय भी।

यों वैवाहिक अपव्यय को रोकने और सात्विकता की आदर्शवादी परम्पराओं के अनुसार विवाह सम्बन्धों के प्रचलन की प्रेरणा देने के उद्देश्य से यह जातीय संगठनों का कार्य आरम्भ करना पड़ रहा है पर उसका उद्देश्य इतने तक ही सीमित न होगा। निजी परिवारों में जिन स्वस्थ परम्पराओं को जन्म देना चाहें उन्हें भी इन बृहत् परिवारों में व्यापक बनाने का, मानवोचित गुण, कर्म स्वभाव के आध्यात्मिक प्रवेश तत्वों को दिलाने का प्रयत्न इन संगठनों को करना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, सद्भावना एवं सुविधा बढ़ाने के लिये अनेकों कार्यक्रम बन सकते हैं और यह जातीय संगठन अपने कार्यक्षेत्र में समुचित उत्साह उत्पन्न कर सकते हैं। युग-निर्माण योजना 108 कार्यक्रमों को जब घर-घर में व्यापक बनाया गया है तो जातीय क्षेत्र भी तो उसी परिधि में रहेगा।

सन्ध्या, गायत्री, हवन, रामायण, गीता आदि की शिक्षाओं का क्रम और भी किया जा सकता है, स्त्री शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा के लिए विशेष जोर दिया जा सकता है और उसके लिये जगह-जगह रात्रि पाठशालाएँ आरम्भ की जा सकती हैं। वर्ष में एक बार सम्मेलन हो और उसमें सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार कराये जाय तो अच्छा ही रहेगा। माँस मदिरा का सेवन, थाली में जूठन छोड़ना, गाली देना, मृत्युभोज, पशु-बलि, अश्लील गाने, चित्र, पुस्तकें, आदि अनेकों बुराइयाँ ऐसी हैं जिन्हें छोड़ने के लिये आन्दोलन किया जा सकता है और उन अनेकों सत्प्रवृत्तियों को इन संगठनों के द्वारा फैलाया जा सकता है जो मानवता के आदर्शों को विकसित एवं परिपुष्ट करती हों। इस प्रकार यह प्रगतिशील जातीय संगठन अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अनेकों दुष्प्रवृत्तियों का शमन और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करते हुए युग निर्माण को भूमिका में महत्वपूर्ण भाग ले सकते हैं।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति

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